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पाकिस्तान 'मोहलत' से गदगद पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी?

पाकिस्तानी मीडिया मामले की गंभीरता को समझने की बजाय इसे पाकिस्तान के खिलाफ साजिश और भारत और अमेरिका का प्रोपेगैंडा बताकर खारिज कर रहा है

Seema Tanwar

कहावत है बिल्ली आंख बंद कर के समझती है कि खतरा टल गया है. कुछ यही हाल पाकिस्तान और उसके उर्दू मीडिया का है. बात आकतंकवाद को वित्तीय समर्थन देने वाले देशों की वॉच लिस्ट में आने की है जिससे पाकिस्तान को तीन महीने की मोहलत मिल गयी है. लेकिन बकरे की मां कब तक खैर बनाएगी.

जैसी करनी, वैसी भरनी. लेकिन अगर आप पाकिस्तान उर्दू मीडिया का रवैया देखें तो एक और कहावत याद आती है. उल्टा चोर कोतवाल को डांटे. क्योंकि पाकिस्तानी मीडिया मामले की गंभीरता को समझने की बजाय इसे पाकिस्तान के खिलाफ साजिश और भारत और अमेरिका का प्रोपेगैंडा बताकर खारिज कर रहा है.


कई अखबार तो पाकिस्तान को मुस्लिम दुनिया का अगुवा बताने के चक्कर में सऊदी अरब को खरी-खोटी सुना रहे हैं जहां इन दिनों महिलाओं को कई अधिकार दिए जा रहे हैं.

मुंगेरी लाल के सपने

पाकिस्तान के सबसे मशहूर उर्दू अखबार ‘जंग’ का संपादकीय है- पाकिस्तान विरोधी मुहिम नाकाम. अखबार ने पाकिस्तान का नाम तथाकथित ग्रे लिस्ट में फिलहाल शामिल ना होने को पाकिस्तान की बड़ी कामयाबी बताया है. अखबार की दलील है कि आतंकवादी संगठनों की आर्थिक मदद (फंडिंग) के रास्ते रोकने के लिए पाकिस्तान लगातार प्रभावी कदम उठा रहा है, लेकिन अमेरिका और भारत से उम्मीद ही करना बेकार है कि वो इन कोशिशों पर संतोष का इजहार करेंगे, इसलिए जरूरी है कि पाकिस्तान अमेरिका और उसके सहयोगियों के बिना अपना काम चलाना सीखे.

जाहिर है अखबार का इशारा विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की तरफ से मिलने वाली मदद पर है जिसके बिना पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ठप पड़ जाएगी. इन दोनों ही संस्थाओं पर अमेरिका का बहुत अधिक प्रभाव है. असल हालात से आंखें मूंदते हुए अखबार दुनिया भर में पाकिस्तान के खिलाफ बन रहे माहौल को भारत और अमेरिका का प्रोपेगैंडा बताता है.

जसारत’ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ चल रही हवा का एक अलग ही तर्क दिया गया है. अखबार लिखता है कि पाकिस्तान से दुश्मनी और अदावत की वजह साफ है कि इस्लामी दुनिया में यही एक मुल्क है जहां ज्यादातर लोग आज भी इस्लामी व्यवस्था को लागू करने के हक में हैं, और बड़ी हद तक समाज अपने धार्मिक तौर-तरीकों पर अमल करता है. सऊदी अरब पर तंज करते हुए अखबार लिखता है कि जो देश इस्लामी व्यवस्था के झंडाबरदार थे उन्हें भी 'उदारवाद का चस्का' लग गया है. सऊदी अरब में हाल में हुए अहम फैसले का मखौल उड़ाते हुए अखबार लिखता है कि सिनेमाघर खुल रहे हैं, महिलाओं के लिए अबाया (इस्लामी पोशाक) की अनिवार्यता हटा दी गई है, एक साथ महिला-पुरुषों के खेल हो रहे हैं और संगीत को बढ़ावा दिया जा रहा है.

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था विश्व बैंक और आईएमएफ के कर्जों की बदौलत जैसे-तैसे लुढ़क रही है, लेकिन 'जसारत' का संपादकीय पढ़ कर लगता है कि मुंगेरी लाल के हसीन सपने ऊंची उड़ान भर रहे हैं. अखबार लिखता है कि पूरी इस्लामी दुनिया में पाकिस्तान ही अकेला ऐसा मुल्क है जिसे 'इस्लामी लोकतंत्र' कहा जाता है और अमेरिका, इजरायल, भारत और कुछ यूरोपीय देशों को यही आशंका है कि 'यह शेर किसी भी वक्त जाग सकता है और इस्लामी दुनिया का नेतृत्व कर सकता है.'

ईमानदार कोशिशें?

दुनिया’ अखबार भी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की वॉच लिस्ट में पाकिस्तान का नाम शामिल न होने पर गदगद है. अखबार कहता है कि अगर पाकिस्तान का नाम ग्रे लिस्ट में शामिल कर लिया जाता तो इसका सीधा सा मतलब यह होता कि आतंकवाद के खिलाफ दी गई 'पाकिस्तान की सारी कुर्बानियों' को पूरी तरह नजरअंदाज कर के सारी तवज्जो इस बात पर होती कि वह आतंकवादियों की मदद कर रहा है या नहीं. लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. इसीलिए अखबार कहता है कि ग्रे लिस्ट में नाम आने का खतरा फिलहाल टला है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है.

खुद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री का कहना है कि जून में पाकिस्तान का नाम इस लिस्ट में आ सकता है. अखबार लिखता है कि तीन-चार महीने की इस मोहलत में पाकिस्तान को ऐसे ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि दुनिया को पता चले कि पाकिस्तान आतंकवाद को सपोर्ट करने वाला नहीं बल्कि उसके खात्मे के लिए ईमानदारी से कोशिश कर रहा है. लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर पाकिस्तान इतना ही ईमानदार होता तो आज यह नौबत ही क्यों आती.

रोजनामा ‘पाकिस्तान’ लिखता है कि पाकिस्तान इससे पहले 2012 से 2015 तक इस लिस्ट में शामिल रह चुका है, और इस दौरान भी उसने मुश्किलों का सामना कामयाबी से किया है. अखबार ने ग्रे लिस्ट में फिलहाल पाकिस्तान का नाम शामिल ना होने पर खुशी जताई है लेकिन भारत को 'चालाक दुश्मन' बताते हुए लिखा है कि वह 'दोबारा जून में वार' करने की कोशिश करेगा. जाहिर है अखबार इस मामले को सिर्फ भारत-पाकिस्तान के चश्मे से देख रहा है जबकि हकीकत यह है कि अमेरिका समेत पूरा पश्चिमी जगत पाकिस्तान की असलियत को समझ कर उस पर शिकंजा कस रहा है.

अखबार लिखता है कि अब ऐसे कदम उठाए जाएं कि जब मामला दोबारा उठे तो किसी तरफ से भी ऊंगली ना उठे. लेकिन इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि जिस नीति को पाकिस्तान ने दशकों तक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, क्या उसे चंद महीनों में दुरुस्त किया जा सकता है?

सिर्फ इल्जाम

एक्सप्रेस’ के संपादकीय में तीन महीने की मोहलत को एक चुनौती करार दिया गया है. अखबार कहता है कि इस वक्त पाकिस्तान को अपनी कूटनीति की महारथ दिखानी होगी क्योंकि आतंकवादियों की फंडिंग के इल्जामों को धोने के लिए तीन महीने की अवधि किसी चैलेंज से कम नहीं है. लेकिन असल समस्या को दूर किए बिना अगर महज 'इल्जामों को धोने' पर ध्यान दिया जाएगा तो फिर पाकिस्तान किस मुंह से उम्मीद कर सकता है कि दुनिया में उसकी छवि बदले.