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पाकिस्तान डायरी: इस्लामाबाद बना मैदान-ए-जंग, जिम्मेदार कौन

पाकिस्तानी अखबार इन हालात के लिए कट्टरपंथियों की बजाए सरकार को ज्यादा जिम्मेदार बता रहे हैं. हर तरफ सरकार पर हालात को ठीक से ना संभालने के आरोप लग रहे हैं

Seema Tanwar

एक तरह से मैदान-ए-जंग में तब्दील हुई इस्लामाबाद की सड़कें और दूसरे कई शहरों में पैदा हंगामे के हालात पाकिस्तानी मीडिया में छाए हुए हैं. टकराव पर आमादा कट्टरपंथियों से निपटने के लिए सेना बुलानी पड़ी. तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह पार्टी नाम के एक संगठन ने कानून मंत्री जाहिद हामिद के इस्तीफे की मांग के साथ ये धरना शुरू किया.

ये संगठन कानून मंत्री को चुनाव संबंधी एक हलफनामे से पैगंबर मोहम्मद से जुड़ा संदर्भ हटाने के लिए जिम्मेदार मानता है. अब हलफनामे को उसके मूल स्वरूप में बहाल कर दिया गया है और कानून मंत्री माफी भी मांग चुके हैं, लेकिन धरना खत्म नहीं हुआ.


हालात बेकाबू होता देख प्रदर्शनकारियों के खिलाफ ऑपरेशन किया गया, जिनमें छह लोग मारे गए और बहुत से घायल हो गए. लेकिन दिलचस्प बात ये है कि पाकिस्तानी अखबार इन हालात के लिए कट्टरपंथियों की बजाए सरकार को ज्यादा जिम्मेदार बता रहे हैं. हर तरफ सरकार पर हालात को ठीक से ना संभालने के आरोप लग रहे हैं.

सरकार की नाकामी   

जंग’ अखबार का कहना है कि देश डंडे के जोर पर नहीं चलते. शांति व्यवस्था को तबाह और सरकारी तंत्र को पंगु बनाने की आजादी दुनिया के किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक देश में नहीं दी जा सकती.

अखबार लिखता है कि हालात पर काबू पाने की कोशिश हो रही है, लेकिन ये बात निहायत अफसोसनाक है कि किसी मुद्दे पर जब कोई विरोधी सोच सामने आती है तो सरकार बातचीत और मिल बैठकर पहले ही मुद्दे को निपटाने की बजाए हालात को इस हद तक जाने देती है कि बात हाथ से निकलने लगती है.

अखबार की राय है कि लाल मस्जिद का नरसंहार हो, मॉ़डल टाउन लाहौर की त्रासदी हो, या फिर धरने और लॉन्ग मार्च, सभी मामलों में सरकार का यही रवैया नजर आता है. अखबार मानता है कि धरने, विरोध प्रदर्शन, जलसे और जुलूस बेशक लोकतांत्रिक आजादी के तहत जायज हैं लेकिन वे कुछ संवैधानिक और कानूनी हदों के भीतर ही होने चाहिए.

औसाफ’ ने लिखा है कि विश्व स्तर पर इस धरने की वजह से नकारात्मक संदेश गया है. अखबार कहता है कि देश अंदरूनी तौर पर भी विदेशी ताकतों की साजिश का शिकार है. सीमाओं पर भारत की आक्रामकता जारी है. अखबार की राय में, ऐसे हालात में पाकिस्तानी के राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व को एकजुट होना चाहिए था लेकिन बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो सका है.

मीडिया पर पाबंदी

अखबार ‘नवा ए वक्त’ लिखता है कि इस ऑपरेशन का सबसे भयानक पहलू टीवी कवरेज और सोशल मीडिया वेबसाइटों पर पाबंदी लगना था. अखबार का कहना है कि ऐसा तो तानाशाही दौर में भी नहीं हुआ था. अखबार ने अतीत के पन्ने पलटते हुए लिखा है कि आखिरी बार 12 अक्टूबर 1999 को मुशर्रफ के तख्तापलट के मौके पर मीडिया को ब्लैक आउट पर मजबूर किया गया था.

अखबार ने माना है कि टीवी कवरेज और सोशल मीडिया के जरिए धरना देने वालों को अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का मौका मिला, लेकिन जब सरकार को प्रदर्शनकारियों की मांगें मंजूर नहीं थी और वे भी अपने रवैये में लचक को तैयार नहीं थे तो फिर ऑपरेशन में इतनी देरी ही क्यों की गई.

रोजनामा ‘दुनिया’ ने भी सरकार पर ढुलमुल रवैया अपनाने का आरोप लगाया है. अखबार ने लिखा है कि सरकार तो शायद अब भी हाथों पर हाथ धरे बैठी रहती. ये अदालत और मीडिया ही हैं जिन्होंने कहा- जनाब कुछ कीजिए, लेकिन धरना खत्म कराने के लिए बल प्रयोग करने की बात किसी ने नहीं कही थी.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खकान अब्बासी

अखबार कहता है कि ऑपरेशन के दौरान ऐसी रणनीति अपनाई गई कि हालात बेहतर होने की बजाए और बदतर हो चुके हैं. प्रशासन को कुछ सूझ नहीं रहा है कि क्या करे. अखबार ने सरकार से आर्मी चीफ की इस हिदायत पर अमल करने को कहा है कि हालात से शांतिपूर्ण तरीके से निपटा जाए.

नवाज शरीफ की रोशन ख्याली

वहीं ‘उम्मत’ की नजर में भी इन हालात के लिए कट्टरपंथी नहीं बल्कि सरकार और राजनेता ही जिम्मेदार है. अखबार लिखता है कि शर्म और अफसोस की बात है कि शुरू में पूरी संसद यानी नेशनल असेंबली और सीनेट के सदस्यों ने चुनाव से जुड़े हलफनामे में बदलाव को मंजूर कर लिया था. जब देश भर में इस मुद्दे पर तीखी निंदा हुई तो बदनामी का दाग सिर्फ सरकार के दामन पर रह गया, जिसने उसे धोने की पूरी कोशिश की.

अखबार के मुताबिक इसी का नतीजा है कि हलफनामा अपने असल स्वरूप में बल्कि पहले से भी बेहतर और ज्यादा सार्थक स्वरूप में सामने आया है. अखबार लिखता है कि पाकिस्तान का निर्माण इस्लामी नजरिए की बुनियाद पर हुआ लेकिन पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता नवाज शरीफ ने हालिया सालों में इस्लामी नजरिए की जगह रोशन ख्याली का पश्चिमी नजरिया अपना लिया है ताकि विदेशी ताकतें उनकी सत्ता को बनाए रखने में मदद करें.

अखबार के मुताबिक, पर्यवेक्षक ये कहने को मजबूर हो गए हैं कि नवाज शरीफ का नजरिया सिर्फ माल और पद हासिल करना है और अगर इसे बढ़ावा मिलता रहा तो फिर देश की सुरक्षा और सलामती का खुदा ही हाफिज है.