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किम की ट्रेन ने बजाई सीटी: ट्रंप कृपया ध्यान दें, ‘रॉकेटमैन’ का रिमोट ‘मेड इन चाइना’ है...

किम जोंग और डोनाल्ड ट्रंप के बीच संभावित बातचीत से पहले चीन का ये दांव अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में संकेत दे रहा है कि ‘पिक्चर अभी बाकी है दोस्त...’

Kinshuk Praval

उत्तर कोरिया से एक रहस्यमयी ट्रेन जब चीन की सरहद में पहुंची तो दुनिया की निगाहें उस सीक्रेट ट्रेन के मुसाफिर का राज जानने को बेकरार थीं. जब चीन ने इस गुप्त मुसाफिर के कंपार्टमेंट से पर्दा उठाया तो अमेरिका समेत दुनिया के सामने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग का सरप्राइज था. ये मुसाफिर चीन का वो खास मेहमान था जिसे दुनिया 'रॉकेटमैन' के नाम से जानती है और उसे चीन के राष्ट्रपति ने विशेष निमंत्रण देकर बुलाया था.

दुनिया को अपनी मिसाइलों और परमाणु परीक्षणों से डरा देने वाले ‘रॉकेटमैन’ की चीन यात्रा से से कयासों के बाजार गर्म हो गए. उत्तर कोरिया के सर्वोच्च तानाशाह किम जोंग ने सत्ता संभालने के बाद पहली बार अपने देश से कदम बाहर जो रखा था. ये यात्रा उसी ट्रेन से की गई जिससे किम जोंग के पिता और दादा भी चीन जाकर रिश्तों की रेल चला चुके थे. यानी किम जोंग की तरफ से संदेश साफ था. वो भी अपने पूर्वजों की राह पर चीन के साथ पीढ़ियों के रिश्तों को दोहराने उसी ट्रेन से आए जिसका चीन गर्मजोशी से स्वागत करता आया है.


लेकिन किम जोंग की चीन-यात्रा की टाइमिंग पर कई सवाल खड़े होते हैं. आखिर ऐसी क्या वजह रही कि किम जोंग को चीन के राष्ट्रपति ने ‘निजी यात्रा’ के लिए निमंत्रण दिया?

मई में उत्तर कोरिया और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच ऐतिहासिक बातचीत का मंच सजने की संभावना है. एक दूसरे को परमाणु हमले से तबाह कर देने की धमकी देकर थकने के बाद दोनों देश परमाणु टेबल से उठकर बातचीत की टेबल पर बैठने के लिए राजी हो गए. इस नाटकीय बदलाव के पीछे दक्षिण कोरिया की भूमिका के बावजूद अमेरिका अपनी पीठ थपथपा रहा है. लेकिन ऐन संभावित बातचीत से पहले चीन का ये दांव अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में  संकेत दे रहा है कि ‘पिक्चर अभी बाकी है दोस्त.’

दरअसल कोरियाई प्रायद्वीप पर तनाव कम करने के मामले में चीन अपनी भूमिका को नजरअंदाज होते नहीं देख सकता है. उत्तर कोरिया पर अमेरिकी हमलों की धमकियों पर चीन ने ही कई बार ऐतराज जताया. चीन ने कई दफे धमकी भी दी कि वो कोरियाई प्रायद्वीप में किसी भी सैन्य संघर्ष को बर्दाश्त नहीं करेगा. लेकिन जिस तरह से दक्षिण कोरिया की मध्यस्थता के जरिए अचानक ही किम और ट्रंप के बीच बातचीत का माहौल बना तो चीन अपने ही इलाके में खुद को अप्रासंगिक और कूटनीतिक तौर पर हाशिए पर महसूस करने लगा.

अब जबकि चीन खुद का सुपर पावर के रूप में दावा कर रहा है तो ऐसे में उसके ही इलाके में इतने बड़े संवेदनशील मसले पर वो सिर्फ दर्शक बन कर नहीं रह सकता है. चीन ये जरूर चाहेगा कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच बातचीत में एक अहम किरदार वो खुद भी हो. तभी चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कूटनीतिक दांव चलते हुए किम जोंग को न्योता देकर बुला लिया. इससे ये संदेश भी गया कि उत्तर कोरिया के लिए  तमाम प्रतिबंधों के बावजूद चीन के साथ रिश्ते आज भी बेहद अहम हैं.

साथ ही किम जोंग की चीन यात्रा के जरिए परमाणु अप्रसार को लेकर उत्तरी कोरिया के नरम रुख का क्रेडिट भी शी चिनफिंग ने एक तरह से लूटने की कोशिश की है. सवाल उठता है कि क्या शी चिनफिंग की कूटनीति डोनाल्ड ट्रंप की ‘धमकी-नीति’ पर भारी पड़ गई है? क्या शी चिनफिंग ने डोनाल्ड ट्रंप से उत्तर कोरिया का मुद्दा हथिया लिया है? या फिर चीन के इस कदम से अब किम जोंग और डोनाल्ड ट्रंप की बातचीत में नए क्लाइमैक्स आना शुरू हो जाएंगे?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए उत्तर कोरिया का मुद्दा उनके राजनीतिक करियर के लिए किसी मिशन से कम नहीं है. खुद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रेसीडेंट इलेक्ट डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात के वक्त उत्तर कोरिया को सबसे बड़ी चुनौती बताया था.

राष्ट्रपति बनने के बाद से ही डोनाल्ड ट्रंप के निशाने पर उत्तर कोरिया सबसे ऊपर था. दोनों देशों के बीच की जुबानी जंग दुनिया में परमाणु युद्ध का खतरा बढ़ा रही थी. संयुक्त राष्ट्र के तमाम प्रतिबंध भी उत्तर कोरिया के परमाणु और मिसाइल परीक्षणों पर लगाम कसने में नाकाम साबित हो चुके थे. यहां तक कि उत्तर कोरिया पर एटम बम गिराने की ट्रंप की संयुक्त राष्ट्र में दी गई सार्वजनिक धमकी का भी असर नहीं दिख रहा था.

लेकिन विंटर ओलंपिक्स ने कोरियाई देशों के बीच जमी रिश्तों की बर्फ को ऐसा पिघलाया कि उसकी गर्माहट अमेरिका तक महसूस हुई. किम जोंग ने दुनिया को यह कह कर चौंका दिया कि वो अमेरिका से बातचीत के लिए तैयार हैं और तब तक परमाणु परीक्षण नहीं करेंगे.

हालांकि व्हाइट प्रशासन ने इसे ट्रंप के दबाव का नतीजा माना. साथ ही अमेरिका ने जल्दबाजी न दिखाते हुए उत्तर कोरिया के सामने बातचीत से पहले शर्त भी रख दी. अमेरिका ने कहा कि उत्तर कोरिया पहले अपने किए हुए पुराने वादों को पूरा कर के दिखाए.

अमेरिकी शर्तों के बाद से ही दोनों देशों के बीच शिखर वार्ता की तारीख और जगह को लेकर फिलहाल सस्पेंस कायम है. लेकिन उससे पहले किम जोंग की चीन-यात्रा से ये साफ हो गया कि पर्दे के पीछे का असली किरदार चीन है.

उत्तर कोरिया का मसला न सिर्फ डोनाल्ड ट्रंप बल्कि शी चिनफिंग के राजनीतिक करियर के लिए भी ऐतिहासिक मौका है. शी चिनफिंग ये जरूर चाहेंगे कि वो दुनिया को साबित कर सकें कि दुनिया के संवेदनशील और जटिल मसलों के समाधान की हैसियत उनके पास भी है. यानी उत्तर कोरिया के परमाणु अप्रसार मामले में सिर्फ अमेरिकी ढोल पीट कर ही कोरियाई प्रायद्वीप पर शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

किम जोंग के चीन जाकर शी चिनफिंग से मुलाकात करने से एक संदेश ये भी जाता है कि अमरिका से बातचीत और सौदेबाजी में किम के किसी भी बड़े फैसले के पीछे चीन का फैसला आखिरी हो सकता है. किम जोंग की चीन-यात्रा के बाद माना जा सकता है कि अमेरिकी की बातचीत भले ही किम जोंग से हो लेकिन असली रिमोट ‘मेड इन चाइना’ ही है.

दुनिया में सत्ता के संतुलन को लेकर शी चिनफिंग उत्तर कोरिया के बहाने अमेरिका के सामने अपनी ताकत नुमाया करना चाहते हैं ताकि वो सुपर पावर देश के रूप में चीन की पहचान बना सकें. यही वजह है कि चीन ने चाल चलते हुए ट्रंप के हाथ आए सबसे बड़े और ऐतिहासिक कूटनीतिक मौके को हाईजैक करने की कोशिश की है.

चीन ने उत्तर कोरिया को लेकर बेहद ही सतर्कता से 'वेट एंड वॉच' की नीति से काम किया. उसने कभी भी खुलकर उत्तर कोरिया का समर्थन नहीं किया ताकि दुनिया में उसके खिलाफ गलत संदेश नहीं जाए. संयुक्त राष्ट्र के उत्तर कोरिया के खिलाफ कड़े प्रतिबंधों का समर्थन करते हुए तेल और दूसरे ईंधन की आपूर्ति पर रोक लगाई. साथ ही लौह अयस्क, कोयला और शीशे का उत्तर कोरिया से चीन में आयात पर रोक भी लगा दी. अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चीन ने हमेशा ही उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रमों पर चिंता जताई और बातचीत से मसले को सुलझाने की अपील की.

ऐसे में चीन ने खुद को निष्पक्ष दिखाते हुए भी उत्तर कोरिया के मामले में कूटनीतिक बढ़त लेने में कामयाबी हासिल की है. इसकी बड़ी वजह हाल के दिनों में व्हाइट हाउस प्रशासन की चुप्पी भी है जिसने चीन को बीच में जगह बनाने का मौका दे दिया.

दरअसल आंतरिक विवादों से घिरे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप फिलहाल किम जोंग को लेकर जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लेना चाहते हैं. क्योंकि विदेश नीति के मामले में एक गलत फैसले की वजह से उनका राजनीतिक करियर ही दांव पर लग सकता है.

ऐसे में ट्रंप भी दूसरे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों की राह पर चलते नजर आ रहे हैं. हालांकि उन्होंने खुद पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों पर उत्तर कोरिया के मामले को लंबा खींचने का आरोप लगाया था. लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे कि ट्रंप भी उत्तर कोरिया की दहशत को जिंदा रखना चाहते हैं ताकि अमेरिका के भीतर चल रही सियासी उथल-पुथल की आंच ट्रंप पर न आ सके और लोगों का ध्यान बंटा रहे.

अगर वाकई ट्रंप इसी रणनीति पर उत्तर कोरिया के मामले को सुलगता छोड़ रहे हैं तो ये उनकी कूटनीतिक नाकामी ही मानी जाएगी क्योंकि हालिया अमेरिकी चुप्पी के चलते ही चीन की हलचल से दुनिया का ध्यान अब किम जोंग के साथ शी चिनफिंग की मुलाकात पर जा टिका है.

अब शी चिनफिंग एक तरह से सारा श्रेय लेते हुए कह रहे हैं कि कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणु हथियार मुक्त करने के लक्ष्य को लेकर चीन प्रतिबद्ध है ताकि वहां शांति और स्थिरता कायम हो सके और बातचीत से समस्याओं का हल निकल सके.

ऐसे में किम जोंग के बदले हुए सुरों के पीछे शी चिनफिंग का सरगम ही सराहा जाएगा जबकि ट्रंप फिर सिर्फ एक पक्ष बनकर सीमित रह जाएंगे.