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मोदी का श्रीलंका दौरा: विदेश नीति में नरमी और संस्कृति के जरिए बदलाव की कोशिश

मोदी भारत की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांतों को चुनौती दे रहे हैं.

Sreemoy Talukdar

जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका की धरती पर अपने कदम रखे, असल में वह दिन बौद्ध पंचांग में सबसे अहम दिन था. इसी दिन श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय वेसाक समारोह मनाया जा रहा था और प्रधानमंत्री मोदी को इस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेना था.

ये एक संयोग ही था कि इसी दिन चीन के राष्ट्रपति चीन की उस महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम’(बीआरआई) को अंतिम रूप देने में लगे हुए थे, जो चीन को यूरोप और मध्यपूर्व के साथ जोड़ने वाली एक अत्यधिक व्यापक बुनियादी ढांचे वाली परियोजना है.


चीन की 'ड्रेगन' चाल 

शी जिनपिंग (रायटर इमेज)

बीजिंग में रविवार को आयोजित होने वाले इस इकलौते समारोह में हिस्सा लेने के लिए दुनिया भर से लगभग 30 नेता पहुंचे. इस परियोजना में चीन पहले ही 50 बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश कर चुका है.

ग्लोबल रेटिंग एजेंसी का अनुमान है कि इस परियोजना पर कुल 900 बिलियन डॉलर का निवेश किया जाएगा. यह परियोजना प्राचीन ‘रेशम मार्ग आर्थिक क्षेत्र’ या 21वीं सदी सामुद्रिक सिल्क मार्ग के जरिए 100 देशों को जोड़ने वाली और पांच महादेशों से गुजरने वाली एक भीमकाय परियोजना है.

एक आकलन के मुताबिक 60 देशों पर किया जाने वाला चीनी निवेश अरबों अरब डॉलर का है. इस परियोजना के बारे में सोचकर ही बड़ा आश्चर्य होता है.

भारत बनाम चीन 

साफ है कि भारत के पास इतना संसाधन नहीं है कि वह इस तरह के व्यापक क्षेत्र में इतनी बड़ी भू-राजनीतिक प्रभाव वाली परियोजना का निर्माण कर सके.

न तो भारत के पास इतने पैसे हैं कि वह महादेशों के आर-पार वाली इस तरह की आर्थिक पहल में निवेश कर सके और न ही भारत के पास इस तरह के कार्यों को अंजाम देने वाली महत्वाकांक्षा है.

इसके अलावा, स्वतंत्रता के बाद के दशकों में अलगाववाद ने भारत के उप-महाद्वीपीय प्रभाव को कम कर दिया है, जो ब्रिटिश राज के दौरान भी था.

इतिहास की इसी समयरेखा में लगभग दो बातें हैं- हमारी आंतरिक तलाश की नीति और चीन की एक कारोबारी महाशक्ति के रूप में उभरने की वजह से भारत के क्षेत्रीय व्यावसायिक संबंधों को होने वाला नुकसान.

बाद में इस स्थिति ने हमारे भू-आर्थिक प्रभावों को भी कम कर दिया है. उन दशकों में जब हम खुद की आर्थिक नीतियों के साथ चल रहे थे, उस समय चीन ऐसी नीतियां ला रहा था, जो नए सहस्त्राब्दि की शुरुआत के बाद तेजी से विकास की योजनाओं को धरातल पर लाती रही हैं.

जैसा कि ब्रुकिंग्स ने अपने एक अध्ययन में बताया है, '2007 तक छ: वर्षों के दौरान चीन का सकल घरेलू उत्पाद चीन के जीडीपी के 41.5 प्रतिशत के बराबर 11% की औसत दर से बढ़ा है. इसी अवधि के दौरान चालू खाता अधिशेष (सरप्लस) सकल घरेलू उत्पाद के 10% से अधिक को पार गया.'

स्पष्ट है कि चीन को आर्थिक सरप्लस का इस्तेमाल करने की जरूरत थी और उसके बाद इस क्षमता को आगे ले जाने के लिए वहां कई आर्थिक पहल की गई.

इसके बदले चीन के भू-राजनीतिक प्रभाव में तेजी से बढ़ोत्तरी होती रही है. जो देश परंपरागत और सांस्कृतिक रूप से भारत के करीब हैं और जो हमारे तत्काल सामरिक क्षेत्र के भीतर आते हैं, उन्हें भी स्वाभाविक रूप से चीनी भू-सामरिक क्षेत्र के भीतर उनके साथ ही चुन लिया गया है.

भारत-श्रीलंका संबंध

उस पैमाने के बारे में एक विचार देने के लिए श्रीलंका का उदाहरण लिया जा सकता है. श्रीलंका सार्क में हमारा सबसे बड़ा साझीदार है. वहां के कोलंबो बंदरगाह में भारत से 70 प्रतिशत से अधिक ट्रांस-शिपमेंट होती है, फाइनेंसियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक श्रीलंका को सिर्फ 2016 में 15 बिलियन की चीनी फंडिंग और निवेश प्राप्त हुए हैं.

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रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से ज्यादातर, 'बड़ी बुनियादी संरचनाओं वाली परियोजनाओं, विशेष रूप से बंदरगाह या हवाई अड्डे’ और कुछ सड़क और रेलवे नेटवर्क के लिए हैं.

बीजिंग के कार्यों को पूरी तरह से भू-राजनीतिक चश्मे से देखना गलत होगा. भूमंडलीकृत दुनिया में आर्थिक एकीकरण अहम है. हालांकि चीन की आर्थिक सक्रियता भारत के आगे बढ़ने की रफ्तार को सीमित कर रही है.

मोदी के श्रीलंका दौरे के मायने 

निश्चित रूप से चीनी सक्रियता हमारे व्यावसायिक हितों को नुकसान पहुंचा रही है. यही वो पहलू हैं, जिसमें हमें मोदी की श्रीलंका यात्रा को देखना चाहिए. अपना पद संभालने के बाद मोदी की यह दूसरी श्रीलंका यात्रा है.

प्रधानमंत्री के सामने आने वाली चुनौतियां बहुत बड़ी हैं. उन्हें पारस्परिक अविश्वास वाले संबंधों से ही इस रिश्ते को आगे ले जाना होगा. हाल के इतिहास की बुराइयों से सद्भावनापूर्ण बचाव के लिए और अधिक आर्थिक और सांस्कृतिक एकीकरण के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना चाहिए.

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संकुचित राजनीतिक अवसरवाद की जकड़ से ऊपर उठते हुए भारत की श्रीलंकाई नीति में एक दुर्भावना से भरे हस्तक्षेप की रणनीति शामिल रही थी जिसने आखिरकार दोनों देशों के बीच खराब संबंधों को जन्म दिया.

इतना तो है कि पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में भारत को देखा और क्षेत्रीय समीकरण के संतुलन के लिए उन्होंने चीन की तरफ अपना स्पष्ट झुकाव दिखाया. मोदी का पहला काम इसी बदले हालात को प्रभावित करना था.

भारत और श्रीलंका के बीच चीन 

हाल की मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि कोलंबो में मोदी की यात्रा से पहले, श्रीलंका ने चीन के उस अनुरोध को सिरे से ठुकरा दिया है, जिसमें चीन अपनी एक पनडुब्बी को हंबनटोटा बंदरगाह में उतारने की इजाजत चाहता था.

श्रीलंका ने ऐसा इसलिए किया ताकि भारत की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचे. समाचार एजेंसी रायटर ने एक वरिष्ठ सरकारी के हवाले से एक रिपोर्ट में बताया गया है कि न सिर्फ चीन के आग्रह को नकार दिया गया, बल्कि भारत की चिंताओं को देखते हुए चीन की मांग पर श्रीलंकाई सहमति 'असंभव है' को तरजीह दी गई.

मोदी के शासनकाल में श्रीलंका-भारत संबंधों ने एक जबरदस्त सकारात्मक मोड़ लिया है. दोनों देश उच्चस्तरीय कूटनीति के साथ जुड़ने के इच्छुक रहे हैं और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय यात्राएं कई गुना बढ़ गई हैं.

राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने तीन-तीन बार दिल्ली के दौरे किए हैं और मोदी की ये दूसरी श्रीलंका यात्रा है.

वक्त अक्टूबर 2014 से आगे जा चुका है, जब श्रीलंका ने भारत के भारी विरोध के बावजूद एक चीनी पनडुब्बी को कोलंबो बंदरगाह में ठहरने की अनुमति दी थी. आखिर यह बदलाव क्या है और कैसे हुआ?

मोदी का ताजा नजरिया 

इसका जवाब मोदी के नए दृष्टिकोण में छुपा हुआ है. पदभार संभालने के बाद से प्रधानमंत्री अपने सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक भागीदारों में से एक यानी श्रीलंका के साथ भारत के संबंधों की मरम्मत के लिए तेज़ गति से आगे बढ़ गए हैं. उन्होंने भारत की उदार शक्ति वाले विचारों के साथ विदेश नीति का एक ताजा नजरिया सामने रखा है.

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मोदी ने दिखा दिया है कि वह भारत की पारंपरिक कूटनीतिक और आर्थिक संसाधनों की कमियों को समझते हैं. इसलिए वो भारत की विदेश नीति को आकार देने के लिए सांस्कृतिक और मानवीय संसाधनों के जरिए भारत की जबरदस्त नरम शक्ति के उपयोग का सहारा लेते हैं.

मोदी की श्रीलंकाई पहल पर, कार्नेगी इंडिया के डायरेक्टर सी राजा मोहन ने इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखे गये अपने कॉलम में कहा है, 'मोदी ने दोनों देशों के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंध को फिर से स्थापित करने की भी मांग की है, जो आखिरी कुछ दशकों से रुका हुआ था. और इससे दिल्ली और कोलंबो के बीच आपसी विश्वास को मजबूती मिल सकती है. यह ठीक है कि मोदी की दूसरी कोलंबो यात्रा का एक महत्वपूर्ण आयाम है- भारत और श्रीलंका के बीच वह पारंपरिक बौद्ध धर्म का पुराना रिश्ता, जो दोनों देशों को आपस में जोड़ता है.'

श्रीलंका के साथ मोदी के सांस्कृतिक संबंधों के आधार के पीछे यही नजरिया है. बौद्ध धर्म के संदेश के जरिए मोदी ने तमिल राजनीति की गंदगी से दोनों देशों के बीच के संबंधों को दूर ले जाने और सांस्कृतिक एकता के दायरे में ले आने की कोशिश की है.

कारण ये भी है कि श्रीलंकाई धरती के बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्मस्थान भारत ही है. यह न सिर्फ दोनों देशों के बीच 2500 वर्ष से चले आ रहे संबंधों में फिर से गर्मी लाएगी, बल्कि भारत खुद को एक ऐसी सौहार्द्रपूर्ण शक्ति के रूप में पेश कर सकता है, जिसे श्रीलंका के कल्याण में दिलचस्पी है, न कि इसकी संप्रभुता के लिए किसी तरह की चुनौती बनने की उसकी कोई ख्वाहिश.

श्रीलंका दौरे की सफलता 

अंतर्राष्ट्रीय वेसाक दिवस के मुख्य अतिथि के रूप में अपने भाषण के दौरान मोदी ने उद्घाटन टिप्पणी में कहा, 'इस शुभ अवसर पर, पूर्णत: आत्मजागृत सम्यकसम्बुद्ध की इस धरती पर मैं अपने साथ 1.25 अरब लोगों की शुभकामनाएं भी लाया हूं.'

उन्होंने घोषणा की, 'इस साल अगस्त में, एयर इंडिया कोलंबो और वाराणसी के बीच सीधी उड़ानें भरना शुरू कर देगा. इससे श्रीलंका के हमारे भाई-बहनों के लिए बुद्ध की धरती की यात्रा आसान हो जाएगी और आप सीधे श्रावस्ती, कुशीनगर, संकासा, कौशंबी और सारनाथ की यात्रा कर पाएंगे'

यह न सिर्फ इस विषय को आगे बढ़ाते हैं, बल्कि दोनों देशों के बीच की भागीदारी में मजबूती लाने के लिए ट्रांस इंटरनेशनल शहरों के बीच के रिश्ते को नई ऊंचाई देते हैं. साथ ही यह भारत की नरम शक्ति वाली छवि को आगे करने के उनके प्रयासों को भी उजागर करता है.

विदेश नीति पर निकलने वाली अमेरिकी पत्रिका ‘फॉरन अफेयर्स’ ने लिखा है कि मोदी ने कैसे, 'क्योटो के साथ एक सिस्टर सिटी समझौते की शुरुआत करने के लिए जापान की यात्रा का इस्तेमाल किया. इसी तरह उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अहमदाबाद यात्रा का उपयोग चीन के गुआंझाऊ पॉवर प्रोडक्शन हाउस के साथ भारत की भागीदारी में किस तरह से किया.'

'जी -20 शिखर सम्मेलन के लिए अपनी ऑस्ट्रेलियाई यात्रा के हिस्से के रूप में मोदी ने हैदराबाद और ब्रिस्बेन के बीच एक सिस्टर सिटी समझौते का प्रस्ताव दिया. साथ ही तर्क दिया कि अगर हम अपने देशों और शहरों को एक साथ लाते हैं, तो इससे दोनों देशों के बीच के संबंधों में समृद्धि आ सकती है.'

मोदी भारत की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांतों को चुनौती दे रहे हैं और इसमें अपनी ऊर्जा और ताकत झोंक रहे हैं. श्रीलंका के साथ भारत के संबंध का आगे बढ़ना इसी का एक तात्कालिक और स्पष्ट उदाहरण है.