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भारत को पाकिस्तान न बनने की हिदायत देने वाली मशहूर पाकिस्तानी शायर फ़हमीदा रियाज नहीं रही

पाकिस्तानी होने के बावजूद फ़हमीदा भारत को कभी पाकिस्तान जैसा बनते हुए नहीं देखना चाहती थीं

Kumari Prerna

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहाँ छुपे थे भाई?

वो मूर्खता, वो घामड़पन,


जिसमें हमने सदी गंवाई ,आख़िर पहुंची द्वार तुम्हारे, 

अरे बधाई, बहुत बधाई!

ये बधाई भारत को पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़हमीदा रियाज़ ने दी थी. बधाई! भारत को भारत ना बने रहने पर, पाकिस्तान की राह पर चलने पर, पाकिस्तान जैसा बनने पर.

फ़हमीदा रियाज के तेवर कुछ ऐसे ही थे. अपने इसी तेवर और लेखनी के लिए पाकिस्तान से लेकर भारत, और कई अन्य मुल्कों में मशहूर रियाज़ अब इस दुनिया में नहीं रही. आज यानी गुरुवार को लंबी बीमारी के बाद लाहौर में उनका इंतकाल हो गया. 'द डॉन' में छपी खबर अनुसार लाहौर के अस्कारी 1 इलाके में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.

पाकिस्तानी होने के बावजूद फ़हमीदा भारत को कभी पाकिस्तान जैसा बनते हुए नहीं देखना चाहती थीं. भारत में बहुत मशहूर हुई रियाज की यह कविता,'तुम हम जैसे ही निकले' में वो भारत से ही संवाद कर रही हैं. वो लिखती हैं,

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहाँ छुपे थे भाई?

वो मूर्खता, वो घामड़पन, जिसमें हमने सदी गँवाई, आख़िर पहुँची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई!

'प्रेत धरम का नाच रहा है क़ायम हिंदू राज करोगे? सारे उल्टे काज करोगे? अपना चमन ताराज करोगे?

तुम भी बैठ करोगे सोचा, पूरी है वैसी तैयारी, कौन है हिंदू कौन नहीं है, तुम भी करोगे फ़तवे जारी होगा कठिन यहाँ भी जीना, दाँतों आ जाएगा पसीना'

जब पाकिस्तान छोड़कर 7 सालों तक भारत में रहीं फ़हमीदा

रियाज का जन्म 28 जुलाई, 1946 को यूपी के मेरठ में हुआ था. साहित्य में रुचि और उदारवादी सोच रखने के कारण रियाज को अपने ही देश में कई विरोधों का सामना करना पड़ा. एक समय तो उनकी लेखनी और राजनीतिक विचारों के कारण उन पर 10 से ज्यादा केस चलाए गए.

यही वो समय था जब पंजाब की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कह कर उनके रहने की व्यवस्था भारत में करवाई थीं.

इस दौरान फ़हमीदा करीब सात सालों तक भारत में रहीं. दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में रहकर हिंदी पढ़ना सीखा और फिर जब अपने देश पाकिस्तान वापस लौटीं तो बेनजीर भुट्टो की सरकार में सांस्कृतिक मंत्रालय से जुड़ गईं. बाद में साल 2009 में वह उर्दू डिक्शनरी बोर्ड ऑफ कराची की एडिटर बनाई गईं.

एक साहित्यकार, उदारवादी होने के साथ ही साथ फहमीदा मानवाधिकार कार्यकर्ता भी थीं. उन्होंने कविता और कहानियों की 15 से अधिक किताबें लिखीं. उनकी पहली किताब 'पत्थर की ज़बान' 1967 में प्रकाशित हुई थी. उनकी कविता संग्रह में 'धूप', 'पूरा चांद', 'आदमी की जिंदगी' और कई अन्य शामिल हैं. वहीं उनके उपन्यासों में 'जिंदा बहार','गोदावरी' और 'कराची' मौजूद हैं. फ़हमीदा की लेखनी को किसी खास श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता. उनकी लेखनी की खूबसूरती ही यही थी कि वो परंपरागत कविताओं से लेकर क्रांतिकारी कविताएं तक लिख सकती थीं.

जब 1973 में उनकी कविता 'बदन दरीदा' प्रकाशित हुई तो उनपर कविता में वासना और अश्लीलता के इस्तेमाल का आरोप लगाया गया. कहा जा सकता है कि ये आरोप ठीक वैसे ही थे, जैसे 1942 में पाकिस्तान की दूसरी मशहूर लेखिका 'इस्मत चुगताई' पर लगी थी. इस्मत की कहानी 'लिहाफ़' पर भी ऐसी ही अश्लीलता और वासना के आरोप लगाए गए थे.

आखिर पाकिस्तानी फहमीदा को भारत से क्यों कहना पड़ा- 'तुम हम जैसे ही निकले'

माना जाता है कि भारत में बीते कुछ सालों से बढ़ रही धार्मिक कट्टरपंथ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने फहमीदा को यह लिखने पर मजबूर कर दिया, उनकी इस कविता की अंतिम पंक्तियां-

तुम भी बैठ करोगे सोचा, पूरी है वैसी तैयारी कौन है हिंदू कौन नहीं है,

तुम भी करोगे फ़तवे जारी, होगा कठिन यहाँ भी जीना, दाँतों आ जाएगा पसीना

जैसी तैसी कटा करेगी, वहाँ भी सबकी सांस घुटेगी ,

भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा, अब जाहिलपन के गुण गाना,

आगे गड्ढा है मत देखो, वापस लाओ गया ज़माना ,

मश्क़ करो तुम आ जाएगा, उलटे पाँव चलते जाना ध्यान न दूजा मन में आए, बस पीछे ही नज़र जमाना

एक जाप सा करते जाओ, बारमबार यही दोहराओ कैसा वीर महान था भारत, कितना आलीशान था भारत

फिर तुम लोग पहुँच जाओगे, बस परलोक पहुँच जाओगे हम तो हैं पहले से वहाँ पर, तुम भी समय निकालते रहना अब जिस नर्क में जाओ वहाँ से चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना