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आतंकवादियों की नई नस्लें उगाते पाकिस्तानी शैक्षणिक संस्थान

पाकिस्तानी सरकार मदरसों से हटकर धर्मनिरपेक्ष शैक्षिक संस्थानों को आतंकवाद और उग्रवाद की बहस में धकेलना चाहती है

Nazim Naqvi

अगर चिंता का विषय ये है तो कोई भी इंसान-पसंद इस चिंता से जुड़ जाएगा. चाहे वो पकिस्तान में रह रहा हो या हिंदुस्तान में. पकिस्तान के राष्ट्रीय समाचार-पात्र 'डॉन’ की एक खबर के मुताबिक ‘सिंध पुलिस’ के काउंटर-टेररिज्म विभाग (सीटीडी) द्वारा बुधवार, 12 जुलाई को एक सेमिनार आयोजित किया गया. विषय था 'शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ता उग्रवाद'.

इस सेमिनार में प्रमुख शिक्षाविदों ने विद्यार्थियों में पनप रहे उग्रवाद को पहचानने के लिए एक मजबूत नीति की मांग की. उनका मानना है कि ये सोच अब परंपरागत मदरसों तक ही सीमित नहीं रह गई है. ये सोच प्रतिष्ठित सार्वजनिक और निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी पाई जा रही है. ये अब तक चले आ रहे उस 'मिथक' को तोड़ती है कि कट्टरता का जनम गरीबी और निरक्षरता के माहौल से होता है.


सेमिनार में बोल रहे लोगों ने चिंतित समाज के हर वर्ग से इसके खिलाफ प्रभावी दिशा-निर्देश बनाने की मांग की जो सिंध प्रांत के शिक्षित युवाओं को तेजी से आकर्षित कर रही है. खबर के अनुसार, इस सेमिनार में 40 निजी एवं सरकारी, विश्वविद्यालयों के उप-कुलपति और अन्य अधिकारी मौजूद थे.

समाचार-पत्र ने काउंटर-टेररिज्म विभाग के प्रमुख, आईजी डॉ. सनाउल्लाह अब्बासी का वक्तव्य भी छापा है जिसमें वो कहते हैं कि अकादमिक संस्थानों में उग्रवाद बढ़ रहा है, और हमारे विभाग का आकलन है कि अगली पीढ़ी के आतंकवादी किसी मदरसे की पृष्ठभूमि के बजाय विश्वविद्यालय संस्थानों से निकलेंगे..

ये तो थी वो खबर जो पकिस्तान के मुख्य अखबार ने छापी. अब अगर इस खबर के बीच की खबर यानी ‘बिटवीन द लाइन्स’ को समझने की कोशिश कीजिए तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है. आज का हमारा दौर, जिसमें आतंकवाद और उग्रवाद को पूरी तरह से इस्लामी विचारधारा से जोड़ने की कोशिशें दुनियाभर में तेज हुई हैं, पकिस्तान जैसे इस्लामी राज्य के लिए ये एक चुनौती से कम नहीं.

अमरीका से बढ़ती उसकी दूरी एक तरफ है तो चीन के साथ उसकी आर्थिक साझेदारी दूसरी ओर, ऐसे में उसपर लगा उग्रवाद और आतंकवाद का ठप्पा, उसे मजबूर करता है कि वो इससे लड़ता हुआ दिखाई दे. लेकिन सवाल ये है कि जिनकी समझ की बुनियाद ही गलत नजरिए पर हो उनसे किसी सुधार की उम्मीद कैसे की जा सकती है.

यहां एक चीज और समझने की कोशिश कीजिए, जिस तरह इस्लामिक-समाज के प्रति दुनियाभर में एक नफरत सी पनप रही है, उससे, सबसे ज्यादा विचलित इस समाज के युवा हैं, जिनकी आंखों में बेहतर जिंदगी के ख्वाब हैं. वो तर्क के आधार पर अपने आस-पास के वातावरण का मूल्यांकन भी कर रहे हैं और वैज्ञानिक आधार पर अपनी मान्यताओं को परख भी रहे हैं. ये युवा अपने बड़ों-बुजुर्गों में गहरे पैठ बना चुकी उनकी रूढ़िवादी मान्यताओं को छेड़े बिना, या उस बहस में जाय बिना, अपने भविष्य के रास्ते बनाने के लिए बेचैन हैं.

अब उपरोक्त खबर की एक और सच्चाई पर नजर डालिए. ये खबर, जिसमें बताया गया है कि उस सेमिनार में 40 विश्वविद्यालयों के उप-कुलपति और अन्य अधिकारी मौजूद थे, जब इस सेमिनार के बारे में मिडिया को बताने की बारी आती है तो केवल उन्हीं लोगों द्वारा राय या अपने विचार रखे जाते हैं जो ‘काउंटर-टेररिज्म विभाग’ से जुड़े अधिकारी हैं. अखबार ने अपनी पूरी रिपोर्ट में किसी उप-कुलपति या विश्वविद्यालय के अधिकारी का कोई बयान नहीं छापा. क्यों? क्या उनसे नहीं पूछना चाहिए था कि जो हालात बताए जा रहे हैं उनपर, उनकी क्या राय है?

ऐसी स्थिति में क्या ये नहीं समझना चाहिए कि ये खबर, पाकिस्तानी हुकूमत की हताशा जाहिर करती हुई खबर है. वो मदरसों से हटकर धर्मनिरपेक्ष शैक्षिक संस्थानों को आतंकवाद और उग्रवाद की बहस में धकेलना चाहती है. और काउंटर-टेररिज्म के नामपर उन संस्थानों में पढ़ रहे और तथाकथित इस्लामिक-विचारधारा से विमुख होते युवाओं को अपनी निगरानी के घेरे में लेना चाहती है.

इस्लाम के प्रति इस नई सोच का खतरा इसलिए अपना आधार रखता है क्योंकि सच का सामना करने कि क्षमता में कमी, पूरे मुस्लिम नेतृत्व के स्वभाव का हिस्सा बन चुकी है. ये स्वभाव पकिस्तान समेत तमाम इस्लामिक-राज्यों मौजूद है. वो लोग जो इस्लामी राज्य के भ्रम में फंसे हुए हैं उनके लिए कैसे मुमकिन है कि वो काउंटर-टेररिज्म का कोई विभाग खोलें. अगर खोलेंगे तो यकीनन वो किसी दबाव में होगा.

पाकिस्तान में काउंटर-टेररिज्म विभाग की स्थापना 2013 में हुई. जिसके बारे में उस समय पकिस्तान के एक अखबार ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ ने लिखा था 'राष्ट्रीय प्रतिवाद आतंकवाद और चरमपंथ नीति 2013, आतंकवाद को नष्ट करने, रोकने और देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार और निम्न स्तर वाले आतंकवादियों को सैनिकों के रूप में पुनर्निर्मित करने पर केंद्रित है. नई नीति में सैन्य कार्रवाई और नागरिक फॉलो-अप भी शामिल हैं, जो आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों में अधिक विकास और आर्थिक सहायता की आवश्यकता पर जोर देती है. दिलचस्प बात यह है कि नीति के इस मसौदे में पाकिस्तान की मौजूदा विदेश नीति के दोबारा गंभीर आंकलन की वकालत भी की गयी है, जिसे अमरीका के साथ पकिस्तानी संबंधों के संभावित संदर्भ में देखन चाहिए”.

भारतीय वातावरण में बैठकर अगर इस खबर की पड़ताल की जाय तो ये आभास होता है कि पकिस्तान के अन्दर सामान्य युवा-शक्ति में, पकिस्तान की नीतियों को लेकर जबरदस्त उथल-पुथल है जिसे नियंत्रित करने की छटपटाहट को दर्शाती है ये खबर. क्योंकि सीटीडी द्वारा ये कहना कि 'उपदेश और कट्टरता के बीच एक बहुत पतली रेखा है' या फिर ये कि 'उग्रवाद बढ़ रहा है और हमें डर है कि अब धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक संस्थानों से आतंकवादी उभरेंगे.' महज एक छलावा है. हां, अगर यही बात उप-कुलपतियों या विश्वविद्यालय के दूसरे अधिकारियों की ओर से कही जाती तो बात ही कुछ और थी.