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भारत-चीन विवाद : भारत का डर ही ड्रैगन की ताकत है

चीन को पीछे धकेलने में सक्षम है भारतीय सेना

Sumit Kumar Dubey

अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने एक बार कहा था कि ‘युद्ध के लिए तैयार रहना ही युद्ध रोकने का उपाय है’. कैनेडी ने यह बात साठ के दशक में क्यूबा मिसाइल संकट के वक्त कही थी. उस वक्त दोनों सुपर पावर यानी अमेरिका और सोवियत संघ टकराव की स्थिति में थे और दुनिया के खत्म होने का खतरा सिर पर मंडरा रहा था. इस संकट के दौरान अमेरिका ने सोवियत संघ के सामने युद्ध जैसे हालात पैदा कर दिए थे और अंतत: सोवियत संघ को क्यूबा से अपनी परमाणु मिसाइलें हटानी पड़ी थीं.

आज भारत को भी कमोबेश उसी हालात का सामना करना पड़ रहा है. चीन के साथ साल 1962 के बाद की सबसे बड़ी इस तनातनी के बीच हर भारतीय के मन में यह सवाल होगा अगर जंग हुई तो क्या होगा?  क्या चीन की विशालकाय सेना और हथियारों के जखीरे के सामने भारतीय  सेना टिक भी पाएगी ? क्या चीन एक बार फिर 1962 को दोहरा कर भारत की जमीन छीन लेगा?


भारत और चीन की सेनाओं की तुलना के बीच हमें इस वास्तविकता को तो कबूलना ही पड़ेगा कि चीन का रक्षा बजट भारत से तीन गुना है. साल 2017 में चीन ने अपने रक्षा बजट में 152 बिलियन डॉलर का प्रावधान किया है, वहीं भारत का रक्षा बजट 53.5 बिलियन डॉलर का है. यह भी सच है कि सैनिकों की संख्या हो,लड़ाकू विमानों की संख्या हो या फिर टैंको की संख्या हो, चीन भारत से इक्कीस है.

लेकिन एक वास्तविकता यह भी है कि जंग संख्या बल के भरोसे नहीं बल्कि हौसले और बेहतर रणनीति से जीती जाती है. अपने 14 पड़ोसी देशों में अधिकांश के साथ सीमा विवाद में फंसा चीन, भारत के साथ जंग के हालात मे अपनी पूरी सैन्य क्षमता नहीं झोंक सकता है. ऐसे में जंग की हालत में बेहतर रणनीति के साथ भारत 1962 की हार के इतिहास को बदलने में भी पूरी तरह से सक्षम है.

चीन को यह बात सच में याद रखनी होगी कि यह 2017 है ,1962 नहीं. 1962 में ना तो दोनों देशों के पास परमाणु हथियार थे और ना ही दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ इस तरह जुड़ी हुईं थी.

लिहाजा अगर जंग होती भी है तो वह उतनी लंबी नहीं चल सकती जितनी 1962 में चली थी. ऐसे में चीन के साथ एक छोटी जंग की आशंका के मद्देनजर भारतीय सेना भी ड्रैगन की चुनौती के लिए तैयार है.

चीन से इक्कीस है भारतीय वायुसेना

किसी भी जंग की शुरुआत में वायुसेना की भूमिका सबसे अहम होती है. जमीनी सेनाओं के मोर्चे पर पहुंचने से पहले दुश्मन की सेना को रोकने से लेकर सीमापार के रणनीतिक महत्व के ठिकानों को नेस्तनाबूद करने का जिम्मा एयरफोर्स के ही कंधों पर होता है.

चीन के पास निश्चित तौर पर भारत से ज्यादा लड़ाकू विमान हैं. लेकिन उसके पास भारतीय लड़ाकू विमान सुखोई 30 एमकेआई की कोई काट नहीं है. भारतीय सुखोई 30 एमकेआई चीन के सुखोई 30 एमकेएम से कहीं ज्यादा ताकतवर है. भारतीय सुखोई 30 एक साथ 20 निशाने साध सकता है जबकी चीनी सुखोई 30 एक बार में बस दो निशाने साध सकता है.

इसके अलावा भारत-चीन सीमा की भौगोलिक स्थिति भी भारतीय वायुसेना के पक्ष में है. जंग के हालात में चीनी विमानों को तिब्बत के ऊंचे पठार से उड़ान भरनी होगी. लिहाजा ना तो चीनी विमानों में ज्यादा विस्फोटक लादे जा सकते हैं और ना ही ज्यादा ईंधन भरा जा सकता है.

यही नहीं चीन की वायुसेना के पास अपने विमानों में हवा में ईंधन भरने की क्षमता भी काफी कम है. जंग के हालात में चीन  के J-11 ए और J-10 विमान चेंग डू सैन्य क्षेत्र से उड़ान भरेंगे. तिब्बत और जिनजियांग में अग्रिम एयरफील्ड की कमी होने के चलते चेंग डू और लैन झोऊ से ही विमानों को उड़ान भरनी होगी. दूसरी ओर भारत ने असम के तेजपुर में सुखोई 30 के बेस बनाया हुआ है.

ब्रह्मोस की होगी अहम भूमिका

रूस के साथ मिलकर विकसित की गई ब्रह्मोस मिसाइल चीन के खिलाफ जंग के शुरुआती दिनों में बेहद अहम भूमिका निभा सकती है. मैक 2.8 यानी 952 मीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलने वाली ब्रह्मोस चीन के रडारों को मात देकर सटीक निशाना लगाने में सक्षम है. भारत के तरकश में ब्रह्मोस की मौजूदगी, एयरफोर्स के ऊपर से दबाव को हटाने का काम करेगी. ब्रह्मोस का उत्पादन भारत में होने के चलते युद्ध के वक्त इसकी सप्लाई भी बरकरार रहेगी.

हालांकि चीन के पास मौजूद बैलैस्टिक मिलाइल DF-11, DF -15 और DF-21 की भारत के पास कोई काट नहीं है. भारत के पास सटीक एयर डिफेंस सिस्टम की कमी के चलते यह मिसाइल उत्तर भारतीय शहरों में तबाही तो फैला सकती हैं. लेकिन इसके जवाब में भारत के पास भी बीजिंग तक मारक क्षमता वाली अग्नि सीरीज की मिसाइलें हैं. लिहाजा चीन इस जंग को शुरुआत में ही मिसाइल युद्ध में तब्दील नहीं करना चाहेगा.

चीन की तेजी को रोकना होगा

1962 के युद्ध की तरह इस बार भी चीन तुरंत आक्रमण करके रणनीतिक महत्व वाले क्षेत्रों पर कब्जा करना चाहेगा. ऐसे में भारत को बचाव के साथ आक्रमण भी करना होगा. युद्ध की भाषा में इसे ‘ऑफेंसिव डिफेंस’  कहते हैं.

भारत-चीन के बीच युद्ध की आशंका पर शोध करने वाले अमरीका के स्कॉलर इस्कंदर रहमान ने अपने शोध पत्र में भारतीय फौज के एक कर्नल के हवाले से लिखा है कि, भारत यह जानता है कि एक बार अगर चीनी सेना किसी भू-भाग पर कब्जा कर ले तो उसे पीछे धकेलने के लिए बहुत खून बहाना पड़ेगा, लिहाजा भारतीय सेना की रणनीति चीनी भू-भाग पर कब्जा करने की रहेगी.

भारत-चीन सीमा पर सिक्किम और लद्दाख के इलाके ऐसे हैं जहां भारत, भौगोलिक रूप से अच्छी पोजिशन में है. लिहाजा इन इलाकों से भारतीय सीमा आगे बढ़कर चीनी क्षेत्रों पर कब्जा कर सकती है. खास तौर से तिब्बत के वेस्टर्न हाइवे को निशाना बनाया जा सकता है.

स्पेशल लड़ाकू दस्तों की भूमिका होगी अहम

भारत-चीन सीमा पर भारत ने जहां सीमा के नजदीक निचले इलाको में अपनी सेना का बेस बनाया है वहीं चीनी सेना सीमा से दूर तिब्बत के अंदरूनी इलाकों से आएगी. तिब्बत में चीन के बेहतरीन सड़क-रेल नेटवर्क की बदौलत चीन बहुत कम वक्त में सेना की कई डिवीजन सीमा पर भेज सकता है.

भारत को भी अपनी सेना जल्द से जल्द सीमा पर पहुंचानी होगी. और इस दौरान चीन की बढ़त को रोकने के लिए एयर फोर्स और ब्रह्मोस के अलावा विशेष लड़ाकू दस्तों का भी इस्तेमाल किया जाएगा. कमोबेश यही रणनीति चीन की भी होगी. जंग के हालात में चीन की वायुसेना की 15वीं एयरबोर्न कोर के 35000 विशेष लड़ाकू दस्ते भारत के अहम टारगेटों पर हमला करने के लिए तैयार होंगे.

दूसरी ओर भारतीय वायुसेना के गरुड़ दस्ते के जवानों के अलावा सेना के पैरा कमांडों चीनी सीमा के भीतर जाकर उसे नुकसान पहुंचाने के साथ साथ उसकी सप्लाई लाइन काटने की कोशिश करेंगे.

बहुत काम आएगी ‘गुप्त’ स्पेशल फ्रंटियर फोर्स

चीन के साथ जंग के हालात में भारत के पास स्पेशल फ्रंटियर फोर्स यानी एसएसएफ नाम का एक ऐसा लड़ाकू दस्ता भी है जो तिब्बत में घुसकर नुकसान करने की पोजिशन में होगा. एसएसएफ तिब्तती शरणार्थियों का एक ऐसा दस्ता है जिसके बारे में किसी को ज्यादा कुछ नहीं पता है.

यह दस्ता सीधे भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के अधीन है. 1971 की जंग में इस दस्ते ने मिजोरम की पहाड़ियों से तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की चिटगांव की पहाड़ियों में घुसपैठ करके पाकिस्तान की हार में अहम भूमिका निभाई थी. इस दस्ते को 1962 की जंग के बाद बनाया गया था.

अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच एक गुप्त बातचीत के बाद इस दस्ते का गठन किया गया था. शुरू में इस दस्ते को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने ट्रेंड किया था.

अपुष्ट खबरों के मुताबिक इस दस्ते में करीब 10,000 जवान मौजूद हैं. इसका हेडक्वार्टर चीनी सीमा के पास उत्तराखंड के चकराता में है. इस इलाके में तिब्बती शरणार्थियों की संख्या काफी ज्यादा है. अगर यह दस्ता काम कर गया तो इसे तिब्बत में स्थानीय समर्थन भी मिल सकता है.

चीन की सप्लाई रोक सकती है भारतीय नौसेना

1962 की जंग तो महज जमीन पर लड़ी गई थी. लेकिन इस बार समुद्र में भी चीन को कड़ी टक्कर मिलेगी. हिंद महासागर में भारत की मजबूत स्थिति चीन के लिए मुश्किल पैदा करेगी. भारतीय नौ सेना बड़ी आसानी के यूरोप, मध्यपूर्व और अफ्रीका के साथ चीन के रास्ते की नाकेबंदी कर सकती है.

चीन अपनी जरूरत का 87 फीसदी कच्चा तेल इसी रास्ते से आयात करता है. विमान वाहत पोत आईएनएस विक्रमादित्य की अगुआई में भारतीय नौसेना की इस नाकेबंदी को तोड़ना चीन के लिए बहुत मुश्किल साबित होगा. चीन अपनी मिसाइलों से भारत के शहरों को तो तबाह कर सकता है लेकिन भारतीय नौसेना की यह नाकेबंदी उसके लिए नासूर बन जाएगी.

ऐसा नहीं है कि चीन को यह स्थितियां पता न हों. लेकिन इसके बावजूद वह 1962 की भारत की हार का मनोवैज्ञानिक डर खड़ा करके अपनी बात मनवाना चाहता है. डर पैदा करना चीन की बहुत बड़ी रणनीति है. साल 1979 के वियतनाम युद्ध के बाद चीन ने अब तक कोई जंग नहीं लड़ी है.

चीन ने अपने पड़ोसियों को डर दिखाकर ही आधे से ज्यादा साउथ चाइना सी के इलाकों पर कब्जा कर लिया है. भारतीय फौज 1962 में मिली हार के बाद तीन जंग लड़कर जीत चुकी है. और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की ‘मेहरबानी’  से हर वक्त जंग के लिए तैयार रहती है.

चीन से जंग के लिए भी भारतीय फौज तैयार है. भारत के राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व के बयानों से साफ है कि अब भारत ने चीन के खिलाफ डर का चोला उतार फेंका है. डर के आगे ही जीत है.