जब आसमान में काली घटा छाई हो तब आप के जेहन में तेज बारिश, आंधी तूफान और तबाही के मंजर छा जाते हैं. सफेद बादलों के साथ ऐसा नहीं है. उसके होने न होने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. वह खुद भी अपने आसपास के माहौल से बदलता नहीं है.
डोनाल्ड ट्रंप राजनीति के सफेद बादल हैं. वो अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति हैं. ट्रंप इसलिए नहीं चुने गए क्योंकि वो बेहतर हैं. बल्कि इसलिए क्योंकि अमेरिकी जनता यह बताए जाने से ऊब गई थी कि क्या बेहतर है. क्या सही है. हो सकता है कि वो राजनीति से जुड़ाव, राजनीतिक मूल्यों और आत्मविश्लेषण की बातों से भी थक चुके हों.
ट्रंप को चुनने की हिम्मत केवल अमेरिकी ही जुटा सकते थे
यकीन मानिये यह चुनाव केवल अमेरिकी राष्ट्रपति का नहीं था. इस चुनाव से दुनिया में नए युग की शुरुआत होगी. नई धारा निकलेगी. फिर चाहे आप दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न रहते हों. आपकी पसंद-नापसंद निर्वाचित राष्ट्रपति से मेल खाती हो या न खाती हों. आप इस नई धारा का हिस्सा बन चुके हैं. इस युग का सामना आपको भी करना है. हालांकि इसके पीछे का वैज्ञानिक तर्क अच्छे-अच्छे विशेषज्ञों की नजर में आने से चूक गया.
आप कभी भी, कहीं भी लोकतंत्र की चपेट में आ सकते हैं.
लोकतंत्र हमें अमेरिका से गहरा रिश्ता रखने को मजबूर कर देता है. हम मानें या न मानें. उसके सुख-दुख में, अमेरिकियों की जीत में, उनकी हार में, हार में ज्यादा, जीत में कम.
आज अमेरिका एक त्रासदी है. जिस तरह दुनिया के फलक पर अमेरिका छाया था. ठीक उसी तरह आज त्रासदी के लिए याद किया जाएगा.
यह लोकतंत्र का ही कमाल है. कोई कितना भी ऊंचा उड़ ले. लोकतंत्र किसी को भी जमीन पर लाने का माद्दा रखता है. यह मौकापरस्ती और सूझबूझ का अनोखा संगम है. लेकिन दुनिया भर में मौकापरस्ती एक जैसी पाई जाती है. जबकि सूझबूझ केवल हमारे क्रमिक विकास और खुद को खुश करते रहने के फलस्वरूप कहीं-कहीं मिल जाएगी.
पहाड़ की चोटी से एक इंसान खुद के साथ कुछ भी करने की आजादी के प्रभाव में कूद सकता है. तो कोई दूसरा इंसान इसी जगह से अंजाने में. दुनिया में समझदारी से ज्यादा गुस्सा भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र तो सभी को बराबर का मौका देता है. जो सभी से निराश हो चुके हैं उन्हें भी.
विचार के नियम, मीडिया और जनसामान्य की समझ
ऐसा लगता है जैसे दुनिया भर के विचार केन्द्र, समाचार पत्र-पत्रिकाएं वगैरह सड़क पर तेज रोशनी से चौंधियाए हिरण की तरह कुछ देख नहीं पा रहे हैं. द न्यूयार्क टाइम्स, द न्यूयार्कर, द गार्डियन, जॉन ऑलिवर, जॉन स्टीवर्ट, सैटर्डे नाइट लाइव जैसे संस्थानों ने खुलेआम हिलेरी की तरफदारी की. लेकिन क्या यहां पत्रकारिता के मूल्य मायने रखते हैं?
यहां के संपादकों का दुनिया की घटनाओं और नेताओं के आलोचनात्मक विश्लेषण सटीक जानकारी के आधार पर ही किया जाता है. इन संस्थानों से निकली धारा दुनिया भर में विचार बनाती है.
लोगों को क्या करना है, क्या नहीं इस बात का प्रवचन देना भी कहीं न कहीं दमन की श्रेणी में ही माना जाएगा.
आम आदमी तो उसी हथियार का इस्तेमाल करेगा जो उसे दिया गया है. सामान्य नागरिक साहित्यिक भाषा या शोधपरक तर्कों के साथ किसी का जवाब नहीं दे सकते. बहुत किया तो इतना कि जिसे वो सही मानते हैं उसे सत्ता में ले आएं.
आत्मसात करें या अनदेखा
डोनाल्ड ट्रंप की जीत से क्या असर होगा, यह आने वाले सालों में साफ हो पाएगा. शायद साल नहीं कुछ दशक लग जाएं. हो सकता है ट्रंप कम-से-कम अमेरिका के लिए एक बेहतरीन राष्ट्रपति साबित हों.
राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद हो सकता कि ट्रंप चुनाव अभियान के दौरान कही अपने बातों पर अमल न करें. ऐसा होने से आप जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते. आत्ममंथन करना होगा.
हमारे पास अभी वक्त है. हम सोशल मीडिया पर अपना समय खराब करना बंद करें. उसके आधार पर अपनी राय बनाना बंद करें. अभी हम ऐसा कर सकते हैं.