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फेसबुक के भरोसे न रहना ये आपकी हां में हां मिलाएगा

फेसबुक जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क आपकी एक अधूरी राय बनाने में मदद कर रहे हैं...

Pawas Kumar

500 और 1000 रुपए के नोट पर आपकी क्या राय है? फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर आपको इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया दिख रही है? क्या आप फेसबुक देखकर अपनी राय कायम कर रहे हैं? हो सकता है कि फेसबुक पर जो राय आपको नजर आ रही है, वह दरअसल सच्चाई से दूर हो या कम से कम पूरी तस्वीर न हो.

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अपने आसपास के मित्रों से लेकर दूरदराज के लोगों की सोच को समझने के लिए क्या फेसबुक जैसे सोशल मीडिया काम का है या फिर वह आपको एक अधूरी राय बनाने में मदद कर रहे हैं? क्या ये साधन हमें हर जरूरी राय दिखा रहे हैं या फिर केवल हमारी सोच को पुख्ता करने वाले पोस्ट ही दिख रहे हैं?


अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बाद वॉल स्ट्रीट जर्नल ने इस बात को समझने के लिए एक अनोखा प्रयोग किया है. जर्नल ने लोगों के न्यूजफीड को दो हिस्से में बांट दिया- जिन खबरों को रिपब्लिकन पार्टी और कंजरवेटिव विचारधारा के समर्थन में माना गया, उन्हें लाल रंग में रखा गया. इसके उलट डेमोक्रेटिक पार्टी और लिबरल विचारधारा से जुड़ी खबरों को नीले रंग की न्यूजफीड में रखा गया. इसे जर्नल के पत्रकार जॉन कीगन ने तैयार किया है.

अगर आप किसी भी मुद्दे पर न्यूजफीड देखते हैं तो पता चलता है कि एक ही मुद्दे पर आ रही खबरों में कितना अंतर है. यह न्यूजफीड साफ दिखाती है कि तकनीक के जरिए दूरियां मिटाने का जो सपना देखा गया था, वह कितना बेमानी हो चुका है.

फेसबुक की न्यूजफीड आपकी पसंद के आधार पर चलती है. आप जिस तरह की खबरें या फीड बार-बार देखते या पसंद करते हैं, वह बार-बार आपको ऐसी ही खबरें या फीड दिखाते हैं. चाहे वह खबरें हो या फिर कुत्ते-बिल्ली के वीडियो.

ऐसे में क्या यह खतरा नहीं है कि आप किसी मुद्दे पर केवल एक तरह की राय ही देखते रह जाएं. आपको एक इंफॉर्म्ड राय कायम करने के लिए खबर का दूसरा पहलू देखने को मिले ही न. क्या ट्रंप के समर्थक ज्यादातर ऐसी खबरें देखते रह गए जिसमें उनके बारे अच्छा-अच्छा ही था? उनके कैंपेन द्वारा फैलाए गए प्रचार की सच्चाई मापने के लिए उलटी राय दिखी ही नहीं? हिलेरी को पसंद करने वालों को उनके खिलाफ की जा रही बातों की खबर ही नहीं लगी? न्यूजफीड को ध्यान से देखें तो ऐसा ही लगता है.

न्यूज साइट्स से अधिक सोशल मीडिया खबरों का मुख्य स्रोत बन गया है. आज की दुनिया किसी भी बात पर राय कायम करने के लिए सोशल मीडिया का मुंह देखा जाता है. लेकिन क्या इसका मुंह यानी फेसबुक भरोसे के लायक है. हालांकि फेसबुक के को-फाउंडर मार्क ज़करबर्ग ने इस बात से इनकार किया है कि ट्रंप की जीत में कहीं न कहीं फेसबुक से मदद मिली.

सवाल यह है कि इस समस्या को दूर कैसे किया जाए? जर्नल में ही छपे एक लेख में ज्योफ्री फाउलर कहते हैं कि अगर लोगों को हर खबर से अवगत करने वाला सोशल मीडिया ही आपको दूसरे पक्ष की राय से दूर कर रहा है तो फिर इसका तो मकसद ही खत्म हो जाता है. इसी लेख में वह बराक ओबामा के बयान का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट एक 'एको चैंबर' में रह रहे हैं जहां वह केवल खुद से सहमत विचार ही सुन पा रहे हैं. लेख में कंजरवेटिव टिप्पणीकार ग्लेन बेक का भी जिक्र है जो कहते हैं कि फेसबुक अब एकमात्र सामुदायिक अनुभव बचा है और यहां हमें दूसरे पक्ष की राय जानने की बेहद जरूरत है.

फाउलर सुझाव देते हैं कि फेसबुक की न्यूजफीड पर एक 'अपोजिंग व्यू' बटन होना चाहिए ताकि लोग खबर के दूसरे पहलू को भी जान सकें.

पिछले महीने फेसबुक ने एक वीडियो जारी किया था जिसमें उसने यूजर्स को खुला दिमाग रखने का आग्रह किया था. उसने आग्रह किया था कि आप किसी मुद्दे अलग-अलग राय के आर्टिकल देखें. लेकिन फेसबुक का सर्च आप कितना इस्तेमाल करते हैं?

फाउलर कहते हैं कि 'ब्ल्यू फीड, रेड फीड' से साबित होता है कि फेसबुक के पास हमें सिर्फ एक विचारधारा से बचाने का माद्दा है. इसे सही दिशा में आगे बढ़ाने की जरूरत है.

टीवी सीरीज 'द न्यूजरूम' के एक सीन में शो का एंकर नायक कहता है कि जरूरी नहीं कि हर खबर के दो पहलू हों. ऐसा संभव है, लेकिन अगर किसी खबर के दो पहलू हैं तो उसे जानने का हक हर किसी को होना ही चाहिए.