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क्या मुस्लिम-वर्ल्ड आतंकवाद से लड़ सकता है?

पूरी दुनिया में चल रहे इस्लामिक आतंकवाद से लड़ाई में मुस्लिम देश खुद कितने सक्षम हैं

Nazim Naqvi

ये प्रश्न अनायास ही नहीं पैदा हुआ है लेकिन है बड़ा प्रश्न. क्या मुस्लिम-वर्ल्ड या अपने आपको इस्लामी देश कहने वाले, आतंकवाद से लड़ सकने का हौसला रखते हैं?

इस प्रश्न को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अपनी पहली मध्य-पूर्व यात्रा के संदर्भ में देखना, इसे और महत्वपूर्ण बनाता है. ट्रंप की सऊदी-यात्रा को पूरी दुनिया ने अपने-अपने चश्मे से देखा और उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं.


पकिस्तान के दैनिक समाचार-पात्र ‘डॉन’ के मुताबिक ट्रंप की इस यात्रा ने आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के कई खतरनाक विरोधाभासों को उजागर किया है.

‘डॉन’ का कहना है कि अगर आज दुनिया में किसी बात को लेकर एकता दिखाई देती है तो वो ये कि हर देश आतंकवादी खतरे का सामना कर रहा है.

ट्रंप पर निशाना

‘डॉन’ अमरिकी राष्ट्रपति की नीतियों का विश्लेषण करते हुए कहता है कि 'दरअसल, ट्रंप ने अपने प्रशासन की विदेश नीति के केंद्र में आईएसआई को कुचलने का जो लक्ष्य रखा है, वो अनजाने में ही सही, पर आतंकवादियों द्वारा किये जा रहे युद्ध की हिमायत करता नजर आता है.'

फिर अपनी राय देते हुए कहता है कि 'आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग का नेतृत्व मुस्लिम-दुनिया को ही करना चाहिए क्योंकि आतंकवाद सबसे पहले और सबसे ज्यादा खतरनाक खुद मुस्लिम देशों के लिए है. इसके बजाय कोई रणनीति जिसमें पश्चिम कि अगुआई हो, कभी कामयाब नहीं होगी बल्कि इसके उल्टे नतीजे मिलेंगे.'

आतंकवाद का सामना करने के लिए मुस्लिम-वर्ल्ड को सामने आना चाहिए इससे भला किसको इंकार हो सकता है लेकिन ‘जो हो रहा है’ और ‘जो होना चाहिए’ उसमें जमीन-आसमान का अंतर, ऐसी किसी भी राय को संदेहास्पद बना देता है. क्योंकि जब पश्चिमी-दुनिया पर कोई आतंकी हमला होगा, ब्रिटेन में जाकर कोई हमला कर देगा तो कोई उसे रोकने नहीं आएगा. कम से कम ऐसी कोई मिसाल अभी तक तो हमारे सामने नहीं है.

हालांकि ‘डॉन’ अपने संपादकीय में ये कुबूल करता है कि पश्चिमी देश, घरेलू-आतंकवाद की खतरनाक समस्या में उलझे हुए हैं जो उनके समाज का ताना-बाना ही नष्ट कर देना चाहती है.

हाल के दिनों में कई यूरोपीय देशों में हुई सीरियल तबाही हो या अमेरिका में 9/11 की याददाश्त, आतंकवाद के बारे में किसी भी अंतरराष्ट्रीय बातचीत में यही हमले केंद्र में रहते हैं.

पश्चिमी देशों पर हमले की ही होती है चर्चा

लेकिन ‘डॉन’ उस थ्योरी को नजरअंदाज कर देता है जिसमें इस विचार पर सहमति बनाने की कामयाब कोशिश कि गई कि 'दरअसल, 9/11 का हमला यहूदियों द्वारा किया गया था. और बात सिर्फ 9/11 की ही क्यों की जाय, जितने भी आतंकी हमले होते हैं, उनमें आमतौर पर यही समझा जाता है कि ये मुसलमानों को बदनाम करने के लिए यहूदियों की चालें हैं. मुस्लिम- भेस में, ये हमले अंजाम देते आये हैं.

अपने भारतीय माहौल की बात करें तो लेखक ने कई बार आतंकवाद और इस्लामी-नैतिकता के प्रश्न पर जब भी किसी मुस्लिम समुदाय के बीच बात छेड़ी तो हमेशा यही जवाब मिला कि नहीं, ये हमले मुसलमानों द्वारा अंजाम नहीं दिए जा रहे हैं बल्कि मुसलमानों को बदनाम करने की ये यहूदी और पश्चिमी चालें हैं. अब ऐसे वातावरण में कोई कैसे ये उम्मीद कर सकता है कि आतंकवाद से लड़ने कि अगुवाई मुस्लिम समाज से होगी.

किसी इस्लामी देश के, प्रतिष्ठित अखबार के, संपादकीय में ‘आतंकवाद से लड़ने के लिए मुस्लिम समाज के नेतृत्व का सुझाव’ सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन वो कोई ऐसी मिसाल देने से वंचित रह जाता है जहां किसी इस्लामी देश ने आतंकवाद पर काबू पाया हो या किसी पश्चिमी-देश को किसी हमले से बचाया हो.

अगर ऐसी कोई मिसाल नहीं है तो किस बुनियाद पर ये राय अमेरिका या दूसरे और देशों को दी जा सकती है. होना तो ये चाहिए था कि संपादकीय, मुस्लिम-समाज से ये अपील करता कि इससे पहले कि आतंकवाद को मिटाने के लिए पश्चिमी-देश आगे आएं और उसमें असफल हों, इस्लामी-देशों को खुद ये अगुवाई करनी चाहिए और आतंकवाद से लड़कर, सारी दुनिया को ये पैगाम देना चाहिए कि इस्लाम की तालीम में आतंकवाद के लिए कोई जगह नहीं है. ये भी कि मुस्लिम समुदाय आम-तौर पर अमन-पसंद समुदाय हैं.

संपादकीय ऐसी किसी अपील के बजाय, ट्रंप के कार्यकाल की अवधि (जो चार या आठ वर्ष तक ही सीमित है) का हवाला देकर, आतंकवादी-विचारधारा की सेल्फ-लाइफ से उसकी तुलना करते हुए कहता है ' ट्रंंप और उनके आडंबरों का कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी, मुस्लिम-दुनिया को तो उन बुराइयों से लड़ते ही रहना पड़ेगा जो उसके भीतर ही विद्यमान हैं'.

यानी संपादकीय ये मानता है कि मुस्लिम-समाज के अंदर जो बुराइयां समाई हुई हैं उनसे कोई पश्चिमी-देश कैसे और कब तक लड़ सकता है? और इन बुराइयों से छुटकारा पाने के लिए सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम-नेतृत्व की हिमायत करता है. लेकिन हैरत है कि वो सीधे तौर पर ये अपील मुस्लिम-वर्ल्ड से नहीं करता. सऊदी-अरब या ईरान से नहीं करता. उसे डोनाल्ड ट्रंप से ऐसी किसी सहायता की दरकार है, लेकिन क्यों?