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1962 के भारत-चीन युद्ध में आखिर क्यों मिली भारत को हार...

सरकार और सेना के बीच कोई सामंजस्य ही नहीं बन सका

Sumit Kumar Dubey

सिक्किम की सीमा पर जारी भारत-चीन विवाद की गंभीरता सबसे पहले उस वक्त सामने आई जब चीन ने भारत को 1962 के युद्ध का इतिहास याद रखने की नसीहत दी. सवाल है कि क्या भारत को 1962 के उस युद्ध को याद रखने की जरूरत है? आखिर क्या वजह थी कि चीन भारत को उस वक्त ऐसी मात देने में कामयाब हुआ था जिसका उदाहरण  वह 55 साल बाद भी पेश करके भारत को धमका रहा है.

यह एक ऐतिहासिक सच है कि 1962 में चाइनीज ड्रैगन ने भारत को उसकी सीमा में घुस कर हराया था. लेकिन इसकी इकलौती वजह भारतीय सेना का कमजोर होना नहीं था. हिमालय की पहाड़ियों में मिली इस हार की वजहें और उसके गुनहगार लोगों की लिस्ट काफी लंबी है. 1962 में चीन के हाथों मिली पराजय की कहानी धोखे, कायरता, लापरवाही और दूरदर्शी रणनीति के अभाव की कहानी है.


चीन के हाथों मिली इस हार के कारणों की पड़ताल करने की जिम्मेदारी लेफ्टिनेंट जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर प्रेमिंदर सिंह भगत को दी गई थी. इनकी पड़ताल के बाद आई रिपोर्ट को आधी सदी तक गुप्त रखा गया.

भारत सरकार की ओर से 1962 में मिली हार की वजहों को अब तक छुपाने की कोशिश की गई है. हालांकि एक ऑस्ट्रेलियन लेखक निवेल मैक्सवेल को इस रिपोर्ट का एक हिस्सा उनके रिसर्च के लिए सौंपा गया था. जिसे इस लेखक ने साल 2014 में सार्वजनिक कर दिया. हालांकि उसके बाद भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को इंटरनेट से हटवा दिया लेकिन तब तक इसे कई जगह डाउनलोड किया जा चुका था.

हैंडरसन ब्रुक्स की यह रिपोर्ट उस वक्त के भारत नीति निर्माताओं की कार्यशैली और काबिलियत पर कई सवाल खड़े करती है. और सबसे बड़ा सवाल उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर है जो  हिमालय के पार से आने वाले खतरे को भांपने में पूरी तरह नाकाम रहे थे.

ड्रैगन के खतरे को नहीं भांप सके नेहरू

कोई भी बड़ी जंग अचानक ही नहीं भड़क जाती है. महीनों पहले से उसकी भूमिका तैयार होती है. 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सैनिकों ने लद्दाख की सीमा को पार करके भारत पर आक्रमण करने से पहले ही युद्ध जैसा माहौल तैयार हो चुका था. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ना तो भारत के राजनीतिक नेतृत्व और ना ही सैनिक नेतृत्व को इसका कोई आभास था.

भारत के उस वक्त के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन 17 सितंबर को अमेरिका की यात्रा पर थे और 30 सितंबर को भारत लौटे. प्रधानमंत्री नेहरू आठ सितंबर को विदेश यात्रा पर गए और दो अक्टूबर को लौटे जिसके बाद वह फिर से 12 अक्टूबर को कोलंबो की यात्रा पर गए और 16 अक्टूबर को वापस लौटे. चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल बीएन कौल दो अक्टूबर तक कश्मीर में छुट्टियां बिता रहे थे.

यानी जब चीन भारत पर हमले के मंसूबों पर फाइनल तैयारियां बना रहा था तब भारत के नीति-निर्धारक विदेश दौरों या छुट्टियों  पर थे.

कैसे तैयार हुई युद्ध की भूमिका

कृष्ण मेनन

आजादी के बाद भारत चीन के संबंध काफी मधुर थे. नेहरू चीन के साथ भारत के भाईचारे की मिसाल दिया करते थे. चीन के साथ पंचशील समझौता करके नेहरू ने तिब्बत में चीन के आधिपत्य को मंजूरी भी दे दी. लेकिन दलाई लामा की भारत में मौजूदगी चीन को लगातार खल रही थी.

चीन भारत को सबक सिखाना चाहता था .लेकिन नेहरू को हमेशा लगता था चीन भारत के साथ जंग नहीं कर सकता. हैंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट कहती है कि नेहरू ने चीन के साथ 1959 में फॉरवर्ड पॉलिसी को अपनाने का फैसला किया. इसके तहत चीन और भारत की सीमा को बांटने वाली मैकमोहन रेखा पर आर्मी की पोस्ट बनाई गईं.

लेकिन हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों पर बनाई गई इन अग्रिम चौकियों पर तैनात सिपाहियों के रीइनफोर्समेंट के लिए कोई सप्लाई लाइन सुचारू रूप से नहीं बनाई गई. नेहरू-मेनन को लगता था कि चीन इन चौकियों से ही डर जाएगा और युद्ध नहीं होगा. लेकिन युद्ध हुआ और इन चौकियों पर तैनात भारतीय फौजियों के पास जरूरी रसद पहुंचने में 10 से 15 दिन तक लगे.

वहीं दूसरी ओर चीनी सैनिक पूरी तैयारियों के साथ आए थे. जबदस्त साहस और शौर्य के बावजूद भारतीय सैनिक बिना खाने और रसद के इन चौकियों की हिफाजत नहीं कर सके.

मैदान पर टिक ही नहीं सके लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल

रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन के सबसे चहेते अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल को इस जंग का कमांडर बनाया गया था. जंग के दौरान बतौर कमांडर, कौल को भारत के पूर्वी क्षेत्र में होना चाहिए था लेकिन वह ‘बीमार’ हो गए. और वापस दिल्ली आकर मिलिट्री हॉस्पिटल में भर्ती हो गए.

इस बारे में लेखर इंदर मल्होत्रा लिखते हैं कि ताकतवर दुश्मन के खिलाफ भारतीय सेना की रणनीति दिल्ली के अस्पताल से बन रही थी. बाद में दिल्ली के मोती लाल नेहरू रोड स्थित अपने घर से उन्होंने इस युद्ध का संचालन किया. लेकिन इसके बावजूद मेनन ने कौल को ही कमांडर बनाए रखा.

एयरफोर्स का नहीं हुआ इस्तेमाल

प्रतीकात्मक तस्वीर

एक महीने तक चलने वाली इस जंग में दोनों ही देशों ने एयरफोर्स का इस्तेमाल नहीं किया. चीन की आगे बढ़ती सेना को रोकने के लिए भारतीय एयरफोर्स का इस्तेमाल ना करने के लिए भी नेहरू सरकार की काफी आलोचना की जाती है.

रिटायर्ड एयर कोमोडोर रमेश फड़के ने अपने एक आर्टिकल में लिखा है कि उस वक्त लेफ्टीनेंट जनरल एसएसपी थोराट ने रक्षा मंत्री के सामने कुछ और विकल्प रखे थे. लेकिन कृष्ण मेनन ने उन विकल्पों को नेहरू के सामने आने ही नहीं दिया. यह युद्ध किसी भी देश की राजनीतिक और सैनिक लीडरशिप के बीच में अविश्वास और गलतफहमी की सबसे बड़ी मिसाल बन गया.

21 नवंबर 1962 को चीन ने इकतरफा युद्ध विराम का ऐलान किया. लेकिन पीछे लौटने से पहले उसकी सेना भारत को ऐसा जख्म दे गई जिसकी याद चीन आने वाले कई सालों तक भारत को दिलाता रहेगा.