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महज एक चुनाव नतीजे मालदीव की किस्मत संवारने के लिए नाकाफी

यामीन की हार एक अवसर प्रदान करती है, लेकिन गुटबाजी और अलग-अलग धड़ो में मौजूद मालदीव के विपक्ष को अब अपना प्रदर्शन दिखाने की जरूरत है.

Praveen Swami

सबसे पहले मालदीव की राजधानी माले की सड़कों पर मौजूद ताड़ के पेड़ गायब हुए. दरअसल, यहां बुरे दौर को दूर भगाने के लिए इन पेड़ों को काटा गया, जिसके तने और धड़ काफी बढ़ गए थे और जो इस द्वीप की मंद और उष्णकटिबंधीय आबोहवा में फैल गए थे. इसके बाद बच्चों के पार्क में मौजूद पिंजरे में बंद विशालकाय मगरमच्छ का वध करने के लिए उसे वहां से बाहर निकाला गया. आइस स्केटिंग रिंक (बिल्डिंग के भीतर बर्फ का मैदान) बनाने के लिए शहर की 200 साल पुरानी मस्जिद को अपनी पुरानी जगह से हटा दिया गया. कब्रिस्तानों में अंडे और नारियल गड़े हुए पाए गए. चूजों को काटा गया.

जादू-टोने के तहत की गई बेसिर-पैर की हरकतें का सिफर नतीजा


मुमकिन है कि आपको इस तरह की बातें बेसिर-पैर की लगें, लेकिन इस द्वीप समूह में सबको पता था कि इन गतिविधियों का क्या मतलब हैः दरअसल इसके तहत सिहुरु यानी शैतानी आत्माओं को जगाने की कला को अंजाम दिया जा रहा था. सिहुरु आधिकारिक रूप से स्वीकृत जादू-टोने की प्रणाली फंदिता का ही एक अलग और छोटा स्वरूप है. फंदिता के तहत जादू-टोने के संबंध में काम करने के लिए सरकार की तरफ से लाइसेंस जारी किया जाता है.

दावा किया जाता है कि इन जादू-टोनों की कला के जरिये काला जादू मामलों के श्रीलकाई विशेषज्ञ असेला विक्रमसिंघे ने अपने मालिक और मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की सत्ता बचाए रखी. विक्रमसिंघे खुद इस तरह का दावा करते हैं. उन्होंने कभी अपने इस काम के बारे में शेखी बघारते हुए कहा था, 'यामीन के विरोधियों की ताकत को खत्म करने और उनके पक्ष के लोगों की जीत के लिए शैतान को बुलाया था. इसके नतीजे देखिए. यही इसके प्रभाव का सबूत है.'

मालदीव में चुनाव प्रचार के दौरान सड़क किनारे लगी अब्दुल्ला यामीन की एक तस्वीर

अब मालदीव में हुए चुनावों में यामीन की करारी हार की खबर आ गई है. हालांकि, यामीन ने इस चुनाव में गड़बड़ी करने की हरमुमकिन कोशिश की. इस हार के साथ ही यह साफ है कि जादू-टोना और इस तरह की तमाम कवायदें यामीन को जनता को नाराजगी से बचाने की दिशा में बिल्कुल भी कारगर नहीं साबित हुईं. दरअसल, मालदीव में लोगों का यह गुस्सा विपक्षी पार्टियों और नेताओं के हिंसात्मक दमन के परिणामस्वरूप उपजा था. इसके अलावा, यहां भ्रष्टाचार भी चरम पर पहुंच गया था. भ्रष्टाचार की व्यापकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार द्वारा देश के तमाम संसाधनों को औने-पौने दाम में बेचने का सिलसिला शुरू हो गया था.

चुनाव नतीजों में यामीन की हार पर ब्रिटेन और अमेरिका जैसे प्रमुख देशों के अलावा भारत ने भी खुलकर प्रतिक्रिया दी है. भारत समेत इन देशों ने मालदीव के इस चुनावी नतीजों को राहत की बात कहा है. दरअसल, मालदीव के निवर्तमान निजाम ने चीन के लिए अभूतपूर्व गुंजाइश बनाकर अपने के लिए वैधता हासिल करने का प्रयास किया था.

हालांकि, कहानी अभी खत्म नहीं हुई हैः यामीन के जुल्मी शासन ने इस द्वीप समूह को दीर्घकालिक नुकसान पहुंचाया है. उन्होंने इस देश में जिहादी गतिविधियों को फैलाने की इजाजत दी और इसके राजनीतिक माहौल और संस्कृति का सत्यानाश कर दिया.

जिहादियों की बढ़ती ताकत

साल 2016 की सर्दियों में अली शफीक नाम का शख्स हिंद महासागर में मौजूद छोटे से द्वीप कंधोलहुद्धू स्थित अपने घर से रवाना हुआ था. इस शख्स ने अपने परिवार और पड़ोसियों को बताया कि वह 'छुट्टियां मनाने' जा रहा है. शफीक को कुछ दिनों के बाद इस्तांबुल में मौजूद इस्लामिक स्टेट द्वारा संचालित घर से गिरफ्तार किया गया. दरअसल यह शख्स खुद को सीरिया भेजे जाने का इंतजार कर रहा था. अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की तरफ से मुहैया कराई सूचना के मुताबिक, शफीक का इरादा मालदीव के उन 250 नागरिकों की तरह खुद को उस सूची में खुद को शामिल करना था, जो अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट (आईएस) के साथ मिलकर लड़ रहे थे.

हालांकि, शफीक की गतिविधियों के बारे में अभियोजन पक्ष द्वारा ठोस सबूत नहीं पेश किए जाने के कारण इस साल गर्मी में इस शख्स को जेल से रिहा कर दिया गया. दरअसल, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा इस बारे में तुर्की से सूचना नहीं मांगने का फैसला करने के कारण उसे मामले में असफलता हाथ लगी. दिलचस्प तथ्य यह है कि शफीक की गिरफ्तारी और उसके बाद जेल से छूटने का उसका यह तीसरा मामला है. साल 2007 में इस शख्स को माले के सु्ल्तान पार्क में पर्यटकों पर बमबारी में कथित भूमिका के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. हालांकि, राजनीतिक समझौते संबंधी प्रयासों के मद्देनजर शफीक को छोड़ दिया गया. दो साल बाद अफगानिस्तान सीमा पर पकड़े जाने के बाद उसे पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा सौंपा गया.

यामीन की सरकार के आलोचकों का आरोप है कि उन्होंने शफीक जैसे जिहादियों के खिलाफ नरम रवैया अपनाया और उनका इस्तेमाल अपनी मजहबी विश्वसनीयता को बढ़ाने और आलोचकों को चुप कराने में किया. मसलन पत्रकार यामीन रशीद की हत्या में जिहादियों और सरकार का हाथ होने की आशंका जताई जाती है. जिहादियों की हरकतों पर आंख मूंद लेने का खेल पुराना है, लेकिन यामीन इसे नई ऊंचाई तक ले गए. मालदीव के एक अखबार के मुताबिक, सीरिया में लड़ते हुए अपनी तस्वीर ऑनलाइन पोस्ट करने वाला जिहादी फिर से अपने देश में लौटकर बेफिक्र रह रहा है. यह शख्स अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर जिहाद के लिए लड़ने के मकसद से सीरिया चला गया था.

मालदीव के एक और नागरिक अली अशम के तार बेंगलुरु में मौजूद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर हमले में शामिल आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के नेटवर्क से जुड़े थे. इस शख्स पर इस हमले में शामिल होने का आरोप था. 2008 में अली को श्रीलंका से बाहर निकालकर कर मालदीव भेज दिया गया। भारत की मांग के बावजूद उस पर कभी कार्रवाई नहीं की गई और अब वह माले में रहता है. अली जलील 2008 में आत्मघाती बम हमले को अंजाम देने वाला मालदीव का पहला नागरिक था. दो साल पहले उसे कुछ समय के लिए जेल में रहना पड़ा, लेकिन कुछ हफ्तों के भीतर ही वह जेल से छूट गया.

गैंग, गांजा और गॉड

साबा शैफाजी बताती हैं कि उनके बेटे का एक सपना था, जिसमें वह खुद को लड़ाई में पैगंबर के साथ देखता था. अचानक से 2008 की एक सुबह को उनका बेटा हसन सैफाजी उठा और उसने अपनी सभी म्यूजिक सीडी फेंक देने का फैसला किया. उसने फुटबॉल खेलना भी छोड़ दिया और अपने स्कूल के दोस्तों के साथ माले की सड़कों पर घूमना और गांजा पीना भी बंद कर दिया. उसका व्यवहार और नजरिया पूरी तरह से बदल चुका था. इन तमाम गतिविधियों की बजाय उसने मजहबी अध्ययनों में अपना समय देना शुरू किया और वह स्थानीय धर्म प्रचारकों के साथ ज्यादा समय गुजारने लगा था. हसन सैफीज 2015 में अल कायदा की सेना के साथ मिलकर जेरिको शहर में सीरियाई सुरक्षा बलों के खिलाफ लड़ते हुए मारा गया.

मालदीव के नए राष्ट्रपति चुने गए मोहम्मद सोलिह.

मालदीव में जिहाद के सिपाहियों की तरह-तरह की कहानियां हैं और इनमें धार्मिक रुझानों वाले शख्स से लेकर स्थानीय गैंगों में सक्रिय रहने वाले तक शामिल रहे हैं. कई मोहल्लों की गैंगबाजी के बाद इसमें शामिल हुए, कइयों ने जेल में इस्लाम को ढूंढा. दिलचस्प बात यह है कि इन्हें कट्टरपंथी मौलानाओं द्वारा दीक्षा दी जाती है और सरकार भी इस मामले में संरक्षक की भूमिका निभाती है. हालांकि, इस साल जून में सरकार ने कुछ लोगों को लड़ाई के लिए सीरिया जाने से रोक दिया. जाहिर तौर पर ये लोग जिहाद के मकसद के लिए वहां जा रहे थे.

अगर माले शहर के तमाम गैंगों को इकट्ठा कर बात की जाए तो इराक और सीरिया में जिहाद के लिए लड़ रहे लड़ाकों में इन गैंगो से जुड़े 100 भी ज्यादा लोग शामिल हैं. इन गैंगों में मसोदी, कुदाहेमवेरू, बोस्निया, बुरु और पेत्रेल प्रमुख हैं. माना जाता है कि इनके कई सदस्य इराक और सीरिया में जिहादी गतिविधियों में सक्रिय हैं. जेल के भीतर एडम शमीन का ऑडेसी ऑफ दवा, इब्राहिम फरीद का इस्लामिक फाउंडेशन, जमात-उल-बयान और जमात-उल-सलफ जैसे मजहबी प्रचारक समूह बेहद सक्रिय हैं.

मालदीव से जुड़े एक द्वीप का निवासी अहमद मुंसिफ 2016 में मारा गया था और उस पर ड्रग से संबंधित कई मामले थे. यह शख्स 2012 में एक पुलिस अधिकारी पर हमला करने के प्रयास के मामले में भी जेल जा चुका था. हालांकि, मौलानाओं की संगत में रहने के बाद उसका रुझान बदल गया. अक्टूबर 2014 में वह अपनी पत्नी सुमा अली के साथ इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के लिए रवाना हो गया.

मालदीव लंबे समय से पूरे हिंद महासागर से जुड़े इलाकों में व्यापार के लिए संपर्क का अहम ठिकाना रहा है. यहां की संस्कृति में निजी स्वतंत्रताओं को लेकर अपेक्षाकृत उदारवादी रवैया है.14वीं सदी में मशहूर घुमंतू और मौलाना मुहम्मद इब्न बतूता ने यहां की स्थानीय महिला द्वारा खुद को चेहरा समेत पूरी तरह से ढंकने से मना करने पर अपनी निराशा और असफलता को बयां किया है.

उन्होंने लिखा है, 'मैंने इस चलन को बंद करने के लिए हरमुमकिन कोशिश की और महिलाओ को अलग तरह के कपड़े पहनने के लिए कहा. हालांकि, तमाम प्रयासों के बावजूद मैं ऐसा नहीं करवा सका.' मालदीव में इस्लामी कट्टरता में बढ़ोतरी 2004 के बाद से शुरू हुई. 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी में सैकड़ों लोगों की जानें गई थीं और इसने यहां के लोगों को बर्बाद कर दिया.

मालदीव से जुड़े जानकार एशथ वेलेजिनी के मुताबिक, 'इस आपदा के कुछ समय बाद पुरुषों ने दाढ़ी और बाल बढ़ाना शुरू कर दिया, लंबा चोंगा और पाजामा पहनने लगे और अपने सर को अरब स्टाइल के कपड़ों से ढंकने लगे. महिलाओं ने खुद को ढंकने के लिए काले बुर्के का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. बकरियों का आयात किया जाने लगा और मछुआरे अपना परंपरागत काम छोड़कर गरेड़िया बनने लगे.'

जिहादियों और सरकार के कोपभाजन का शिकार बने मरहूम पत्रकार और विश्लेषक यामीन रशीद ने कहा था, 'धर्म प्रचारक ने इस द्वीप समूह का दौरा करना शुरू कर दिया और उनके साथ पाकिस्तानी और मध्य पूर्व के देशों से इस्लाम के लिए काम करने संस्थाएं भी आई थीं.'

उनके मुताबिक, 'इन धर्म प्रचारकों और इस्लाम के लिए काम करने वाली संस्थाओं का संदेश साफ थाः 'मालदीव के लोग अपने पापों की सजा भुगत रहे हैं और अल्लाह के प्रकोप से बचने की खातिर उन्हें जरूर प्रायश्चित करना चाहिए.'

नफरत की संस्कृति

मालदीव की सरकार ने कई तरह से जिहादी उन्माद के लिए बुनियाद तैयार की. यहां के सरकारी पाठ्य पुस्तक हिंसा को बढ़ावा देते हैं. नौवीं क्लास के लिए इस्लामी अध्ययन से जुड़ी किताब में छात्र-छात्राओं को 'धर्म में बाधा पहुंचाने वाले लोगों के खिलाफ जिहाद' करने को एक तरह का उत्तरदायित्व बताया गया है. इसमें कहा गया है कि 'पूरी दुनिया में इस्लाम का शासन स्थापित होने का वक्त करीब' आ गया है. पाठ्य पुस्तक में खलीफा शासन लाने का आश्वासन दिया गया है. इसमें कहा गया है, 'यहूदी और ईसाई समुदाय के लोग ऐसा नहीं चाहते हैं. यही वजह है कि वे अभी भी इस्लाम के खिलाफ मिलकर काम करते हैं.'

2012 के शुरू में जिहादी सैफाजी भी राष्ट्रीय संग्रहालय पर हमला करने वाली भीड़ में शामिल था. धरमवंथु मस्जिद से निकलकर आगे बढ़ी इस भीड़ ने बुद्ध की बेशकीमती प्राचीन प्रतिमा का सिर तोड़ दिया. दरअसल, 1959 में जब पुरातत्वविदों को यह मूर्ति मिली थी, तो थोडू द्वीप के गांव वालों ने इसे शैतानी प्रतीक मानते हुए अपशकुन के डर से तुरंत इस मूर्ति पर हमला कर दिया था. इस हमले में सिर्फ इस प्राचीन मूर्ति का सिर ही बचा था.

हालात शायद काफी खराब हैं. देश में कलाओं और यहां तक कि इस मुल्क की अपनी विरासत पर नियमित हमले देखने को मिल रहे हैं. हाल में एक होटल को अपने यहां मौजूद पानी के भीतर रखी गई मूर्ति को इस आधार पर हटाना पड़ा कि इससे मूर्ति पूजा को बढ़ावा मिल रहा था. हालांकि, इस पर ऑनलाइन की दुनिया में तत्काल प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं और लोगों ने तंज कसा कि राष्ट्रपति यामीन के बिलबोर्ड के मामले में यह चिंता शायद लागू नहीं होती है.

लोकतंत्र की बेहतरी और इस प्रणाली को वैधता प्रदान करने के लिए रोजगार और आर्थिक अवसर सुनिश्चित करने के अलावा पारदर्शी सरकार की मौजूदगी बेहद अहम है. साथ ही, आक्रोशित और वंचित युवाओं को इस्लामी कट्टरपंथ से भी दूर रखना जरूरी है. मालदीव के राष्ट्रपति रहे मोहम्मद नशीद की सरकार ने 2008 से 2012 के दौरान इस दिशा में कुछ प्रयास किया, लेकिन धार्मिक कट्टरता का रुख पलटने में असफल साबित हुई.

मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद. (इमेज- रॉयटर्स)

2013 से 2018 के दौरान यामीन ने इसके ठीक उलट काम किया. सत्ता की चाह में उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथियों को संरक्षण दिया. इसके अलावा, यह भी संकेत दिया कि वह अपनी परियोजनाओं पर काम के लिए चीन से डॉलर उपलब्ध करवा सकते हैं. यामीन की हार एक अवसर प्रदान करती है, लेकिन गुटबाजी और अलग-अलग धड़ो में मौजूद मालदीव के विपक्ष को अब अपना प्रदर्शन दिखाने की जरूरत है. भारत और उसके सहयोगियों को यह समझने की जरूरत है कि सिर्फ एक चुनाव से मालदीव उस खाई से उबरने में सक्षम नहीं होगा, जहां उसे यामीन ने पहुंचा दिया है.