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डोनाल्ड ट्रंप को भारतीय दिल से नहीं दिमाग से देखें

ट्रंप भले ही अमेरिका की दिक्कत हों, लेकिन वह हमारे लिए एक मौका हैं.

Sreemoy Talukdar

कई मसलों पर भारतीय मीडिया को अपने अमेरिकी दोस्तों की तर्ज पर चलने की आदत रही है. और जब बात डोनाल्ड ट्रंप की आती है तो यह असर कई गुना ज्यादा दिखाई देता है.

ट्रंपफोबिया बेच रहे भारतीय मीडिया और लिबरल्स


अमेरिकी मीडिया ने अपने 45वें राष्ट्रपति के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है. ऐसे में ट्रंप के खिलाफ इतनी ही तल्खी भारतीय मीडिया में भी दिखाई दे रही है.

यह साफ नहीं है कि इस जंग में इन्हें किस चीज की फिक्र है, लेकिन भारतीय उदारवादियों ने लंबे चलने वाले लिटरेचल फेस्टिवल सेशंस में ट्रंप का स्वागत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. ट्रंप के आने से दुनिया तबाह हो जाएगी, इस डर को जमकर बेचा जा रहा है.

जब से 70 साल के ट्रंप ने अपने चुनावी वादों को एग्जिक्यूटिव ऑर्डर्स के जरिए अमलीजामा पहनाना शुरू किया है, भारतीय मीडिया में हाहाकार मचा हुआ है.

ट्रंप के आने से क्या कयामत आ जाएगी?

कयामत का दिन आने का हल्ला मचाया रहा है. इस पूरी कवायद में एक बार भी ट्रंप के राष्ट्रपति बनने का संदर्भ समझने की कोशिश नहीं की जा रही है. न ही किसी को यह फिक्र है कि क्या ट्रंप के आने से भारत और अमेरिका के बीच के संबंध किस दिशा में जाएंगे. फिलहाल वह जो कर रहे हैं उसका ज्यादातर जुड़ाव अमेरिका की स्थानीय राजनीति और नीतियों से है.

यह ट्रंप के वाइट हाउस में आने के बाद से उनके कदमों की आलोचना की बात नहीं है. ओबामाकेयर, रिफ्यूजी या इमीग्रेशन पॉलिसी एक अलग बहस का विषय हैं.

बतौर भारतीय हमारे लिए क्या है अहम?

भारतीय के तौर पर, हमारे लिए तत्काल सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि ट्रंप की नीतियों से हम पर कितना असर पड़ेगा. साथ ही, भारत के आने वाले वक्त में ट्रंप प्रशासन के साथ रिश्ते कैसे होंगे.

आपको भले ही इस बात में अचरज लगे, लेकिन देशों के बीच में रिश्ते उदारवादी सिद्धांतों या सामाजिक न्याय के आधार पर तय नहीं होते.

ट्रंप के मसले पर कुछ हद तक अमेरिकी लोगों के साथ खड़ा होना समझ में आता है. लेकिन, भारतीय लोगों के लिए दुखी होकर और हाथ में ‘ट्रंप मेरे राष्ट्रपति नहीं हैं’ की तख्तियां लेकर घूमना बेमतलब है.

न केवल इस वजह से क्योंकि हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी हैं, बल्कि इस वजह से भी कि दोनों देशों के बीच के संबंध आपसी हितों और माहौल पर टिके होते हैं. इन मोर्चों पर इंडिया कई देशों के मुकाबले ओवल ऑफिस के साथ बहुत बेहतर स्थिति में है.

भारत के लिए ट्रंप का आना शुभ संकेत

अगर हम ट्रंप के राष्ट्रपति बनने तक के सफर पर गहराई से नजर डालें, जिसमें उनके असाधारण लंबे चुनावी कैंपेन से लेकर इनकी कैबिनेट के शुरुआती संकेत शामिल हैं, तो उनका भारत को लेकर लगातार सकारात्मक नजरिया दिखाई देता है. साथ ही दोनों देशों की एक जैसी चिंताओं को लेकर उनकी गंभीरता भी साफ नजर आती है.

ट्रंप शुरू से ही इस बात पर कायम रहे हैं कि वह भारत के घनिष्ठ मित्र हैं. एक से अधिक मौके पर वह ‘निर्णायक नेतृत्व’ और लालफीताशाही खत्म करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ भी कर चुके हैं. इससे दोनों देशों के नेताओं के बीच अच्छे संबंध रहने का आधार तैयार हो चुका है.

भारत के दोस्त हैं ट्रंप

पिछले साल अक्टूबर में एक चैरिटी इवेंट में, ट्रंप ने खुद को ‘भारत का बड़ा फैन’ बताया था और वादा किया था कि वह खुफिया सूचनाओं की साझेदारी में और दोनों मुल्कों के लोगों को सुरक्षित रखने में भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेंगे.

चुनावी कैंपेन के चरम पर होने के दौरान एक रिपब्लिकन हिंदू सहयोगी के यहां उनका पहुंचना भी किसी से छिपा नहीं है.

पिछले साल अगस्त में मार्केट में आई किताब ‘हाउ वी कैन विन द ग्लोबल वार अगेंस्ट रैडिकल इस्लाम एंड इट्स एलाइज’ में लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) माइकल टी फ्लिन ने लिखा है, ‘पाकिस्तान जैसे देशों को बताने की जरूरत है कि हम तालिबान, हक्कानी और अल-कायदा जैसे संगठनों के उनकी जमीन पर चलने वाले ट्रेनिंग कैंपों को बर्दाश्त नहीं करेंगे. न ही हम उनकी बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों के जरिए आतंकी नेटवर्क चलाने के लिए पैसे का इस्तेमाल करने की इजाजत देंगे.’

ट्रंप प्रशासन में प्रो-इंडियंस अहम पदों पर

ट्रंप ने फ्लिन को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया है. इससे इस बात की उम्मीदें बढ़ी हैं कि अमेरिका फ्लिन की उस धमकी पर काम कर सकता है जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान के साथ सख्ती से निपटा जाएगा और अगर इस्लामाबाद अपने तौर-तरीके नहीं बदलता है तो उसके साथ रिश्ते खत्म कर लिए जाएंगे.

ट्रंप के एक और सहयोगी, अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने भी भारत के साथ मजबूत रिश्तों की जरूरत पर जोर दिया है. अमेरिकी सीनेट में अपने कनफर्मेशन प्रोसीजर में रिटायर्ड मरीन कॉर्प्स जनरल ने इंडो-यूएस संबंधों को सबसे महत्वपूर्ण बताया. उन्होंने दोनों देशों के बीच एशिया प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा और रक्षा में कहीं अधिक निकट, लॉन्ग-टर्म संबंधों की वकालत की.

मोदी-ट्रंप संवाद

ट्रंप की जीत के कुछ ही घंटों बाद मोदी ने ट्रंप से फोन पर बात की. हालांकि, यह एक बधाई देने की औपचारिका वाला फोन था, लेकिन बाद में ट्रंप ने यूरोपीय राष्ट्राध्यक्षों को फोन कॉल के वक्त बीजिंग, और यहां तक कि मॉस्को को भी छोड़कर मोदी को कॉल किया.

व्हाइट हाउस की एक रिलीज में कहा गया, ‘युनाइटेड स्टेट्स दुनिया में मौजूद चुनौतियों को हल करने में भारत को एक पक्का दोस्त और साझेदार मानता है.’ रिलीज में कहा गया, ‘दोनों नेताओं ने अर्थव्यवस्था और रक्षा जैसे मामलों में साझेदारी को मजबूत करने के मौकों पर चर्चा की.’

इस वक्तव्य में यह भी साफ किया गया कि अमेरिका और भारत आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जंग में कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े हैं. राष्ट्रपति ट्रंप इस साल के अंत में प्रधानमंत्री मोदी की अगवानी करने के लिए उत्सुक हैं.

नई वैश्विक व्यवस्था में भारत को पार्टनर बनाना चाहता है अमेरिका

अगर इस वक्तव्य को समझने की कोशिश की जाए, तो यह साफ नजर आता है कि ट्रंप प्रशासन भारत को एक चीन के खिलाफ एक प्राकृतिक प्रतिस्पर्धी मानता है.

चाइना के आर्थिक और सैन्य क्रियाकलापों से भारत और अमेरिका दोनों ही मुश्किल में हैं. ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से बाहर निकलने से यह संभावना बलवती हो रही है कि वॉशिंगटन अब कहीं ज्यादा भारत का सहारा लेना चाहता है और इस जरिए से एशिया में एक संतुलन पैदा करना चाहता है.

चाइनीज प्रेसिडेंट शी जिनपिंग दावोस में इस बात का पहले ही संकेत दे चुके हैं कि अगर अमेरिका कमजोर पड़ता है तो बीजिंग वैश्विक आर्थिक नेतृत्व लेने में पीछे नहीं हटेगा.

इंडो-यूएस रिश्तों में आपसी हित लाएंगे मजबूती

ब्यूरो ऑफ साउथ एंड सेंट्रल एशियन अफेयर्स के फॉर्मर यूएस डिप्टी असिस्टेंट सेक्रेटरी मनप्रीत आनंद ने सीएनबीसी से बातचीत में कहा कि ट्रंप एशिया में अमेरिका और भारत के सुरक्षा हितों को और मजबूत बना सकते हैं. उन्होंने कहा, ‘पिछले कई सालों में अलग-अलग प्रशासनों के उपायों और कांग्रेस के इसे सपोर्ट करने के साथ ही अमेरिका ने भारत के साथ रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में असाधारण कदम उठाए हैं. ट्रंप प्रशासन के पास इस बात का मौका है कि वह इन कोशिशों को और मजबूत करे क्योंकि दोनों के रणनीतिक हित लगातार एक जैसे बने हुए हैं.’

रूस का चीन की जकड़ से निकलना भारत के लिए फायदेमंद

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के साथ ही भारत को एक और बड़ा भूराजनैतिक फायदा हो सकता है. उम्मीद की जा रही है कि अमेरिका और रूस के संबंधों में सुधार हो सकता है, जो कि ओबामा के कार्यकाल में बेहद निचले स्तर पर पहुंच गए थे. अमेरिका और रूस के संबंध अगर सुधरते हैं तो इससे भारत को सीधा फायदा होगा.

ओबामा के शासन के दौरान रूस ने चीन-पाकिस्तान ध्रुव पर ज्यादा जोर दिया. इससे रूस के भारत के साथ लंबे वक्त के संबंध खतरे में पड़ गए थे.

हालांकि, इस बात की उम्मीद कम ही है कि अमेरिका और रूस के संबंधों में तत्काल कोई सुधार आएगा. लेकिन, यह तय है कि रूस में ब्लादिमीर पुतिन और अमेरिका में ट्रंप प्रशासन अब दोनों देशों के संबंधों को और नीचे नहीं जाने देंगे. साथ ही रूस को चीन के हाथ में जाने से भी रोका जाएगा.

एकमात्र चिंता एच1बी वीजा पर सख्ती

भारत के लिहाज से सबसे बड़ी चिंता यूएस इमीग्रेशन प्रोग्राम- एच1बी वीजा की है. केमिकल्स और फर्टिलाइजर्स मिनिस्टर अनंत कुमार के मुताबिक, ट्रंप की नीतियों से भारतीय आईटी और फार्मा इंडस्ट्री पर बुरा असर होने की कोई वजह नहीं है. उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री की पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ बात हो चुकी है. मुझे नहीं लगता कि वाणिज्य आधारित मसलों पर अमेरिका रुख में कोई बदलाव आएगा.’

इस बात का शुरुआती दवाब आईटी कंपनियों पर हो सकता है कि वे स्थानीय लोगों को नौकरियां दें. लेकिन, इंडियन टेक्नोलॉजी कंपनियों को अमेरिका में कारोबारी मौके कई गुना बढ़ जाएंगे. ओवरऑल नेट रिजल्ट पॉजिटिव ही रहेगा.

300 अरब डॉलर पर पहुंचेगा अमेरिका-भारत के बीच कारोबार

एक इंडियन-अमेरिकन रिपब्लिकन नेता ने सोमवार को कहा कि ट्रंप की बाय अमेरिकन और मोदी की मेक इन इंडिया पॉलिसी एक-दूसरे उलट नहीं हैं, बल्कि ये कहीं ज्यादा एक-दूसरे को मदद देने वाली साबित होंगी. इसे इस चीज से समझा जा सकता है कि ट्रंप चीन के साथ बढ़ते ट्रेड डेफिसिट (व्यापार घाटे) को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. इससे भारत और अमेरिका के बीच कारोबार बढ़ने की उम्मीद है.

ट्रंप फंड में बड़ा योगदान देने वाले शलभ कुमार को उम्मीद है कि दोनों देशों के बीच व्यापार 100 अरब डॉलर के मौजूदा स्तर से बढ़कर ट्रंप के कार्यकाल के अंत तक 300 अरब डॉलर के लेवल पर पहुंच जाएगा.

भारत के लिए अवसर हैं ट्रंप

निश्चित तौर पर नेतृत्व को बड़े सिद्धातों के आधार पर नहीं तौलना चाहिए और संबंध मुश्किल से ही तर्क के नियमों के आधार पर चलते हैं. लेकिन, इसमें कुछ अपवाद भी दिखाई देते हैं. स्थिर इंडो-यूएस संबंधों के लिए आपसी हितों को आधार माना जाए तो भारतीयों को ट्रंप को लेकर उत्साही होना चाहिए. ट्रंप भले ही अमेरिका की दिक्कत हों, लेकिन वह हमारे लिए एक मौका हैं.