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लंदन टेरर अटैक: पहले राजनीतिक सोच बदलनी होगी !

‘सबका सबसे साथ’ की नीति से आतंकवाद रुकने की संभावना कम

Sreemoy Talukdar

कहा जा रहा है कि ब्रिटेन की संसद पर हमला बर्मिंघम निवासी ब्रिटिश नागरिक खालिद मसूद ने अंजाम दिया और इस्लाम कबूल करने से पहले उसका नाम एड्रियन एल्मस् हुआ करता था.

52 साल का यह शख्स हिस्ट्रीशीटर रहा है और चाहे उसने पहले आतंकी गतिविधियों में शिरकत ना की हो लेकिन उसे आतंकवादियों के साथ-संगत में देखा गया है. उस पर कुछ वक्त तक ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एम15 की भी नजर रही.


समाचार एजेंसी रॉयटर ने लंदन पुलिस के हवाले से लिखा है कि मसूद को जुर्म के कई मामलों में पहले सजा हुई है.

इसमें मारपीट, लोगों को गंभीर शारीरिक नुकसान पहुंचाने, खतरनाक हथियार रखने और शांति-व्यवस्था भंग करने जैसे मामले शामिल हैं. लेकिन ऐसी कोई खुफिया जानकारी नहीं थी कि मसूद " आतंकी हमला करने के मंसूबे बना रहा है."

इस्लामिक स्टेट से मसूद का रिश्ता

मसूद जैसे छोटे-मोटे अपराधी जिनका धार्मिक कट्टरता से कोई जाहिर रिश्ता ना हो इस्लामिक स्टेट की योजना के एकदम माफिक बैठते हैं.

ब्रिटिश संसद पर हमले की जिम्मेदारी लेने वाला इस्लामिक स्टेट ऐसे ही लोगों को अपने जाल में फंसाता है.

न्यूयार्क टाइम्स की रुक्मिणी कैलमेकी इस्लामिक स्टेट/ अलकायदा की गतिविधियों पर रिपोर्टिंग करती हैं और वैश्विक आतंकवाद के विषय पर उन्होंने बहुत रिसर्च किया है.

रुक्मिणी कैलमेकी ने हाल के अपने एक लेख में बताया है कि इस्लामिक स्टेट की एक खुफिया शाखा ने स्थानीय स्तर के क्रिमिनल-नेटवर्क के इस्तेमाल से आतंकवाद का वैश्विक साम्राज्य कायम खड़ा किया है.

इस्लामिक स्टेट के लिए एक समय तक काम कर चुके और उसे चकमा देकर भाग निकलने में कामयाब रहे जर्मनी के एक शख्स हैरी सैफरो ने कैलमेकी को बताया जिन लोगों ने हाल-फिलहाल इस्लाम कबूल किया है और कट्टर धार्मिक समूहों से नहीं जुड़े, उनसे इस्लामिक स्टेट स्लीपर सेल ऑनलाइन जरिए से रिश्ते गांठ रहा है.

इस्लामिक स्टेट और तथाकथित ‘लोन वुल्फ’ हमलावर के बीच आपसी रिश्ता तकरीबन लेन-देन का है. ‘लोन वुल्फ’ कभी विदेश नहीं गया होता, वह या तो खुद ही इस्लामी कट्टरता की तरफ झुका होता है या फिर उसे किसी ‘संपर्क’ के सहारे इस्लामी कट्टरता का पाठ पढ़ाया जाता है.

इस्लामिक स्टेट छुटभैये अपराधियों के वारदात अंजाम देने के फन का इस्तेमाल जेहाद के अपने मकसद को आगे बढ़ाने में करता है, दूसरी तरफ इस्लामिक स्टेट की आतंकी गतिविधियों को अंजाम देकर छुटभैये अपराधी को लगता है कि ‘मैं तो पूरी दुनिया में मशहूर हो गया’ या फिर ‘मेरे लिए तो जन्नत के दरवाजे खुल गये’.

कैसे पूरा होगा जन्नतनशीं होने का वादा 

छुटभैये अपराधियों और जिहाद के पैरोकारों के बीच के रिश्तों पर राजन बेसरा, पीटर आर न्यूमेन और क्लाउडिया बर्नर ने अपने एक शोध-अध्ययन में रोशनी डाली है.

इस अध्ययन में सप्रमाण बताया गया है कि इस्लामिक स्टेट और छुटभैये अपराधी एक-दूसरे से जन्नतनशीं होने के वादे से बंधे होते हैं. कैलमेकी ने अपने ट्वीट में इस शोध-अध्ययन का जिक्र किया है.

इस शोध-अध्ययन के मुताबिक जिहाद के पैरोकार छुटभैये अपराधियों को बताते हैं कि 'तू हमारे कामों को अंजाम देगा तो तुझे जन्नत नसीब होगी, इस समझावन में यह भी शामिल होता है कि अपराध करने में शामिल हुए तो निजी जरुरत और बाकी इच्छाएं तो पूरी होंगी ही.'

'ऐसे में छुटभैये अपराधी के लिए जुर्म की दुनिया से एकबारगी आतंकवाद के कारनामों की तरफ छलांग मार देना कहीं ज्यादा आसान साबित होता है.'

फिलहाल यह तो साफ नहीं है कि मसूद इस्लामिक स्टेट के किसी बंदे के संपर्क में था या नही. यह भी साफ नहीं हो पाया है कि इस्लामिक स्टेट को लेकर मसूद के मन में कोई निष्ठाभाव है या नहीं.

लेकिन जो लक्षण दिखायी देते हैं उससे यही जाहिर होता है कि मसूद अपनी कोशिशों से इस्लामी कट्टरपंथ की तरफ झुका और वैसा हमलावर बन बैठा जिसे मीडिया में ‘लोन वुल्फ’( अकेले घात लगाकर हमला करने वाला) कहा जा रहा है.

'लोन वुल्फ'- दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है!

इस्लामी आतंकवाद के संदर्भ में ‘लोन वुल्फ’ शब्द का इस्तेमाल करने का मतलब है असल मुद्दे से किसी को गुमराह करना.

इस बारे में पहले से ही ढेर सारी किताब और लेख मौजूद हैं.‘गार्डियन’ में छपे अपने लेख में जेसन बर्क ने लिखा है कि इस्लामिक आतंकवाद की कार्य-प्रणाली को लोन वुल्फ शब्द के जरिए नहीं समझा जा सकता.

रिसर्च एनालिस्ट ब्रिजेट मारेंग ने फॉरेन अफेयर्स जर्नल में पूरा व्याकरण समझाया है कि इस्लामिक स्टेट किस तरह लोन वुल्फ को प्रेरित करने, भर्ती लेने और प्रशिक्षण देने का काम करता है.

हैदराबाद में आतंकी गतिविधि अंजाम देने की एक नाकाम कोशिश के हवाले से कैलमेकी ने अपने एक लेख में समझाया है कि आइएस किस तरह बहुत दूर रहते हुए भी दुनिया के अलग-अलग जगहों पर आतंकी कारस्तानियों का दिशा-निर्देशन करता है.

लंदन टेरर अटैक क्या लोन वुल्फ का कारनामा है?

मीडिया ने अभी से लंदन में हुए आतंकी हमले को लोन-वुल्फ का कारनामा कहना शुरु कर दिया है.

हालांकि लंदन पुलिस ने इस घटना को इस्लामी आतंकवाद से जोड़ा है और बर्मिंघम तथा ब्रिटेन में अन्य कई जगहों पर छापामारी कर कई लोगों को गिरफ्तार किया है.

लोन-वुल्फ शब्द का इस्तेमाल करना एक लफ्फाजी है और इस लफ्फाजी से बस अपने को भरम में रखा जा सकता है.

ऐसे शब्द के इस्तेमाल से यह बात छुप जाती है कि किसी आतंकवादी गतिविधि का संबंध एक व्यापक विचारधारा से होता है.

सारा जोर आतंकी गतिविधि अंजाम देने वाले व्यक्ति पर आ जाता है मानो उसने खुद के बूते आतंकी कारनामा किया हो और इसमें उसके समाज के नैतिक रुप से असफल रहने का सवाल शामिल ही ना हो.

जेसन बर्क ने गार्डियन में लिखा है कि लोन वुल्फ शब्द के इस्तेमाल का मतलब है, 'किसी व्यक्ति के हिंसक अतिवाद की जिम्मेदारी सिर्फ उसकी है या फिर कुछ और लोगों और समूहों की और इन सबका खात्मा किया जा सकता है. लेकिन सच यह है कि आतंकवाद ऐसी बात नहीं कि आप उसे अकेले करें.'

'यह एक्टिविज्म की तरह है और हर एक्टिविज्म की तरह यह भी सामाजिक ही होता है, हां इसके नतीजे बड़े अलग किस्म के होते हैं..लोग किसी विचार, विचारधारा या गतिविधि में, यहां तक कि नैतिक बरताव में भी दूसरों की देखा-देखी ही भागीदार होते हैं.'

दिलचस्प हैं लक्षण

रॉयटर अमेरिकी सरकार के एक सूत्र के हवाले से यह संदेह जता चुका है कि मसूद के कुछ संगी-साथियों बाहर जाने की सोच रहे थे.

शायद उनकी इच्छा विदेश के जिहादी जमातों के मिलकर काम करने की थी लेकिन मसूद ने खुद 'ऐसा कभी नहीं किया.' लेकिन जो लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं, वे बड़े दिलचस्प हैं.

ब्रिटेन के केंट में पैदा हुए मसूद ने धर्म परिवर्तन किया और स्काई न्यूज के मुताबिक वह 'बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति और मीठी जबान बोलने वाला आदमी है. आप शुक्रवार को उसके घर नहीं जा सकते क्योंकि वह इस दिन नमाज अदा करता है.'

एक बार फिर से बर्मिंघम

Members of the emergency services take an injured person away on a stretcher after an incident on Westminster Bridge in London, Britain March 22, 2017. REUTERS/Eddie Keogh - RTX327RB

ये बातें हमारा ध्यान वेस्ट मिडलैंड के नगर बर्मिंघम और इस्लामी आतंकवाद से इसके नजदीकी रिश्ते की तरफ खींचती हैं.

एनबीसी न्यूज के मुताबिक पुलिस ने लगभग बीस साल की उम्र की दो युवतियों और 25 से 30 साल के चार युवकों को बर्मिंघम के अलग-अलग जगहों से पकड़ा है. रिपोर्ट के मुताबिक 58 साल का एक और व्यक्ति बर्मिंघम के एक और पते से पकड़ा गया.

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि मसूद के छुटभैये किस्म के अपराधी से जिहादी बनने के सफर में कहीं ना कहीं बर्मिंघम का भी असर है.

इस शहर का इस्लामी आतंकवाद से बड़ा परेशानी भरा रिश्ता रहा है. रॉयटर ने एक ब्रिटिश थिंकटैंक हेनरी जैकसन सोसायटी के एक अध्ययन के हवाले से लिखा है 1998 से 2015 के बीच ब्रिटेन में आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े होने के मामले में जिन 269 लोगों को सजा दी गई उनमें 39 लोग बर्मिंघम के थे.

ब्रिटेन के अखबार द इंडिपेंडेंट ने इस आंकड़े को और भी तफ्सील से बताते हुए लिखा है कि ब्रिटेन और ब्रिटेन से बाहर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण सजा पा चुके हर 10 ब्रिटिश नागरिक में एक का संबंध बर्मिंघम शहर के पांच वार्डों-स्प्रिंग्फील्ड, स्पार्कब्रुक, हॉजहिल, वाशवुड हीथ तथा बोर्डेसले ग्रीन से है.

बर्मिंघम की बीस फीसदी आबादी मुसलमान (234000) है और मसूद ने बर्मिंघम की ही एक रेंटल फर्म से किराये पर कार ली थी.

द इन्डिपेन्डेन्ट अखबार में किम सेनगुप्ता ने ‘ह्वाई हैज बर्मिंघम बिकम सच ए ब्रीडिंग ग्राउन्ड फॉर ब्रिटिश-बोर्न टेरर’ में लिखा है कि ज्यादातर आतंकवादियों (7/7 लंदन बाम्बिंग और 9/11 हमले वाले) का' पारिवारिक रिश्ता कश्मीर से जुड़ता है.'

बहुत से नौजवान पाकिस्तान गये और कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के साथ लड़ने के लिए वहां प्रशिक्षण हासिल किया.

इनमें से कुछ अलकायदा और इस्लामिक स्टेट में शामिल हो गये. जिहाद की बातें इनके दिमाग में मस्जिदों में डाली गईं जिनपर कट्टरपंथी मौलानाओं ने अड्डा जमा लिया है.

'कहा जा रहा है कि बहुत से स्कूलों पर भी इनका असर है. बर्मिंघम जिहादी तत्वों की शरणगाह बनकर उभरा है और माना जाता है कि इस्लामी कट्टरता को बढ़ावा देने वाले लोग सरकारी शिक्षा के केंद्रों में घुसपैठ करने और उनपर नियंत्रण करने की कोशिश में हैं.'

सबका सबसे साथ की नीति से आतंकवाद नहीं रुकेगा

उपर की बात से साफ पता चलता है कि संस्कृतियों के आपसी मेलजोल में बहुत परेशानी है और उदारवाद का यह विश्वास बड़ा लचर है कि इस्लामी आतंकवाद का जवाब मल्टीकल्चरलिज्म  (संस्कृतियों की बहुलता) की नीति अपनाकर दिया जा सकता है.

लंदन के आतंकरोधी दस्ते के शीर्ष के एक अधिकारी मार्क रॉले ने हाल ही में कहा था कि ली रिग्बी की मौत के बाद यानी 2013 से अबतक अगर ब्रिटेन में आतंकवाद की 13 साजिशों का भंडाफोड़ हुआ है तो फिर यह बात मानी जानी चाहिए कि इंग्लैंड के विभिन्न संस्कृतियों को साथ ले चलने की समझ के खिलाफ यहां के समाज में गहरा प्रतिरोध मौजूद है.

भले ही ब्रिटेन अपने को राजनीतिक रुप से सही रास्ते पर चलता हुआ दिखाना चाहता हो और सबको मिला-जुलाकर रखने की अपनी नीति का सख्ती से पालन करता हो.

लंदन के मेयर सादिक खान और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसिस ओलांदे से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक राजनेताओं की एक बड़ी तादाद इस्लामी आतंकवादी हमले की सूरत में अपनी तरफ से यही कहती नजर आती है कि उन बातों का पता किया जाना चाहिए जिसकी वजह से इस्लाम के मानने वालों में शिकायत और गुस्सा बढ़ा है.

आतंकवादी घटनाओं को संदर्भ देने के लिए बहुत सारी वजहें गिनायी जाती हैं. कभी कहा जाता है कि आतंकवाद की जड़ें गरीबी हैं तो कभी कहा जाता है कि शेष समाज से अलग-थलग पड़ने और अपने को सताया हुआ मानने की भावना के कारण कोई व्यक्ति आतंकवादी बन जाता है.

ऐसा कहकर पूरी दुनिया को समझाया जाता है कि किसी भी आतंकी हमले में दोषी हमलावर होता है, गलती सिर्फ आतंकी हमला अंजाम देने वाले व्यक्ति की होती है जिसे सताया गया है.

जहरीली विचारधारा का असर

यह नहीं कहा जाता कि आतंकी हमले के पीछे आतंक की जहरीली विचारधारा का भी हाथ होता है.

अगर इस बात की थोड़ी सी पड़ताल करें तो सच्चाई सामने आ जाएगी.

इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख में प्रवीण स्वामी ने ब्रिटेन में हो रहे आतंकवादी हमलों के कारणों पर विचार करते हुए लिखा है कि 'यह विचार सही नहीं है कि अंग्रेज आतंकवादी यहां बसे बांग्लादेशी और पाकिस्तानी समुदायों के आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन की देन हैं. यह बात सारे मामलों पर लागू नहीं होती.'

उन्होंने किंग्स कॉलेज के एक स्टूडेंट का उदाहरण दिया है जो आतंकवादी बना.

प्रवीण स्वामी के लेख में ब्रिटेन के खाते-पीते मध्यवर्गीय परिवार के लोगों के आतंकी बनने का भी जिक्र है और उन 800 लोगों का भी जो आतंकी गतिविधियों में लगातार सक्रिय हैं तथा उन 600 लोगों का भी जिन्हें ऐसा करने से रोका गया.

स्वामी का कहना है कि समस्या की जड़ में है ब्रिटेन में जारी पहचान की राजनीति.

जब ब्रिटेन ने 'एथनिक अल्पसंख्यकों के साथ अपने बरताव का काम नए कांट्रैक्टर-क्लास के जिम्मे 'किया तो वक्त गुजरने के साथ यह रणनीति घातक साबित हुई क्योंकि इसने धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ गहरे रोष को जन्म दिया.'

प्रवीण स्वामी ने लिखा है, 'संस्कृति की एक भरी-पूरी जमीन तो तैयार नहीं हुई लेकिन मल्टीकल्चरिज्म की नीति ने एक समरुप जान पड़ने वाली मुस्लिम पहचान जरुर गढ़ दी.'

इस तरह चौधरी ने टिम को मारने के अपने प्रयास के बचाव में कहा कि टिम तो इराक-युद्ध का समर्थक था जबकि चौधरी कभी इराक गई ही नहीं. उसने कहा कि ‘हमें एक-दूसरे का साथ देना होगा, सहारा बनना होगा.'

अदेबलाजों का कहना था कि ‘हमें उनसे लड़ना ही होगा.  मुझे अफसोस है कि महिलाओं को आज यह दिन देखने पड़ रहे हैं लेकिन हमारे देश में हमारी औरतों के साथ भी यही होता है. ’

समाधान की सूरत

जाहिर है, राजनीतिक रुप से अपने को सही साबित करने की कोशिश और ढेर सारी संस्कृतियों को एक साथ रखने पर ज्यादा जोर देने भर से आतंकवाद का समाधान नहीं निकल सकता.

फ्रांस ने यह कोशिश की और असफल रहा. जान पड़ता है ब्रिटेन भी नाकाम रहेगा. दिक्कत यह है कि हम गलत जगह निशाना लगा रहे हैं.

पैसा बहाने या आतंक को संदर्भ देने और जायज ठहराने के लिए नयी से नयी पद्धति निकालने या ‘वे सताये हुए हैं’  जैसी बात कहने की जगह दुनिया को चाहिए कि वह मुसलमानों को आतंकवाद के सवाल पर खुद से सोच-विचार करने का मौका दे.

हुसैन हक्कानी ब्रिटेन के थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट के सदस्य हैं. वे ब्रिटेन में पाकिस्तान के राजदूत भी रह चुके हैं. उन्होंने ब्रिटेन के अखबार द टेलीग्राफ में समस्या की पहचान करते हुए लिखा है

'मुस्लिम मानस में यह बात बैठी हुई है कि हम सताये हुए लोग हैं और इस्लाम की इज्जत की हिफाजत के नाम पर हिंसा इसी समझ की देन है. आज के मुस्लिम नेताओं के भाषण सुनिए या उनका लेखन पढ़िए तो उसमें पतन, कमजोरी, नपुंसकता और मजबूरी जैसे लफ्ज बहुतायत में मिलते हैं.'

'इस्लाम को राजनीतिक विचारधारा मानकर चलने वाले इस्लामी कट्टरपंथी इस विचार के हामी हैं और जो इस्लाम को राजनीतिक विचारधारा नहीं मानते वे भी इसी सोच में शरीक हैं. इस्लामी कट्टरपंथियों का सबसे उग्र तबका आतंकवादी है.'

अब बारी उदारपंथी मीडिया और राजनेताओं की है. उन्हें मुसलमानों से कहना चाहिए कि आपको आतंक की समस्या का समाधान निकालना होगा.

वरिष्ठ पत्रकार आर जगन्नाथन ने लिखा भी है कि इस्लामी समुदाय के भीतर सुधारपसंद जो आवाज है उसे बढ़ावा देना होगा, तभी आतंकवाद की फांस से हमें छुटकारा मिल सकता है.