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पाक डायरी: कश्मीर पर किस बयान से पाक मीडिया को मिर्ची लगी?

अखबार लिखता है, अचकजई के कश्मीर को 'आजाद' करने की पेशकश कश्मीरियों के संघर्ष के लिए नुकसानदेह हो सकती है

Seema Tanwar

पाकिस्तान में कश्मीर मुद्दे पर एक सांसद के बयान से वहां के मीडिया को खूब मिर्ची लगी हुई हैं. ये सासंद हैं महमूद खान अचकजई, जो पख्तूनख्वाह मिल्ली पार्टी के प्रमुख हैं और नवाज शरीफ की सत्ताधारी पीएमएल (एन) के गठबंधन सहयोगी हैं. उन्होंने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा कि कश्मीर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान को नई राह अपनानी होगी, क्योंकि यही दोनों के बीच झगड़े की जड़ है.

उनकी राय में, कश्मीर समस्या को हल करने के लिए पाकिस्तान को पहल करते हुए कश्मीर को आजाद करने का प्रस्ताव रखना चाहिए. जब उनसे पूछा गया कि क्या भारत अपने नियंत्रण वाले हिस्से को छोड़ने को राजी होगा तो उनका जवाब था, 'ना हो, लेकिन हम तो बच जाएंगे.' बस यही बात दिन रात 'कश्मीर, कश्मीर' रटने वाले कई पाकिस्तानी अखबारों के गले नहीं उतर रही है. कहीं अचकजई के प्रस्ताव को बेतुका बताया जा रहा है तो कहीं उन्हें भारत के इशारे पर काम करने वाला बताया जा रहा है.


जोरदार हमला

इस मुद्दे पर सबसे तीखी टिप्पणी नवा ए वक्त में दिखती है. अखबार लिखता है कि बदकिस्मती की बात है कि आज भी पाकिस्तान के साथ ऐसी जोंके चिपटी हैं जो यहां खाते हैं, यहीं से अपने और अपने परिवारों के लिए सब सुविधाएं लेते हैं, लेकिन फिर भी पाकिस्तान के लिए बुरा ही सोचते हैं और गाहे बगाहे उसकी संप्रभुता को लेकर जहर उलगते हैं.

अखबार के मुताबिक ऐसे तत्वों की सोच के तार पाकिस्तान की संप्रभुता को नुकसान पहुंचाने की भारत की साजिशों से ही मिलते हैं.

अखबार 'सरहदी गांधी' कहे जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान तक का इतिहास खोदते हुए लिखता है कि महमूद खान अचकजई भी उसी कबीले से हैं, जिसने पाकिस्तान की हकीकत और उसके आजाद वजूद को कभी स्वीकार नहीं किया और उन्हें जब भी मौका मिलता है वह इसके खिलाफ अपनी घटिया सोच का इजहार करने से पीछे नहीं हटते.

अखबार के मुताबिक दोनों तरफ के कश्मीरी पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं और अचकजई के बयान से उनकी जद्दोजहद को ठेस लगती है.

नुकसानहेद' बयान

रोजनामा “पाकिस्तान” कहता है कि अचकजई को नए-नए प्रस्ताव रखने का बहुत शौक है. अखबार के मुताबिक कभी वह अफगानिस्तान के बारे में ऐसी बातें कर देते हैं जिनका पाकिस्तान की राष्ट्रीय नीति से कोई संबंध नहीं होता और अब उन्होंने उन्होंने कश्मीर को 'आजाद' करने की जो पेशकश की है, वह कश्मीरियों के संघर्ष के लिए नुकसानदेह हो सकती है.

अखबार कहता है कि कश्मीर में एक छोटा का तबका है जो चाहता है कि कश्मीर न तो पाकिस्तान का हिस्सा हो और न ही भारत का, बल्कि एक आजाद देश के तौर पर दुनिया के नक्शे पर उभरे, लेकिन जनता ने कभी इस विचार का समर्थन नहीं किया है. अखबार के मुताबिक कश्मीरी जनता सिर्फ यह चाहती है कि उन्हें अपने भविष्य का फैसला करने का मौका दिया जाए. अखबार कहता है कि अचकजई के प्रस्ताव से भारत को प्रोपेगैंडा करने का एक और मौका मिलेगा इसलिए सरकार को इसे तुरंत खारिज कर देना चाहिए.

रोजनामा असास ने इस मुद्दे पर अपने संपादकीय में कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का हवाला दिया है. अखबार लिखता है कि नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ रहने वाले कश्मीरियों को अपने भविष्य का फैसला करना है और इस सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में समाधान का रास्ता मौजूद है.

यह अखबार भी भारत पर कश्मीर घाटी में सैन्य ताकत के बल पर कब्जा जमाने का आरोप लगाता है, लेकिन उसकी यह भी राय है कि इस मामले को हल करने के लिए बेहतर रास्ते अपनाए जा सकते हैं और जरूरी नहीं कि उन रास्तों पर ही दोनों पक्ष अड़े रहें जिनसे अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है.

आतंक के साये

दूसरी तरफ, कुछ अखबारों ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के इस बयान को तवज्जो दी है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के नौजवानों को आतंकी संगठन आईएस से दूर रहने को कहा है. दुनिया लिखता है कि चरमपंथी ताकतें सोशल मीडिया के जरिए पढ़े लिखे युवाओं को प्रभावित करने की कोशिशें कर रही हैं. अखबार की राय में पाकिस्तानी युवाओं को हमेशा अपने दिमाग में यह बात रखनी चाहिए कि देश की सेना किन तत्वों से लोहा ले रही हैं और खास तौर से इस्लामिक स्टेट यानी दाएश ने सीरिया और इराक में बर्बरता की जो कहानियां रची हैं, क्या इस्लाम उनकी इजाजत देता है?

'जंग' लिखता है कि इस बात को स्पष्ट किया जाना चाहिए कि इंसाफ के लिए या फिर जुल्म से मुकाबला करने के लिए आतंकवाद और बेगुनाह लोगों की जान लेना कुरान के हिसाब से नाजायज है. अखबार के मुताबिक जरूरी है यह भी है दुनिया के अलग अलग हिस्सों में मुसलमानों के साथ होने वाली नाइंसाफियों को सामने लाकर उन्हें दूर किया जाना चाहिए क्योंकि यही बातें युवाओं में चरमपंथियों की लोकप्रियता का कारण बनती हैं.

अखबार के मुताबिक चरमपंथ और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले कारणों का निपटारा किए बिना इस समस्या से निपटना संभव नहीं है.

इस बीच, कई पाकिस्तानी अखबारों ने 'पाकिस्तान की मदर टेरेसा' कही जाने वाली जर्मन नन डॉ. रुथ फाओ के राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार पर भी संपादकीय लिखे. पाकिस्तान में कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाली डॉ फाओ का पिछले दिनों कराची में निधन हो गया था.