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बांग्लादेश: खालिदा जिया की सजा से भारत और हसीना को होंगे ये फायदे

बहरहाल, बेगम खालिदा जिया को पांच साल की कैद और उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी के बाद इतना तय है कि दिसंबर में होने वाले चुनाव में प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी पार्टी अवामी लीग की चुनावी राह और आसान हो गई है

Abhishek Ranjan Singh

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) प्रमुख खालिदा जिया को आर्थिक कदाचार और भ्रष्टाचार के आरोप में ढाका की एक विशेष अदालत ने दोषी ठहराते हुए पांच वर्षों की सजा मुकर्रर की. गौरतलब है कि बांग्लादेश में इसी साल दिसंबर में जातीय संसद के (आम चुनाव) होने हैं. जाहिर इस फैसले के बाद बीएनपी के चुनावी मंसूबे को गहरा धक्का लगा है.

इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के आरोप साबित होने के बाद बेगम खालिदा जिया चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दी जा चुकी हैं. वहीं इस मामले में उनके बड़े बेटे और बीएनपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष तारिक रहमान समेत पार्टी से जुड़े चार लोगों को भी दस-दस वर्षों की सजा सुनाई गई है.


बीएनपी स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य और पूर्व उप प्रधानमंत्री मौदूद अहमद ने हालांकि इस फैसले को ढाका हाई कोर्ट में चुनौती देने की घोषणा की है. लेकिन बांग्लादेश के कानूनी जानकारों के मुताबिक ऊपरी अदालत से बेगम खालिदा जिया और उनके बेटे को राहत मिलने की गुंजाइश काफी कम है.

दरअसल, यह मामला जिया यतीमखाना ट्रस्ट को विदेशी अनुदान में मिले 2.1 करोड़ टका के गबन से जुड़ा है. इस मामले में बीएनपी प्रमुख बेगम खालिदा जिया और उनके बेटे के खिलाफ ठोस साक्ष्य हैं. इसलिए यह आरोप लगाना सही नहीं है कि यह सियासी बदले की कार्रवाई है. अदालत के इस फैसले के बाद राजधानी ढाका समेत देश के दूसरे हिस्सों में राजनीतिक तनाव बढ़ गया है. राजधानी के तोपखाना रोड इलाके में कई जगहों पर आगजनी और हिंसा हुई है.

क्या हैं इस फैसले के सियासी मायने?

अदालत के इस फैसले के कई सियासी मायने हैं. इस साल के आखिर में बांग्लादेश में आम चुनाव होने हैं. इस बार का चुनाव के कई मायनों में खास है. मसलन, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी की तरफ से ऐलान किया गया था कि वे देश में होने वाले चुनाव में हिस्सा लेंगे.

साल 2014 में हुए चुनाव में बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी ने अपनी कई आपत्तियों के बाद चुनाव का बहिष्कार किया था. उनकी मांग थी कि बगैर अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है. लेकिन अवामी लीग प्रमुख और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी मांगों को खारिज कर दिया. उनका कहना था कि अपनी संभावित हार की वजह से बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी देश की जनता को गुमराह कर रही हैं. दोनों मुख्य विपक्षी दलों के चुनावी बहिष्कार की वजह से अवामी लीग और उसके सहयोगी दलों को जातीय संसद की कुल 350 सीटों में से करीब डेढ़ सौ सीटों पर बगैर किसी चुनौती के जीत हासिल हुई थी.

हालांकि इस साल दिसंबर में होने वाले चुनाव में शामिल होना बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की मजबूरी भी है क्योंकि बांग्लादेश के संविधान के मुताबिक कोई राजनीतिक दल अगर लगातार दो चुनावों का बहिष्कार करतीं हैं तो उनकी मान्यता खत्म हो सकती है.

वैसे जमात-ए-इस्लामी भले ही इस बार आम चुनाव में उतरने का ऐलान कर चुकी हो. लेकिन शीर्ष अदालत की ओर से उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जा सकती है क्योंकि जमात-ए-इस्लामी खिलाफ 1971 के युद्ध अपराध का मामला भी चल रहा है. पार्टी के शीर्ष नेता मोतिउर रहमान निजामी समेत कई बड़े नेताओं को अदालती आदेश के बाद फांसी की सजा दी जा चुकी है.

काफी अहम हैं भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए अभी के दो साल

फरवरी के इसी महीने में मैं पिछले साल तोपखाना रोड स्थित ढाका प्रेस क्लब में कई बांग्लादेशी पत्रकारों के बीच था. चुनावी चर्चाओं के बीच जिक्र आया कि साल 2018 और 2019 बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के लिए काफी अहम हैं. इन दो वर्षों में तीनों देशों में आम चुनाव होने हैं. भारत में सत्तारूढ़ बीजेपी और बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार के बीच दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों और कई महत्वपूर्ण समझौतों की चर्चा हुई.

इसी बीच ढाका ट्रिब्यून के वरिष्ठ पत्रकार इम्तियाज लिटन ने कहा कि बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार के खिलाफ भले ही थोड़ी बहुत सत्ता विरोधी लहर हो. लेकिन उसके सामने कोई चुनौती दर पेश नहीं आएगी. उन्होंने दावा किया कि चुनाव से पहले जिया यतीमखाना ट्रस्ट में बेगम खालिदा जिया और उनके बेटे द्वारा की गई आर्थिक गड़बड़ियों में उन्हें सजा मिलनी तय है. उस वक्त हम में से किसी ने सोचा भी नहीं था कि प्रेस क्लब में कही उनकी बातें अक्षरशः सच साबित होंगी.

बांग्लादेश का संसद भवन

वैसे यह जरूर है कि बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार के खिलाफ लोगों में थोड़ी बहुत नाराजगी है. लेकिन अवामी लीग के बरक्स मजबूत राजनीतिक विकल्प न होने की वजह से प्रधानमंत्री शेख हसीना की हुकूमत पर फिलहाल कोई खतरा नहीं है. अपनी बांग्लादेश यात्रा के दौरान मैंने एक खास बात देखी. चाहे ढाका हो या राजशाही या फिर जैसोर इन जिलों के किसी चौक-चौराहे पर हमें बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी के समर्थन में कोई पोस्टर या हॉर्डिंग नहीं दिखा. हर जगह प्रधानमंत्री शेख हसीना और बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के पोस्टर चस्पां थे.

राजधानी ढाका के कई इलाकों में युद्ध अपराध के दोषियों को फांसी देने और पाकिस्तान को क्रूर देश बताने संबंधी पोस्टर जरूर दिखे. यहां तक कि ढाका यूनिवर्सिटी में भी छात्र संगठनों की तरफ से युद्ध अपराध में शामिल जमात-ए-इस्लामी के नेताओं को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की जा रही थी.

यकीनन बांग्लादेश में बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की इज्जत किसी फरिश्ते से कम नहीं है. उनके नाम पर एक नए किस्म का राष्ट्रवाद बांग्लादेश में देखा जा सकता है. भारत में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता तो पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना को कायद-ए-आजम कहा जाता है. लेकिन बांग्लादेश में चाहे श्रमिक संगठनों की रैली हो, नेताओं की चुनावी जनसभा हो या फिर कोई सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रम. वहां बीच-बीच में आपको सुनने को मिलेगा ‘जय बांग्ला-जय बंगबंधु’. बांग्लादेशी जनता की इसी भावना का फायदा प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी पार्टी अवामी लीग को मिल रहा है और शायद आने वाले वर्षों में भी मिलेगा.

पुरानी है दो बेगमों की अदावत

बांग्लादेश की राजनीति में दो बेगमों शेख हसीना और खालिदा जिया की सियासी अदावत काफी पुरानी है. यह अदावत तो खालिदा जिया के शौहर जियाउर रहमान और शेख हसीना के पिता शेख मुजीब के समय ही शुरू हो गई थी. इस राजनीतिक शत्रुता की बड़ी कीमत बांग्लादेश की जनता को चुकानी पड़ी. खुद शेख मुजीर्बुरहमान और उनके परिवार के कई सदस्यों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. बीएनपी और अवामी लीग दो अलग-अलग धुव्र हैं उनके बीच कई मुद्दों पर गहरे मतभेद हैं.

बीएनपी जहां बांग्लादेश को इस्लामिक राष्ट्र घोषित करने की मांग करती रही है. वहीं अवामी लीग का रवैया इस मामले में उदार है. बेगम खालिदा जिया जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री थी उस दौरान ईश निंदा कानून बनाने की मांग को लेकर ढाका समेत कई जिलों में भीषण हिंसा हुई थी. बांग्लादेश के विभिन्न जिलों में हिंदू विरोधी हिंसा में करीब चार दर्जन मंदिर और सैकड़ों हिंदुओं के घरों में लूटपाट की गई.

इसमें कोई शक नहीं कि बांग्लादेश में खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों की नीतियों की वजह से कट्टरपंथी ताकतों को बढ़ावा मिला है. जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश में ‘ईश निंदा कानून’ लागू करना चाहती हैं. ‘ईश निंदा कानून’ वही काला कानून है, जो पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक़ ने लागू किया था.

पाकिस्तान में इस कानून की वजह से अल्पसंख्यकों को कितनी प्रताड़ना झेलनी पड़ती है, यह पूरी दुनिया को मालूम है. पाकिस्तान में इसी कानून की मुखालफत करने की वजह से कुछ साल पहले पंजाब के गर्वनर सलमान तासीर और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को भी उसी रास्ते पर ले जाना चाहती है. लेकिन खुशी इस बात की है कि आम बांग्लादेशी जनता का समर्थन ऐसी पार्टियों को नहीं है.

अल्पसंख्यकों की हितैषी है अवामी लीग

बीएनपी का एक आरोप यह भी रहा है कि अवामी लीग बांग्लादेश में हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति करती है. साल 2014 के आम चुनाव में 18 हिंदू सांसद चुने गए. हालांकि इनमें ज्यादातर मनोनीत संसद सदस्य हैं. वैसे पिछले कई वर्षों के मुकाबले यह संख्या अधिक है. एक सरकारी आदेश के बाद पिछले दो वर्षों से बांग्लादेश के संसद में सरस्वती पूजा का भी आयोजन कराया जा रहा है. इस समारोह में खुद प्रधानमंत्री शेख हसीना समेत कई सांसद और मंत्री भी इसमें हिस्सा लेते रहे हैं. बीएनपी को हसीना सरकार का यह फैसला रास नहीं आया.

नतीजतन साल 2017 में इसके खिलाफ ढाका में कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन भी हुए. इतना ही नहीं अवामी लीग सरकार इससे दो कदम बढ़कर हिंदुओं के कई महत्वपूर्ण त्योहारों को सरकारी अवकाश की सूची में शामिल कराया. गौरतलब है कि बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी करीब ग्यारह फीसद हैं. हिंदुओं को अमूमन अवामी लीग का वोटबैंक समझा जाता है और इसमें सच्चाई भी है. वहां रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यक भी स्वयं को इस सरकार में ज्यादा महफूज समझते हैं.

राजधानी ढाका में 1971 के युद्ध अपराधी मोतिउर रहमान निजामी को फांसी देने की मांग के समर्थन में जारी पोस्टर

बांग्लादेश के हिंदुओं ने 1971 के मुक्ति युद्ध के समय हुए ज्यादती और जियाउर रहमान के शासन में हुए अत्याचार को आज भी नहीं भुला पाए हैं. वैसे साल 1951 के बाद बांग्लादेश में हर साल हिंदुओं की संख्या में गिरावट आई है.

बांग्लादेश में पहली जनगणना (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) के समय देश में मुसलमानों की कुल आबादी 3 करोड़ 22 लाख थी, जबकि हिंदुओं की संख्या 92,39,000 थी. मौजूदा समय में यहां हिंदुओं की संख्या महज 1 करोड़ 40 लाख है, जबकि मुसलमानों की आबादी 12 करोड़ 63 लाख है.

साल 2013 में अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ नेता दिलावर हुसैन को 1971 के युद्ध अपराधों के लिए मौत की सजा सुनाई थी. इस फैसले के बाद जमात-ए- इस्लामी के समर्थकों ने अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं को निशाना बनाया. गौरतलब है कि वर्ष 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ मुक्ति युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर हिंदुओं की हत्याएं और बलात्कार के आरोप में दिलावर को दोषी पाया गया था.

बांग्लादेशी मूल के प्रोफेसर जो अमेरिका में रहते हैं, उन्होंने अपनी किताब ‘गॉड विलिंग: द पॉलिटिक्स ऑफ इस्लामिज्म इन बांग्लादेश’ में यह उल्लेख किया है कि बीते 25 वर्षों में बांग्लादेश से 53 लाख हिंदू पलायन कर गए हैं. दरअसल, बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी जैसी कुछ ऐसी कट्टरपंथी पार्टियां हैं, जो देश को पाकिस्तान के रास्ते पर ले जाना चाहती हैं.

बांग्लादेश में उर्दू भाषी मुसलमानों की संख्या करीब बीस लाख है. विभाजन के समय ये बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आकर बसे थे. 1971 के मुक्ति युद्ध के समय उर्दू भाषी मुसलमानों ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया था. बांग्लादेश बनने के बाद बंगाली मुसलमानों का कहर इन पर टूटा. नतीजतन इन्हें अपने घरों से बाहर आज भी कैंपों में रहना पड़ रहा है. काफी लंबी कानूनी लड़ाई के बाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद साल 2008 में इन्हें बांग्लादेशी नागिरक और वोटिंग अधिकार मिला. उर्दू भाषी मुसलमानों को बीएनपी का सर्मथक माना जाता है.

हसीना के शासन में हिंदुओं के बीच बढ़ी है न्याय की उम्मीद

अवामी लीग और बीएनपी के बीच ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ जिसे शेख हसीना सरकार ने संशोधित कर ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ कर दिया को लेकर भी मतभेद है. पहले शत्रु संपत्ति कानून की वजह से बांग्लादेश के हिंदुओं में काफी नाराजगी थी. लेकिन कानून में संशोधन के बाद हिंदुओं के बीच न्याय की उम्मीद बढ़ी है. पहले शत्रु संपत्ति अधिनियम को लेकर उनका मानना था कि यह कानून बांग्लादेश में रहने वाले हिंदुओं को उनकी अचल संपत्तियों से बेदखल करने का जरिया है.

यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ की वजह से लाखों हिंदुओं को अपनी संपत्ति से हाथ धोना पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक, इस अधिनियम के तहत हिंदुओं के स्वामित्व वाली लगभग 20 लाख एकड़ भूमि को हड़प लिया गया. यह बांग्लादेश की कुल भूमि का पांच फीसद हिस्सा है, लेकिन यह भूमि हिंदुओं के स्वामित्व के लगभग 45 फीसद है. ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ के शिकार बौद्ध समुदाय के लोग भी हुए हैं. चटगांव डिवीजन के तीन जिलों, बंदरवन, खग्राछारी और रंगमती में 22 फीसद बौद्ध समुदाय की भूमि इस कानून की आड़ में छीन ली गई.

एक अनुमान के मुताबिक बांग्लादेश की विभिन्न अदालतों में शत्रु संपत्ति अधिनियम से जुड़े करीब 10 लाख हिंदुओं के मुकदमे अदालत में लंबित हैं. वर्ष 2003 में प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ में अहम बदलाव करने का फैसला किया. बहरहाल, बेगम खालिदा जिया को पांच साल की कैद और उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी के बाद इतना तय है कि दिसंबर में होने वाले चुनाव में प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी पार्टी अवामी लीग की चुनावी राह और आसान हो गई है.

भारत पर होगा ये असर

भारत के लिए भी इसके काफी मायने हैं क्योंकि अवामी लीग जब भी सत्ता में रही है दोनों देशों के संबंध काफी प्रगाढ़ हुए हैं. हां पाकिस्तान को खालिदा जिया की सजा से दुख जरूर हुआ होगा क्योंकि बीएनपी का पाकिस्तानी प्रेम किसी से छुपा नहीं है. भारत की कूटनीति के लिहाज से अवामी लीग का सत्ता में बने रहना भी मुफीद है.

अवामी लीग की सरकार में बांग्लादेश और भारत के बीच व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई है. साल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुप्रतीक्षित भूमि सीमा समझौता (एलबीए) हुआ. जिसमें दोनों देशों ने अपनी मर्जी से अपने भू-भाग का आदान-प्रदान किया था. इस समझौते के बाद दोनों देशों के करीब पचास हजार लोगों को दशकों बाद अपने देशों की नागरिकता हासिल हुई.

फिलहाल भारत और बांग्लादेश के बीच रेल सेवाएं क्रमशः कोलकाता-ढाका और कोलकाता-खुलना के बीच चल रही है. पूर्वोत्तर के राज्य त्रिपुरा तक कम समय और कम खर्च में मालवाहक ट्रकों का आवागमन सुगम हो इसके लिए कोलकाता-अगरतला वाया ढाका सड़क मार्ग खोला गया है.

कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के मामले में पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया को सजा मिलने के बाद जहां एक तरफ अवामी लीग की चुनावी राह आसान हो गई है. वहीं भारत के लिए भी यह संतोष की बात है कि इस साल के आखिर में बांग्लादेश में होने वाले आम चुनाव में शेख हसीना का दोबारा प्रधानमंत्री बनना तय है.