view all

इजरायल: अछूत देश से भारत के सामरिक साझीदार बनने तक का सफर

भारत ने 17 सितंबर 1950 को इजरायल को मान्यता दी थी

Aprameya Rao

बात अगस्त 1977 की है: भारत के साथ अपने देश के राजनयिक संबंध बनाने के लिए एक शख्स गोपनीय मिशन पर नई दिल्ली आया. लेकिन वह भारतीय नेतृत्व को समझाने में नाकाम रहा और उसे खाली हाथ लौटना पड़ा. ये व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि जनरल से इजरायल के विदेश मंत्री बने मशहूर मोश डयान थे.

डयान जो काम 1977 में करने में नाकाम रहे, वह आखिरकार जनवरी 1992 में पूरा हुआ, जब भारत और इजरायल के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित हुए. लेकिन दोनों देशों के रिश्तों में महत्वपूर्ण बदलाव आने में लंबा वक्त लगा.


भारत ने 17 सितंबर 1950 को इजरायल को मान्यता दी थी. नई दिल्ली ने 1953 में तेल अवीव को मुंबई में वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति दी थी. लेकिन भारत के फिलीस्तीनियों के पक्ष होने के कारण दोनों देशों के बीच संबंध नहीं के बराबर रहे. यह तथ्य है कि इजरायल को आज भी फिलिस्तीन के साथ ठीक उसी तरह रखा जाता है जैसे भारत को ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान के साथ रखा जाता है.

पेलेस्टाइन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (पीएलओ) को फिलिस्तीनियों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला भारत पहला गैर-अरब देश था. नतीजतन पीएलओ ने 1975 में नई दिल्ली में अपना कार्यालय खोला, जिसे इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के कुछ हफ्ते बाद मार्च 1980 में पूर्ण राजनयिक मान्यता दे दी गई. इंदिरा गांधी की सरकार में पी.वी. नरसिम्हा राव विदेश मंत्री थे, जो अंततः इजरायल के साथ भारत के पूर्ण राजनयिक संबंध की स्थापना में मददगार बने.

पी.वी. नरसिम्हा राव

भारत फिलिस्तीन को मान्यता देने वाला पहला देश

राजीव गांधी के राज में नवंबर 1988 में भारत फिलिस्तीन राज्य को सबसे पहले मान्यता देने वाले देशों में से एक था.

यह इतिहास में दर्ज है कि पीएलओ प्रमुख यासिर अराफात का भारत के सत्ता प्रतिष्ठान, विशेषकर गांधी परिवार, के साथ अच्छे संबंध थे. पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपनी पुस्तक 'वाकिंग विद दि लायंस: टेल्स फ्रॉम ए डिप्लोमेटिक पास्ट' में लिखा है कि मार्च 1983 में निर्गुट शिखर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के दौरान जब क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने उनके नखरों पर सवाल उठाया तो अराफात ने किस तरह इंदिरा गांधी को अपनी 'बड़ी बहन' करार दिया. यह तथ्य अपनी जगह है, पर फिलिस्तीन के साथ भारत के संबंध कुछ सिद्धांतों पर भी आधारित थे.

पहला, विभाजन की त्रासदी झेल चुका भारत धर्म के आधार पर किसी अन्य देश के विभाजन के खिलाफ था. इससे यह बात समझी जा सकती है कि 1947 में इजरायल के गठन के खिलाफ नई दिल्ली ने मतदान क्यों किया था.

दूसरा, उपनिवेशवाद का शिकार रह चुका भारत नेहरू की अगुवाई में हर औपनिवेशिक संघर्ष में सबसे आगे था. नेहरूवादी मूल्यों के मुताबिक फिलीस्तीन का मामला पश्चिम के उत्पीड़न के खिलाफ एक औपनिवेशिक लड़ाई थी. कई साल बाद जब संयुक्त राष्ट्र ने 'यहूदीवाद क्या नस्लवाद है' पर बहस की तो भारत ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया.

तीसरा, भारत शीतयुद्ध की दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ से अलग तीसरी दुनिया के देशों के निर्गुट आंदोलन का संस्थापक सदस्य था. लेकिन निर्गुट कैंप तटस्थ होने की बजाय सोवियत संघ के करीब था. भारत भी पूर्व कम्यूनिस्ट महाशक्ति सोवियत संघ के करीब था, जिसका अरब जगत के साथ घनिष्ठ संबंध (कम से कम 70 के दशक तक) और इजरायल के साथ कोई राजनयिक संबंध नहीं था.

हालांकि इन तीन कारकों ने मोटे तौर पर भारत-फिलिस्तीन संबंधों को निर्धारित किया है, लेकिन हिंदू दक्षिणपंथी आरोप लगाते रहे हैं कि फिलीस्तीन का समर्थन करने और इजरायल के साथ संबंध स्थापित न करने के पीछे कांग्रेस में अपने परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक के खोने का डर था.

बहरहाल, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस्लामवादी फिलिस्तीन के मुद्दे को इस्लाम के खिलाफ यहूदी युद्ध के रूप में देखते हैं. लेकिन यह दृष्टिकोण मूलतः दोषपूर्ण है क्योंकि पीएलओ के दो सबसे बड़े गुट फतह और पीएफएलपी वैचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष हैं और इस्लामवाद की नहीं, बल्कि अरब राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं.

1990 के दशक में स्वतंत्र भारत के इतिहास में कई बड़े बदलाव आए. एलपीजी (लिबरलाइजेशन, ग्लोबलाइजेश और प्राइवेटाइजेशन) के साथ भारत सोवियत संघ के खात्मे का भी साक्षी बना. जब मास्को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई दिल्ली का समर्थन करने की स्थिति में नहीं रहा तो भारत को अपनी विदेश नीति में बदलाव करने पड़े. हालांकि भारत 80 के दशक से ही भारत अमेरिका के प्रति गर्मजोशी दिखा रहा था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत को एकध्रुवीय दुनिया में स्वतंत्र विदेश नीति बनाने का मौका मिला.

भारत के इजरायल के साथ राजनयिक संबंधों में 1991 के घटनाक्रमों से तेजी आई, हालांकि शक्तिशाली सोवियत संघ के पतन ने सिर्फ अप्रत्यक्ष भूमिका ही निभाई. दरअसल, इतिहास में कुछ ऐसे मोड़ आए थे जिन्होंने भारत को यहूदी राज्य की ओर झुकने के लिए प्रेरित किया.

पाकिस्तान ने 1969 में भारत को इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) का सदस्य बनने से रोक दिया था. ऐसा तब हुआ जब अरब देशों ने नई दिल्ली को राबत में हुए समूह के पहले शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया था.

इसके बाद से पाकिस्तान ने ओआईसी में खुद को मजबूत किया और अक्सर कश्मीर के मुद्दे पर उसका समर्थन भी हासिल किया. 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 2793 का ओमान को छोड़कर सभी अरब देशों ने समर्थन किया. इस प्रस्ताव में पूर्वी पाकिस्तान में भारत के हस्तक्षेप को खत्म करने की मांग की गई थी.

कई सालों बाद पूर्व विदेश सचिव जे.एन. दीक्षित ने कहा, 'अरबों ने हमें क्या दिया है? क्या उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर हमारे पक्ष में वोट किया? जब हम पूर्वी पाकिस्तान के संकट का सामना कर रहे थे तो क्या वे हमारे समर्थन में आए?'

कभी यहूदी राष्ट्र के प्रबल विरोधी रहे निर्गुट देश इजिप्ट ने 1979 में इजरायल को मान्यता दे दी और 1991 के मैड्रिड सम्मेलन के बाद अरब देश हकीकतन यहूदी राज्य को मान्यता देने लगे तो बदले हुए हालात में भारत का रुख अप्रासंगिक दिखने लगा.

फिर भी पीएलओ की मौन रजामंदी के बाद ही राव सरकार ने इजरायल के साथ संबंध बनाने का निर्णय लिया. विनय सीतापति ने अपनी पुस्तक 'हाफ लायन: हाउ पी.वी. नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया,' में लिखा है कि बेहद चतुर राव ने किस तरह अराफात को अपनी लाइन मानने के लिए मजबूर किया.

यासिर अराफात का भारत दौरा

जनवरी 1992 में अराफात भारत के दौरे पर आए तो राव ने निजी तौर पर उनसे कहा कि भारत इजरायल पर राजनयिक दबाव तभी डाल सकता है जब तेल अवीव में भारत का दूतावास हो. अराफात ने वास्तविक संदर्भ को समझ लिया और प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत के इस साहसिक फैसले का एक तरह से मौन समर्थन किया.

यासिर अराफात

हालांकि इजरायल से राजनयिक संबंध बनाने का मतलब यह नहीं था कि भारत ने फिलिस्तीन का साथ छोड़ दिया. राजनीति में प्रतीकवाद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. नरसिम्हा राव ने यही किया. विदेशी मंत्रालय ने एक तस्वीर जारी की जिसमें प्रधानमंत्री राव ने अराफात को गले लगाया था. यह एक संकेत था कि भारत फिलिस्तीन के साथ अपनी मैत्री को अहमियत देता है.

बहरहाल, शुरुआती दिन उत्साहजनक नहीं थे. मुसलमानों की नाराजगी के डर से कांग्रेस ने खुले तौर पर इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ाया. उदाहरण के लिए, अर्जुन सिंह भारत के पहले कैबिनेट मंत्री के रूप में इजरायल की यात्रा पर गए तो उन पर तीखे हमले हुए. जब इजरायल ने भारत के साथ नागरिक उड्डयन समझौते का प्रस्ताव रखा तो उसे 'मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के दूर होने' के डर से खारिज कर दिया गया.

अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी सरकार के तेल अवीव के प्रति गर्मजोशी दिखाने तक इजरायल के साथ संबंध नाममात्र के ही रहे. तत्कालीन गृहमंत्री, लालकृष्ण आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने 2000 में इजरायल की यात्रा की.

एरियल शेरोन

एरियल शेरोन का भारत दौरा

9 सितंबर 2003 को इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री एरियल शेरोन का भारत दौरा द्विपक्षीय संबंधों में मील का पत्थर साबित हुआ. इस यात्रा ने कई रक्षा सौदों के लिए रास्ता साफ किया, जिनमें फाल्कन अर्ली वार्निंग रडार सिस्टम उल्लेखनीय है. लेकिन चुनाव में वाजपेयी सरकार के हारने और यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस की सरकार बनने के बाद दोनों देशों के संबंधों में कम-से-कम पब्लिक की नजर में वैसी गर्मजोशी नहीं रही. एक बार फिर फिलीस्तीन इसका कारण बना.

लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि 1990 के दशक में शुरू होने के बाद से संबंधों में गिरावट आई. वास्तव में यूपीए शासन के दौरान ही इजरायल भारत के शीर्ष रक्षा साझेदार के रूप में उभरने लगा था.

रूस और पिछले कुछ सालों से अमेरिका भी भारत के प्रमुख रक्षा सहयोगी हैं, लेकिन इजरायल उन्हें कड़ी चुनौती दे रहा है. स्वीडन स्थित थिंक टैंक एसआईपीआरआई की फरवरी 2017 की रिपोर्ट ने तेल अवीव की बढ़ती सैन्य शक्ति को रेखांकित किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2012 और 2016 के बीच भारत ने 68 प्रतिशत हथियार रूस से खरीदे जबकि अमेरिका 14 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर रहा.

हालांकि इस दौरान भारत के कुल हथियार खरीद में 7.2 प्रतिशत के योगदान के साथ इजरायल तीसरे स्थान पर रहा, लेकिन यह उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि वह टैंक और विमान जैसे भारी हथियारों का उत्पादन नहीं करता है. इजरायल की ताकत ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित करना है जो बड़े हथियारों की मदद करते हैं.

बाराक 8 मिसाइल प्रणाली दोनों देशों के बीच सबसे बड़ी सैन्य साझेदारी है. यह इजरायल के एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज (आईएआई) और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) का एक साझा प्रोजेक्ट है. बराक 8 एक विमानरोधी मिसाइल प्रणाली है, जिसे भारतीय नौसेना के सभी युद्धपोतों में लगाने की योजना है.

बाराक 8 मिसाइल प्रणाली में मीडियम रेंज सर्फेस टु एयर मिसाइल के साथ ही लंबी दूरी की सर्फेस टु एयर मिसाइल शामिल हैं. अप्रैल 2017 में आईएआई ने भारतीय सेना और नौसेना के लिए बराक मिसाइल आपूर्ति के लिए 2 अरब डॉलर की डील की.

एक महीने के भीतर आईएआई ने भारत के सशस्त्र बलों को लंबी दूरी की सर्फेस टु एयर मिसाइलों की आपूर्ति के लिए 630 मिलियन डॉलर का एक और डील हासिल की. हो सकता है कि मिसाइल सौदों ने इजरायल को नंबर एक की स्थिति में पहुंचा दिया हो. बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट मुताबिक यहूदी राज्य 2016-17 में भारत के हथियार आपूर्तिकर्ता के रूप में अमेरिका से आगे निकल सकता है.

गौरतलब है कि भारत और इजरायल ने 70 के दशक के शुरू में ही गोपनीय सैन्य संबंध बना लिया था. कम-से-कम दो मौकों पर दोनों देशों ने एक-दूसरे से सहयोग मांगा था.

पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी ने रॉ को लिकटेंस्टीन के जरिए इजरायल से हथियार खरीदने के लिए अधिकृत किया था. बदले में इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डा मेअर ने नई दिल्ली से तेल अवीव को मान्यता देने की मांग की. लेकिन यह अनुरोध खारिज कर दिया गया.

1984 में इजरायल ने पाकिस्तान के काहुटा परमाणु संयंत्र को नष्ट करने के लिए भारत से मौन समर्थन मांगा था ताकि इस्लामाबाद को 'इस्लामी परमाणु हथियार' बनाने से रोका जा सके. सामरिक विशेषज्ञ भरत कर्नाड के मुताबिक, भारत को अमेरिका की कड़ी कार्रवाई की चेतावनी के बाद यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी.

हालांकि सुरक्षा मामले नई दिल्ली और तेल अवीव के बीच संबंधों को रेखांकित करते हैं, लेकिन दोनों देशों के संबंध सिर्फ हथियार और गोला-बारूद तक सीमित नहीं हैं.

दोनों देशों के बीच 2016 में कुल 4.15 अरब डॉलर का गैर-रक्षा व्यापार हुआ, जिसमें 50 प्रतिशत से ज्यादा हीरे का व्यापार शामिल रहा. यह अचरज की बात नहीं है क्योंकि दोनों देश हीरा व्यापार के प्रमुख केंद्र हैं. 1992 के बाद से दोनों देशों के बीच माल व्यापार में 2,000 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

ये भी पढ़ें: भारत को इजरायल से सीखनी चाहिए रेगिस्तान में मछलियां तैराना

कृषि संकट से बचने में इजरायल मददगार हो सकता है

अपने देश में सूखे मौसम के मद्देनजर इजरायल ने 60 के दशक में अनोखा जल प्रबंधन तकनीक विकसित किया. नतीजतन, आधुनिक कृषि के क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई एक शानदार तकनीक के रूप में सामने आई. जैसा कि फर्स्ट पोस्ट में पहले छपे एक लेख में स्पष्ट किया गया है, कृषि संकट के दौर से गुजर रहे भारत में इजरायल की विशेषज्ञता हालात बदलने में मददगार हो सकती है.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 2015 में तेल अवीव की अपनी यात्रा के दौरान इजरायल की ड्रिप सिंचाई तकनीक की सराहना की थी. उसी साल दोनों देशों ने जल संसाधन के प्रबंधन में सहयोग के लिए एक समझौते पर दस्तखत किया.

स्टार्ट अप के मामले में इजरायल दुनिया का अग्रणी देश

आर एंड डी दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग को अगले स्तर पर ले जाने का मौका देता है. एक और क्षेत्र है जिसमें भारत इसराइल से महत्वपूर्ण सबक ले सकता है -स्टार्ट अप के मामले में आबादी के अनुपात में इजरायल दुनिया का अग्रणी देश है.

दूसरी ओर, भारत एक महत्वाकांक्षी 'स्टार्ट-अप सुपरपावर' है. शायद इसीलिए नीति आयोग ने हाल ही में स्टार्ट अप के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसके विजेता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इजरायल यात्रा के दौरान अपने काम को प्रदर्शित करने का मौका मिलेगा.

इजरायली दूत डेविड कारमॉन ने 2016 में फर्स्ट पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, 'हमें विश्वास है कि नई खोज के लिए जरूरी तंत्र बनाने में इजरायल के अनुभव को साझा किया जाना चाहिए. हमें इजरायल और भारत के लोगों के बीच विचारों के आदान-प्रदान, मेल-मिलाप और संवाद के लिए और प्लेटफॉर्म बनाने चाहिए.'

नरेंद्र मोदी की तेल अवीव की यात्रा से भारत-इजरायल संबंधों में नए युग की शुरुआत होगी. मोदी इजरायल की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो कम से कम चार दशकों तक भारत के लिए 'अछूत' रहा है. यह यात्रा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी साल दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों के 25 साल पूरे हुए हैं.

यह यात्रा इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि मोदी इजरायल की तीन दिवसीय यात्रा के दौरान फिलिस्तीन को छोड़ सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो यह फिलिस्तीन को लेकर भारत की नीति में बड़े बदलाव का संकेत होगा.

बीजेपी ने हमेशा इजरायल के साथ संबंधों की वकालत की  

यह कोई रहस्य नहीं है कि बीजेपी हमेशा से इजरायल के साथ घनिष्ठ संबंधों की वकालत करती रही है. लेकिन भारत ने अब भी फिलिस्तीन के साथ अच्छे संबंध को कायम रखा है. मई में फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास की भारत यात्रा के दौरान मोदी ने फिलिस्तीन को भारत के समर्थन का वादा किया.

2003 में शेरोन के दौरे के बाद वाजपेयी ने फिलिस्तीन को अपना समर्थन जताया था. दोनों बार दोनों प्रधानमंत्रियों ने पुराने संबंधों को बनाए रखने और नए संबंध को मजबूत बनाने के लिए सावधानी से कदम बढ़ाया.

इस ऐतिहासिक यात्रा से पहले इजरायली मीडिया ने मोदी को 'दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री' बताया. यह भारत-इजरायल संबंधों के महत्व को दर्शाता है. लेकिन क्या मोदी फिलिस्तीन को इजरायल से अलग रखने और यहूदी देश के साथ भारत के संबंधों को सबके सामने लाने में सफल होंगे, यह आने वाले वक्त में पता चलेगा.