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इमरान खान पाकिस्तान के 'नरेंद्र मोदी' बनना चाहते हैं, लेकिन क्या फौज उन्हें अवाम के लिए 'अच्छे दिन' लाने देगी?

इमरान खान के पास अपना आत्मसम्मान बचाने का एक ही तरीका होगा कि वो फौज से भी लड़ लें और एक हारी हुई लड़ाई जीतने की उम्मीद करते रहें. लेकिन इमरान फौज से लड़ने की गलती नहीं करेंगे

Srinivasa Prasad

नरेंद्र मोदी से इमरान खान की मुलाकात दिल्ली में 11 दिसंबर, 2015 को हुई थी. मिलने के बाद इमरान खान ने कहा था, 'मैं बहुत सारे प्रधानमंत्रियों और बड़े नेताओं से मिल चुका हूं, लेकिन नरेंद्र मोदी के साथ मेरा मिलना और बातचीत जितनी सहज रही, शायद ही किसी और के साथ मैंने इतना सहज महसूस किया हो.'

निश्चित तौर पर यह साबित करने के लिए कि इमरान खान, नरेंद्र मोदी के गुपचुप प्रशंसक है, यह अकेला उदाहरण काफी नहीं है. लेकिन हाल के चुनावों में अपनी रैलियों में भ्रष्टाचार और विकास के जिन नारों के जरिए इमरान ने अपनी जीत पुख्ता की, वो नरेंद्र मोदी के ‘भ्रष्टाचार से आजादी’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के अभियान से काफी मिलता-जुलता है.


पाकिस्तान के घरेलू मसलों पर इमरान खान कर सकते हैं कुछ अलग 

इमरान की विदेश नीति से तो कोई उम्मीद रखना बेमानी है, क्योंकि पाक फौज के साए में उसे वैसी ही रहना है, जैसा इमरान से पहले के शासकों के समय रही है. लेकिन घरेलू मसलों पर इमरान खान कुछ अलग कर सकते हैं. अगर वो अपने चुनावी वादों में से एक चौथाई को लेकर भी गंभीर हैं, तो वो मोदी स्टाइल में ‘अच्छे दिन’ पर जरूर जोर डालेंगे.

लेकिन इमरान खान चाहे जितनी कोशिश कर लें, वो नरेंद्र मोदी नहीं बन सकते. मोदी की तरह इमरान ने भी अपनी साफ छवि बनाए रखी है और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक का सफर तय करने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके से चले भी हैं. जिस तरह, 2014 में भारत में लोगों ने नरेंद्र मोदी में अपनी उम्मीदें देखीं थीं, पाकिस्तानी आवाम ने भी लाहौर के इस पख्तून से कुछ करने की वैसी ही उम्मीदें पाल रखी हैं. लेकिन बस यहीं दोनों नेताओं की तुलना खत्म हो जाती है.

इमरान खान ने भी नरेंद्र मोदी की तरह अपने चुनावी कैंपेन में पाकिस्तान के लोगों को 'अच्छे दिन' का भरोसा दिया है

मोदी की तरह इमरान खान ने कभी रेलवे स्टेशन पर चाय नहीं बेची. जमीन से जुड़े नहीं रहे. वो एक सिविल इंजीनियर पिता के बेटे थे और काफी धनी और रसूख वाले परिवार से थे. बेशक उनकी धन-दौलत पाकिस्तान के भ्रष्ट और ऐय्याश जनरलों और राजनेताओ की तुलना में कुछ न रही हो, उन्होंने ऐश-ओ-आराम का बचपन बिताया था और बाद में एक सफल क्रिकेट करियर भी मेहनत से संवारा. मोदी की तरह इमरान अपनी नीतियां नहीं बना सकते. उन्हें पाकिस्तानी फौज और चापलूस नौकरशाही के इशारों पर नाचना होगा. फौज उनसे उम्मीद करेगी कि वो कठपुतली बन कर वह सब करते रहें, जो फौज चाहती है. बैले से लेकर फॉक्सट्रॉट तक, हर तरह का डांस करें, जरूरत पड़े तो जमीन पर रेंगें, बंगी जंपिंग करें, गाना गाएं या जोर-जोर से चिल्लाएं. यानी जो फौज चाहे, वो करते जाएं.

इमरान फौज से लड़ने की गलती नहीं करेंगे, ऐसे मौकों को वो नजरंदाज करेंगे

लेकिन सच बात यह है कि 1992 का क्रिकेट विश्व कप जीतने वाला यह हीरो ऐसा कोई काम नहीं करेगा. आखिरकार तूरा (पख्तून भाषा में बहादुरी), ‘पख्तूनवाली संहिता’ का एक अहम हिस्सा है. अहंकारी और अपनी तारीफ सुनने के आदी इमरान खान के लिए यह सब कर पाना बहुत कठिन होगा. अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए एक ही तरीका उनके पास होगा कि फौज से भी लड़ लें और एक हारी हुई लड़ाई जीतने की उम्मीद करते रहें. लेकिन इमरान फौज से लड़ने की गलती नहीं करेंगे, ऐसे मौकों को नजरंदाज करेंगे और बाद में दावा भी करेंगे कि वो लड़ाई हारे नहीं हैं. वो देश की सुरक्षा और विदेश नीति पाकिस्तानी फौज के जिम्मे छोड़ देंगे और खुद देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे और कोशिश करेंगे कि पाकिस्तान को दिवालिया होने से बचा पाएं.

इमरान के लिए आर्थिक मसलों पर संकट से जूझना पहला काम होगा, जो आसान नहीं होगा. बदइंतजामी की वजह से पाकिस्तान कड़की के हालात से गुजर रहा है. हालात तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से और खराब हो चले हैं. नए प्रधानमंत्री का सबसे पहला काम होगा कि वो किसी भी तरह आईएमएफ यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद से 10 से 15 बिलियन डॉलर के कर्ज माफ करवा पाएं. पाकिस्तान की कर्ज माफी का, 1980 के बाद से यह 13वां मौका होगा और सबसे बड़ा भी. हालांकि आईएमएफ की ओर से मदद कुछ शर्तों के साथ ही आएगी. हिसाब-किताब की जिस इस्लामी परंपरा की इमरान वकालत करते रहे हैं, कर्ज माफी का यह तरीका निश्चित तौर पर उस के खिलाफ तो होगा ही, यह इमरान खान को भारत और अमरीका के प्रति अपना रुख नरम करने पर भी मजबूर करेगा.

कहा जा रहा है कि इमरान के चुनाव जीतने के पीछे उन्हें पाकिस्तानी आर्मी का अघोषित तौर पर समर्थन मिलना है

चीन कुछ हद तक इसमें पाकिस्तान की मदद करेगा, हालांकि पाकिस्तान की मुसीबतों की एक वजह, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का आर्थिक विस्तारवाद भी है. इस्लामाबाद अब तक सीपीईसी यानी चीन-पाक आर्थिक गलियारे के लिए चीन से लगातार कर्ज लेता रहा है. लंबी अवधि में पाकिस्तान को अब सीपीईसी के फायदे चाहे जितने बड़े मिलें, इससे देश की आर्थिक हालत तो और खराब ही हुई है, भुगतान-संतुलन और बिगड़ा है. पिछले 2 साल में पाकिस्तान की विदेशी मुद्रा का रिजर्व आधा खाली होकर सिर्फ 10 बिलियन डॉलर रह गया है. विदेशी मुद्रा की देनदारियों को भी अगर ध्यान में रखें, तो यह भुगतान संतुलन माइनस 724 मिलियन डॉलर तक चला जाता है. जाहिर है आर्थिक पाकिस्तान के आर्थिक हालात बहुत जर्जर हैं.

भ्रष्टाचार से लड़ाई सिर्फ एक कल्पना है

फौज इमरान खान को आर्थिक मसलों पर छूट लाने के लिए तो इजाजत दे देगी, लेकिन क्या पाकिस्तानी जनरल उन्हें भ्रष्टाचार खत्म करने देंगे? यह एक और मसला है, जहां इमरान खान, नरेंद्र मोदी नहीं हो सकते. वो भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद तो छेड़ सकते हैं, जितना मुमकिन हो गला फाड़ कर भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर सकते हैं, लेकिन सिर्फ तभी तक, जब तक उस फौज को कोई परेशानी न हो, जिसके ऐय्याश जनरल आकंठ (गले तक) भ्रष्टाचार में डूबे हैं.

अगर 25 जुलाई को हुए चुनावों में धांधली हुई भी हो, तो इमरान खान की रैलियों में आई भीड़ साबित करती है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के उनके मुद्दे पर उन्हें पाकिस्तान के लोगों का समर्थन प्राप्त है. वहीं पाकिस्तान की व्यवस्था में जो लोग जिम्मेदार हैं, वो नहीं चाहेंगे कि मुल्क की सफाई की कोशिशों के खिलाफ जाएं, साथ ही नए प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान खान भी नहीं चाहेंगे कि लोग कहें कि उन्होंने भ्रष्टाचार खत्म करने की कोशिश ही नहीं की.

इमरान अगर आर्थिक संकटों से देश को निकाल पाए, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ छोटे-मोटे स्तर पर लड़ाई से कुछ समय के लिए आम पाकिस्तानी बेहतर महसूस कर सकता है. लेकिन एक ऐसे कपटी देश में, जो भारत में आतंक और नफरत फैलाने पर ही अपना अस्तित्व बनाए रखता हो, क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ छोटी-मोटी लड़ाई से ‘अच्छे दिन’ लाए जा सकते हैं? यह कुछ वैसा ही होगा जैसे कैंसर के इलाज के लिए बैंड एड लगा लिया जाए. इसके लिए पाकिस्तान को अपने आर्थिक क्षेत्र में ढांचागत बदलाव करने होंगे तभी आर्थिक बदहाली ठीक की जा सकती है, मुल्क की उस शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना होगा, जहां फिलहाल कट्टरपंथी पैदा करने के लिए स्कूलों को मदरसों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है.

पाकिस्तान की पूर्व सरकारों पर देश में भ्रष्टाचार में शामिल रहने के आरोप लगते रहे हैं

तिलक देवाशर ने 2016 में छपी अपनी किताब ‘पाकिस्तान-कोर्टिंग विद अबीस’ में लिखा है, 'पाकिस्तान के आर्थिक हालात, पानी से जुड़े मुद्दे, शिक्षा और आबादी, सब मिलकर कोशिश करेंगे कि पाकिस्तान को जल्दी से जल्दी नर्क में ले जाएं.'

फौज नहीं चाहती पाकिस्तान खुशहाल और पढ़ा-लिखा देश हो

और यही तो पाकिस्तान के हुक्मरान चाहते हैं. एक खुशहाल, पढ़ा-लिखा और आधुनिक पाकिस्तान उनके किस काम का? अगर ऐसा पाकिस्तान बन भी गया तो आतंक के लिए माकूल माहौल कहां से लाएंगे, जो वहां की सेना के लिए ईंधन का काम करता है. यहां तक कि अगर इमरान खान सचमुच पाकिस्तान को रसातल में जाने से रोकना चाहें, खुद को सिर्फ घरेलू समस्याएं सुलझाने तक सीमित रखना चाहें, यानी सिर्फ एक गृह मंत्री की हैसियत से काम करना चाहें, तो भी उनके हाथ हमेशा बंधे ही होंगे.

इसलिए भी इमरान खान नरेंद्र मोदी नहीं बन सकते.