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नवाज शरीफ ने फौज से पंगा लेने की कीमत चुकाई

पाकिस्तान का सियासी घटनाक्रम भारत के हितों के लिहाज से भी नुकसानदेह है

Sreemoy Talukdar

कलम के एक झटके से पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने पाकिस्तान को सियासी अस्थिरता की राह पर ढकेल दिया. शुक्रवार की घटना अपने निहितार्थों के लिहाज से आने वाले सालों में पाकिस्तान में संसदीय लोकतंत्र को पारिभाषित करने वाली साबित होगी. कानून के आलिम पांच जजों ने सर्वसम्मति से लिए गए अपने फैसले में एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को उसके पद से हटा दिया- हालांकि उसपर कोई भी दोष साबित नहीं हुआ था. यह कानून के जरिए किए गए तख्तापलट के बराबर है.

खबरों में आया है कि नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ सत्ता की बागडोर संभाल सकते हैं. लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. फिलहाल हालत तो यही दिख रहे हैं कि पाकिस्तान में अवाम की हुकूमत का पूरा बंटाधार हो गया है. इस खतरनाक खेल के पीछे एक तथ्य यह है कि नवाज शरीफ ने सेना की सत्ता को चुनौती देने की कोशिश की जो पाकिस्तान में किसी कुफ्र से कम नहीं. नवाज शरीफ का सत्ता से बेदखल होना सिलसिलेवार चली आ रही घटनाओं की परिणति है.


इस सिलसिले की शुरुआत तब हुई जब एक अहम बैठक में नवाज शरीफ ने सेना से कहा कि आतंकियों को काबू में रखिए या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली फजीहत के लिए तैयार रहिए.

हर एक को वह वाकया और उसके बाद का मंजर याद है जब डॉन अखबार के मार्फत कुछ खबरें ‘लीक्स’ के रुप में सामने आई थीं. बेशक इस बात को अब कोई सार्वजनिक रूप से नहीं कहेगा. पाकिस्तान में फिलहाल सियासी मंजर अदालत के फैसले को सही ठहराने का चल रहा है लेकिन उससे सहमत होना मुश्किल है.

पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क हैं जहां अवाम की चुनी हुई सरकार और फौजी हुक्मरान दोनों ही समान रूप से भ्रष्ट हैं लेकिन कानून की तलवार जान-बूझ कर निर्वाचित जन-प्रतिनिधि पर चलाई गई है जबकि राजद्रोह के आरोपी सेना के एक जनरल पाकिस्तान की सरहद के पार विदेश में बड़े मौज में हैं. ऐसे में पाकिस्तान में कौन सी बात सियासी वजहों से हो रही है और कौन सी बात कानूनी वजहों की देन है यह फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल है.

पनामा पेपर मामले के इर्द-गिर्द मचे हल्ले के बावजूद सच्चाई यही है कि शरीफ और उनके पूरे कुनबे (बेटी मरियम, बेटे हुसैन और हसन तथा दामाद कैप्टन सफदर) के खिलाफ आरोपों का सिद्ध होना अभी बाकी है. सुप्रीम कोर्ट ने पीएम नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल करने के साथ पाकिस्तान के नेशनल अकाउंटबिलिटी ब्यूरो को भी कहा है कि वह मामले में आगे की जांच करे और एक महीने के भीतर फैसला सुनाए.

अगर आरोप लग जाने मात्र को किसी निर्वाचित सरकार को हटाने का पर्याप्त कारण मान लिया जाता है तो संकेत बड़े साफ हैं कि पाकिस्तान में अवाम की सत्ता फौजी हुक्मरान ही नहीं बल्कि न्यायपालिका के आगे भी बहुत मजबूर है.

दरअसल पाकिस्तान में इस बात की सरगोशियां भी खूब हैं कि फौज के जनरल हाई प्रोफाइल मामलों में शुरुआत से आखिर तक दखलंदाजी करते हैं, वे पर्दे के पीछे रहकर अदालत के फैसले पर असर डालने की कोशिश करते हैं. अगर यह बात सच है तो फिर इसका मतलब हुआ कि पाकिस्तान में सेना और न्यायपालिका के बीच एक खतरनाक सांठगांठ हैं और इससे अवाम की हुकूमत के लिए दायरा और भी कम पड़ गया है. पाकिस्तान में कानून का सहारा लेकर तख्तापलट करना कोई नई बात नहीं है.

अस्मां जहांगीर जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि सेना और न्यायपालिका के बीच सांठगांठ की बाच सच हो सकती है. डोएचे वैले से उन्होंने इसी अंदाज में कहा, 'न्यायपालिका अचानक इतनी स्वतंत्र कैसे हो गई? भले ही यह सवाल मौजूं ना हो लेकिन यह सवाल लोगों के जेहन में आएगा जरूर... आप इस पनामा पेपर्स मामले को एकदम से अलहदा मामला मानकर नहीं देख सकते. इस मामले के पीछे विरोध का इतिहास (इमरान खान की पार्टी द्वारा) रहा है और बहुत मुमकिन है कि इस सब के लिए इशारे कहीं और से किए जा रहे हों.' जाहिर है, आस्मां जहांगीर का संकेत है कि मामले में सेना की मिलीभगत हो सकती है.

पाकिस्तान में फौज को ‘सरहद का मुहाफिज और जमीर की आवाज’ का दर्जा हासिल है. फौज के जनरलों के बारे में यह धारणा बनाई जाती है कि वे महाबली हैं और हमेशा सच्चाई की ताकत की तरफदारी में खड़े होते हैं, सो कानून या अदालती प्रक्रियाओं के जरिए उनकी राह को नहीं रोका जा सकता. अदालत के हालिया फैसले से फौजी जनरलों के हाथ और भी ज्यादा मजबूत होंगे.

जहां तक पाकिस्तान की सियासी जमात का सवाल है उसके लिए पाकिस्तान में यह अनिश्चय की घड़ी है. शरीफ की बेटी मरियम की परवरिश यह सोचकर हुई है कि वे आगे चलकर अपने पिता की जगह लेंगी और इस सोच के अनुरूप ही मरियम ने अपने चेहरे के शिकन सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं किए हैं लेकिन बहुत संभव है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) में अंदरूनी कलह मचे. अगर चुनाव झटपट हो जाते हैं तो पंजाब पर पीएमएल-एन की पकड़ ढीली पड़ सकती है.

नवाज शरीफ के जो प्रतिपक्षी अब अपनी मूंछों पर ताव देते नजर आ रहे हैं उनमें सबसे पहला नाम इमरान खान का लिया जा सकता है. इमरान खान ने नवाज शरीफ और उनके खानदान की कमजोर नस पर बरसों से निशाना साध रखा था और सबसे ज्यादा सियासी फायदा उन्हीं को होता दिख रहा है. अदालत के फैसले के बाद वे मीडिया से मुखातिब हुए तो अपनी खुशी उनसे छुपाए न छुपी, बोल पड़े कि 'जेआईटी ने जो 60 दिनों में कर दिखाया है वह पश्चिमी मुल्कों में भी ना हो पाता... इस जांच से साफ हो गया है कि भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की हमारे भीतर भी सलाहियत है. सुप्रीम कोर्ट ने यह बात आज साबित कर दी..अब हर किसी को जवाबदेह होना पड़ेगा. यह एक शुरुआत है.' खबरों के मुताबिक इमरान खान ने ये बातें जिओ टीवी से कही.

लेकिन इमरान खान के इस नीति-उपदेश पर शायद ही किसी को यकीन आए. दुखद सच्चाई यह है कि जब बात सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिहाज से किसी को चुनने की आए तो लोगों के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता, उनके लिए जैसे नवाज शरीफ- जिन्हें शुक्रवार के दिन प्रधानमंत्री के पद से हटा दिया गया. वैसे ही इमरान खान जो अब अपने को नैतिकता का अलंबरदार बता रहे हैं. इस साल की शुरुआत में कैपिटल डेवलपमेंट ऑथॉरिटी और इस्लामाबाद कैपिटल टेरिटॉरी एडमिनिस्ट्रेशन ने जिन 122 मकानों के निर्माण को अवैध घोषित किया उनमें इस्लामाबाद के बनी गला इलाके में कायम इमरान खान का भी मकान शामिल था.

इमरान खान की जायदाद से जुड़ी रकम को लेकर सवाल उठे और क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया तो इमरान खान के वकील ने अदालत को बताया कि पूर्व पत्नी जेमिमा ने उन्हें जायदाद जबानी तौर पर उपहार के रूप में दी थी.

जब माहौल में इस कदर कीचड़ फैला है तो फिर सार्वजनिक जीवन में शुचिता का कोई भी दावा खास असरदार साबित नहीं हो सकता. पाकिस्तान बने 69 साल पूरे हो रहे हैं और इसमें आधे से ज्यादा समय तक पाकिस्तान की सत्ता फौज के हाथों में रही है और शुक्रवार के दिन आए अदालत के फैसले का एक संसदीय लोकतंत्र के रुप में पाकिस्तान के भविष्य पर गहरा असर पड़ने वाला है क्योंकि पाकिस्तान में सर्वशक्तिशाली फौज ने कार्यपालिका और विधायिका की बार-बार हेठी की है.

पाकिस्तान का सियासी घटनाक्रम भारत के हितों के लिहाज से भी नुकसानदेह है. रावलपिंडी के जनरल और इस्लामी कट्टरपंथी नवाज शरीफ को अमन का परिंदा मानते थे. नवाज शरीफ ने कोशिश की थी कि भारत के साथ संबंध सामान्य बने. उन्होंने दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध सुधारने की दिशा में भी पहलकदमी की और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का काम किया. इन बातों से रावलपिंडी की फौजी जमात को शुब्हा हुआ कि नवाज शरीफ फौज की ताकत को अंगूठा दिखा रहे हैं और जल्दी ही फौजी की कमाई के अवसर खत्म होने वाले हैं. डॉन अखबार में लीक्स के जरिए छपी खबर भी इस मामले में मददगार साबित नहीं हुई.

पाकिस्तानी फौज ने अपने शब्दकोश में कुछ लफ्जों को कुफ्र मानकर दर्ज किया गया है और कुफ्र की कोई माफी नहीं होती. नवाज शरीफ ने कुछ वैसा ही कुफ्र किया था. सो, परंपरागत रुप से पाकिस्तान की किस्मत और आगे की राह तय करने का जिम्मा निभाते आये फौजी जनरलों ने फिर से कमान अपने हाथ में कर ली है. नवाज शरीफ के लिए खेल अब तकरीबन खत्म हो चला है.