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क्यों खामोश है पाकिस्तान? क्या रोहिंग्या मुसलमान नहीं?

चीन के बर्मा को समर्थन के बाद पाकिस्तान चीन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कैसे खड़ा रह पाएगा?

Nazim Naqvi

म्यांमार सरकार और उसकी सेना द्वारा रखाइन में हो रहे रोहिंग्या मुसलमानों पर उत्पीड़न के खिलाफ पाकिस्तान ने दुनिया की तमाम ताकतों से अपील की है कि वे म्यांमार पर इसे रोकने के लिए दबाव डालें.

लेकिन म्यांमार के शरणार्थी-संकट पर 13 सितंबर को होने वाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक से एक दिन पहले, मंगलवार को अंतरराष्ट्रीय विभाजन सामने आ गया, जिसमें चीन ने अमेरिका द्वारा की गई म्यांमार की आलोचना को दरकिनार करते हुए बर्मा की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया है.


चीन जानता है कि म्यांमार के साथ उसके साझे सरोकार, उसके आर्थिक हितों को मजबूत करने में दूर तक हमसफर होंगे. चीन के नजरिए से, आर्थिक महत्वाकांक्षाओं के लिए क्षेत्र में अमन की बहाली एक जरूरी कदम है और शायद इसीलिए बीजिंग ने अल्पसंख्यक मुसलमान रोहिंग्याओं पर म्यांमार की सैन्य कार्रवाई को सही ठहराया है.

कूटनीति तो यह कहती है कि ऐसे हालात में पाकिस्तान को आत्म-मंथन करना चाहिए कि भविष्य में, अगर चीन के सामने अपने आर्थिक प्रभुत्व को बढ़ने और पाकिस्तान के हक में खड़े होने जैसे दो विकल्प सामने हुए तो चीन उनमें से किसे चुनेगा?

कभी पाकिस्तान में मिलना चाहते थे रोहिंग्या

जाहिर सी बात है कि पाकिस्तान को नजरअंदाज करते हुए चीनी-कूटनीति, ऐसे समय में बर्मा के साथ अपने रिश्तों को जो मजबूती दे रही है, इस पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया लाजमी है लेकिन वो खामोश है. इस सच्चाई के बावजूद कि अराकन के मुसलमान अपने भू-भाग (बर्मा का वो इलाका जहां वो रहते आए हैं) समेत पाकिस्तान के साथ जुड़ जाना चाहते थे.

दुनिया के मानचित्र पर देखने की कोशिश कीजिए तो म्यांमार के जिस क्षेत्र में बर्मा की सेना और रोहिंग्या-विद्रोहियों के बीच युद्ध जैसा माहौल है, वह एक छोटा सा बिंदु भर है. इस बिंदु को थोड़ा और करीब कीजिए तो दक्षिण पूर्व एशिया के इलाके साफ नजर आने लगते हैं.

इनमें पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, बर्मा और चीन का आपसी रिश्ता भौगोलिक भी है और ऐतिहासिक, राजनीतिक भी. पहले ब्रिटिश भारत-पाक से गए (1947) और फिर बर्मा को उन्होंने 1948 में आजाद कर दिया.

अंग्रेज चले जाएंगे तो कहां क्या होगा, इसकी मशक्कत 1946 में ही शुरू हो गयी थी. भारत-पाक विभाजन एक ऐसी सच्चाई बन चुकी थी जिसे टाला नहीं जा सकता था. इन्हीं सबके बीच, मई 1946 में, अराकन (वर्तमान रखाइन राज्य, म्यांमार) के मुस्लिम नेताओं ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मुलाकात की.

मुलाकात में उनसे अनुरोध किया गया कि माउ क्षेत्र के दो शहरों, बथिदांग और मोंग्डा को पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में मिला लिया जाए. जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ये कहते हुए ठुकरा दिया कि वह बर्मा के मामलात में कोई दखल नहीं देंगे. जिन्ना के इंकार के बाद भी रोहिंग्या मुसलमानों की पाकिस्तान के साथ मिल जाने की उम्मीद नहीं टूटी और अराकन के इन मुस्लिमों ने बर्मा की नव-गठित सरकार से उपरोक्त दो शहरों को पाकिस्तान में मिला देने की स्वीकृति चाही, ये बात और है कि बर्मा की संसद ने उनके इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था.

क्या है आरसा?

आज म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों और बर्मी सेना के बीच जो आर-पार की लड़ाई छिड़ी हुई है, और उसे लेकर कौन बोल रहा है, कौन खामोश है, इसे समझने के लिए इस पृष्ठभूमि पे नजर रखना बहुत जरूरी है. बर्मा का मुजाहिदीन मूवमेंट (1947-1960) इस बात का गवाह है कि जो कुछ आज बर्मा में हो रहा है वो कोई नया रोग नहीं है.

इसमें नया मोड़ आया है, ‘अराकन रोहिंग्या सॉलिडेरिटी आर्मी’ (आरसा) नाम के एक विद्रोही-संगठन से, जो अक्टूबर 2016 से सक्रिय है. हालांकि ये भी सही है कि ज्यादातर रोहिंग्या मुसलमान जो दशकों से उत्पीड़न का शिकार हैं, हिंसा में यकीन नहीं रखते. लेकिन उनके नाम पर ‘आरसा’ सेना बर्मा-सेना से दो-दो हाथ कर रही है. उसका कहना है कि वह रोहिंग्या की ओर से उनकी नागरिकता समेत उन बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ रहे हैं, जिनसे उन्हें वंचित रखा गया है.

लेकिन बड़ा प्रश्न ये है कि चीन द्वारा बर्मा की सैन्य-कार्रवाई का समर्थन किए जाने के बाद अब पाकिस्तान का क्या रुख होगा? वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक, ‘अभी हाल के दिनों तक, ज्यादातर पाकिस्तानियों को बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों की समस्याओं के बारे में कुछ नहीं पता था. वे भारतीय कश्मीर में मुसलमानों की दुर्दशा के बारे में बहुत विस्तार से बात कर सकते थे, वे फिलीस्तीनी अधिकार या अरब स्प्रिंग की जानकारी भी रखते थे लेकिन बर्मा-रोहिंग्या की कहानी से अनजान थे.’ हालांकि कराची शहर में हजारों रोहिंग्या परिवार दशकों से शरणार्थी-जीवन जी रहे हैं.

रोहिंग्या मसले पर पाकिस्तान की मजबूरी

खबरों के अनुसार पिछले दो हफ्तों में, राजधानी इस्लामाबाद समेत, पाकिस्तान के कई शहरों में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों में तेजी आई है. इन प्रदर्शनों के बीच पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने म्यांमार में रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के खिलाफ चल रही हिंसा पर गहरा दुःख जताया है और कहा कि पाकिस्तान वहां, मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है. हालांकि इस बारे में उन्होंने विस्तार से कोई बात नहीं की.

कहा जाता है कि ‘आरसा आर्मी’ के नेता अता उल्लाह जन्म से पाकिस्तानी हैं और उनकी परवरिश सऊदी-अरब में हुई है. अंतरराष्ट्रीय  संकट समूह (आईसीजी) की रिपोर्ट के अनुसार भी ‘आरसा’ के तार सऊदी-अरब और पाकिस्तान से जुड़े होने के संकेत मिले हैं.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘नई दिल्ली में म्यांमार के पत्रकारों की स्थापित की गई निजी कंपनी 'द मिज़्ज़िमा मीडिया ग्रुप' ने भारतीय खुफिया-सूत्रों के हवाले से कई बार कहा है कि ‘आरसा’ के लड़ाकों को पाकिस्तानी चरमपंथी समूह लश्कर-ए-तैयबा प्रशिक्षण दे रहा है.’

रोहिंग्या समस्या को लेकर संयुक्त-राष्ट्र में पैदा हुए विभाजन और चीन के बर्मा को समर्थन के बाद एक ऐसा देश जो ‘इस्लामिक-देश’ होने का दावा करता है, चीन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कैसे खड़ा रह पाएगा? जबकि चीन का खुद अपने देश के मुसलमानों के साथ क्या रवैया है, इससे भी वो अंजान नहीं है.

इन सारे तथ्यों को देखते हुए पाकिस्तान चीन के साथ रिश्तों की एक कशमकश में फंसता चला जा रहा है. तीन तरह के पाकिस्तान का चीन से रिश्ता जुड़ रहा है. एक तरफ पाकिस्तान की अवाम है जो चीन के जरिए आने वाली आर्थिक खुशहाली के ख्वाब देख रही है, दूसरी तरफ पाकिस्तान के कट्टरपंथी हैं, जिनके साथ चीन के रिश्ते खतरनाक हो जाने की संभावनाएं लगातार जिंदा हैं, और पाकिस्तान की हुकूमत जो राजनयिक समर्थन, आर्थिक निवेश, हथियार और टेक्नोलॉजी के लिए चीन पर निर्भर होती जा रही है.

लेकिन ‘हर मौसम में दोस्ती’ की ये कसमें पाकिस्तान के लिए कितनी महंगी साबित होंगी, ये तो वक्त ही बताएगा. क्रिस्टीन फेयर इसे पहचाने में कोई गलती नहीं करतीं जब वो कहती हैं- ‘चीन ने सैन्य-सहायता देकर पाकिस्तान को एक ग्राहक के रूप में तैयार किया है.’ इसलिए आज उसके सामने रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या पर घड़ियाली आंसू बहाकर खामोश रह जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं.