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पाकिस्तान की परेड देखकर आपके सीने पर सांप लोटा?

'पाकिस्तान डे’ परेड की शान में मीडिया कसीदे पढ़ रहा है.

Seema Tanwar

पाकिस्तान में जब भी कोई अहम आयोजन होता है तो वहां का उर्दू मीडिया यह साबित करने में जुट जाता है कि पाकिस्तान अकेला नहीं है, बल्कि दुनिया में उसकी बहुत अहमियत है.

यही वजह है कि 23 मार्च को हुई ‘पाकिस्तान डे’ परेड की शान में अब तक मीडिया कसीदे पढ़ रहा है. और यह कहने की तो जरूरत ही नहीं है कि भारत को खूब खरी-खोटी सुनाई जा रही है.


हो सकता है कि आपको पता भी न हो कि पाकिस्तान में 23 मार्च को कोई सैन्य परेड होती है, लेकिन पाकिस्तानी अखबारों को लगता है कि इससे हर भारतीय के सीने पर सांप लोट रहा होगा.

अकेला नहीं है पाकिस्तान

‘जंग’ ने इस मौके पर संपादकीय लिखा - अकेला नहीं है पाकिस्तान. अखबार के मुताबिक पाकिस्तान डे पर होने वाली परेड जोश-ओ-खरोश को बढ़ाने वाली और दुश्मन के दिलों पर पाकिस्तान की धाक जमाने वाली होती है.

अखबार के मुताबिक इस बार पाकिस्तानी सशस्त्र सेनाओं की परेड में चीन, सऊदी अरब, और तुर्की के दस्तों ने भी हिस्सा लिया जबकि दक्षिण अफ्रीका के सेनाप्रमुख खुद इस मौके पर मौजूद थे. अखबार के मुताबिक यह पाकिस्तान के लोगों और पूरी दुनिया को यह बताने के लिए काफी है कि पाकिस्तान अकेला नहीं है.

अखबार के मुताबिक यूं तो पाकिस्तान डे पर ताकत का अजीम-ओ-शान प्रदर्शन होता है, लेकिन इस बार हमारे भरोसेमंद साथियों ने शिरकत से इस आयोजन को चार चांद लग गए और इससे राजनयिक सतह पर पाकिस्तान की स्थिति मजबूत हुई है.

रोजनामा ‘नवा ए वक्त’ लिखता है कि चीन, सऊदी अरब और तुर्की ने दरअसल परेड में शामिल होकर भारत को ठोस जवाब दिया है जो पाकिस्तान को अलग थलग करने की कोशिशों में लगा रहता है.

अखबार के मुताबिक हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान डे के मौके पर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के नाम अपने संदेश में यह इच्छा जताई है कि 'हम आतंकवाद और तनातनी रहित माहौल में बातचीत चाहते हैं.'

लेकिन अखबार कहता है कि माहौल तो भारत ने ही खराब किया है और पाकिस्तान बनने के बाद से ही वह उसके खिलाफ साजिशों में लगा रहता है. इसके बाद गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए अखबार 1971 में पहुंच जाता है जब पाकिस्तान के दो हिस्से हो गए थे और इसके वह पूरी तरह भारत को जिम्मेदार ठहराता है.

किससे खतरा है

रोजनामा ‘इंसाफ’ लिखता है कि 1971 में दो हिस्से होने के बावजूद देश कायम है, बल्कि ‘अल्लाह के फजल से एटमी ताकत भी बन चुका है.’ अखबार कहता है कि भौगोलिक सीमाओं पर देश को कोई खतरा नहीं हैं, बल्कि खतरा वैचारिक सीमाओं पर है.

भारत का नाम लिए बगैर अखबार लिखता है कि ‘पारंपरिक जंग में हमें शिकस्त देने में नाकाम दुश्मन ने हम पर वैचारिक जंग थोप दी है.’

अखबार की राय में एक तरफ संस्कृति के नाम पर देश में भारत की बेहूदा फिल्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ यह बात फैलाई जा रही है कि पाकिस्तान धर्म के नाम पर वजूद में नहीं आया था.

अखबार ने पाकिस्तान के सेक्युलर और उदारवादी लोगों को दुश्मन का एजेंट बताया है. हिंदू समेत अन्य अल्पसंख्यकों को बराबर अधिकार देने की बात करने वाले नवाज शरीफ के बारे में अखबार की टिप्पणी है कि सरकार पर रोशनखयाली का भूत सवार है.

झूठ का पुलिंदा

दूसरी तरफ, मानवाधिकारों पर एक अमेरिकी रिपोर्ट पर कई पाकिस्तानी अखबारों की नाराजगी साफ दिखती है क्योंकि इसमें कश्मीर में भारत के कथित जुल्मों का जिक्र नहीं है. ‘दुनिया’ लिखता है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने झूठ का पुलिंदा बताते हुए इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है.

अखबार के मुताबिक कश्मीर में भारत के जुल्मों का यह आलम है कि खुदमुख्तारी की आवाज उठाने वालों को पैलेट गन से निशाना बनाया जाता है, जिसकी वजह से हजारों कश्मीरियों की आंखों की रोशनी प्रभावित हुई है या फिर उन्हें दिखना ही बंद हो गया है. अखबार कहता है कि भारत में मुसलमान ही नहीं बल्कि दलित और अन्य धर्मों को मानने वालों के मानवाधिकारों के हनन के मामले भी आम है, लेकिन अमेरिकी रिपोर्ट में उनका कोई जिक्र नहीं है.

वहीं ‘एक्सप्रेस’ लिखता है कि पाकिस्तान के किरदार पर ऊंगली उठाने वालों को निष्पक्षता से काम लेते हुए भारत की तरफ से अंतरराष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों के हनन पर भी गौर करना चाहिए.

अखबार ने भारत को अपनी रवैया दुरुस्त करने की नसीहत देते हुए लिखा है कि 21वीं सदी में पारंपरिक लड़ाइयों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है इसलिए वह कश्मीर मुद्दे को कश्मीरियों की मर्जी के मुताबिक हल करने की तरफ कदम बढ़ाए.