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आम बजट: साल के 12 रुपए में चैंपियन नहीं बनते वित्त मंत्री जी

खेल संघों को मदद और फंडिंग बंद हो और स्पोर्ट्स सेस लगाया जाए

Ashish Chadha

पिछला साल यानी 2016 दुनिया के सबसे बड़े खेल इवेंट का था. रियो ओलिंपिक इसी साल हुआ. यहां सबसे तेज, सबसे मजबूत, सबसे तगड़े, सबसे खूबसूरत लोग एक प्लेटफॉर्म पर थे.

वे दुनिया को दिखाना चाहते थे कि क्यों वे बाकियों से बेहतर हैं. ये जगह थी, जहां सुपरमैन या सुपर ह्यूमन की तरह दिखने वाले एथलीट अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा पदक जीतने में खर्च देना चाहते थे.अपने लिए... और अपने प्यारे मुल्क के लिए.


ये वो स्टेज था, जहां दिख रहा था कि तमाम मुल्कों ने कैसे अपने साधन का इस्तेमाल किया है. इन एथलीटों को सुपर ह्यूमन बनाने के लिए.

स्पोर्ट्स में भारत फिसड्डी क्यों 

भारत...सवा सौ करोड़ से ज्यादा का देश.. क्या हमने अच्छा परफॉर्म किया? जैसी उम्मीद थी, क्या वैसा? करोड़ों लोगों को दुआओं के बावजूद 117 एथलीट का दल, सिर्फ दो मेडल लेकर आ पाया.

छह महीने बीत चुके हैं. कमजोर प्रदर्शन के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा दिया गया है. हर कोई अब भूल गया है कि एक देश के तौर पर हम सबसे बड़े स्टेज पर परफॉर्म करने में नाकाम रहे.

खेल बजट में सरकार निल बटे सन्नाटा 

आखिर क्यों? इस लेखक की समझ के मुताबिक सबसे बड़ी कमी हमारी खेल नीति में है. यही बात हमारे खेल बजट में नजर आती है. आइए 2016-17 के खेल बजट को समझने की कोशिश करते हैं.

2016-17 में खेल के लिए लिए कुल बजट 1400 करोड़ रुपए था. खेल एवं युवा मामलों के मंत्रालय के लिए यही रकम तय की गई थी. इसके अलावा 192 करोड़ रुपए और थे, जो नॉन प्लान कैटेगरी में थे.

यानी कुल मिलाकर 1592 करोड़ रुपए. कितने लोगों के लिए? करीब 127 करोड़ लोगों के इस देश के लिए. इसका मतलब यह है कि हर भारतीय नागरिक को 12 रुपए से कुछ ज्यादा रकम खेलों के लिए मिलती है.

कहां चूक गए हम 

अब जरा तुलना कीजिए. रियो ओलिंपिक में दूसरे स्थान पर आया था ग्रेट ब्रिटेन. ब्रिटेन ने इतने ही समय के लिए नौ हजार करोड़ रुपए रखे थे. ये रकम 62 मिलियन यानी करीब सवा छह करोड़ लोगों के लिए थी.

ये होते हैं 145.61 रुपए प्रति व्यक्ति. यानी हर भारतीय नागरिक के मुकाबले 14 गुना ज्यादा.

ये आंकड़ा आधी कहानी बताता है. सही तस्वीर तब सामने आती है, जब हम देखें कि बजट का आवंटन कैसे होता है.

ग्रेट ब्रिटेन में बजट को खेल की मूलभूत सुविधाओं, ग्रासरूट प्रोग्राम और बड़े एथलीटों की ट्रेनिंग पर खर्च किया जाता है. भारत में 1592 करोड़ का बंटवारे पर गौर फरमाइए.

1. 596 करोड़ उन योजनाओं पर खर्च होता है, जो युवा मामलों के मंत्रालय के तहत आती हैं. राष्ट्रीय युवा सशक्तीकरण कार्यक्रम, नेशनल सर्विस स्कीम. इनसे भारतीय खेलों का क्या विकास होता है, शायद भगवान ही बता सकता है.

2. बाकी 900 करोड़ सफेद हाथी को चलाने में खर्च होता है. यानी भारतीय खेल प्राधिकरण, बिना किसी जवाबदेही वाले खेल संघों को अनुदान और कुछ पैसा मूल-भूत सेवाओं में. बाकी अगर कुछ बत गया, तो ट्रेनिंग और सुपर एथलीट्स को दिया जाता है.

इसे साफ दिखता है कि सरकार न सिर्फ खेल बजट में बहुत कम पैसा देती है. इसके साथ ही इसका इस्तेमाल और वितरण सवालों के दायरे में होता है.

हमें सरकार से क्या चाहिए? 

इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल. खेलों से जुड़े लोग वित्त मंत्री से क्या चाहते हैं? मेरे खेल परिवार के 99 फीसदी लोग चाहेंगे कि बजट बढ़े.

चाहे वो खिलाड़ी हों, प्रशासक या खेल मैनेजर. लेकिन सोचिए कि अरुण जेटली ऐसा कर भी दें, तो क्या समस्या हल हो जाएगी? क्या भारत अगले ओलिंपिक में ढेर सारे पदक जीत जाएगा? क्या हम खेल के सुपर पावर बन जाएंगे?

मुझे इन सवालों के जवाब देने की जरूरत नहीं. दिल टटोलिए, खुद जवाब मिल जाएगा.

यह लेखक उन एक फीसदी लोगों में है, जो वित्त मंत्री से कुछ और मांग करना चाहत है. मेरी मांगें इस तरह हैं

1. खेल को प्राथमिकता बनाएं, लायबिलिटी यानी दायित्व नहीं. इससे देश निर्माण में मदद मिलेगी.

2. खेल को एक इंडस्ट्री माना जाए. जैसे किसी भी कॉरपोरेट सेक्टर में होता है. इसकी स्टार्ट अप की तरह मदद की जाए.

3. देश में खेल से जुड़ी कोई भी लीग या कमर्शियल गतिविधि को टैक्स में छूट दी जाए. सुविधाएं दी जाए. राज्यों का साथ मिले.

4. खर्चे, खेल प्रशासन और खेल बजट के आवंटन में जवाबदेही लाई जाए.

5. मूलभूत सुविधाएं सबसे जरूरी हैं. इसके लिए अलग बजट हो. इससे न केवल खेल सेक्टर को मदद मिलेगी. बल्कि इंफ्रा सेक्टर को भी मजबूती मिलेगी.

6. 0.5 से लेकर एक फीसदी स्पोर्ट्स टैक्स हो, जो हर कॉरपोरेट पर लागू हो. इस पैसे का इस्तेमाल ग्रासरूट प्रोग्राम और बड़े एथलीटों की तैयारी पर खर्च हो.

7. नेशनल स्पोर्ट्स बोर्ड बनाया जाए, जो भारत के बड़े एथलीटों की ट्रेनिंग और जरूरतों का ध्यान रखे.

यह बोर्ड खिलाड़ियों के लिए रीढ़ की हड्डी जैसी हो. इसमें एक सीईओ नियुक्त किया जाए, तो किसी कॉरपोरेट की तरह खेलों को चलाए. इस सीईओ का किसी खेल संघ से जुड़ाव न हो. उसकी जिम्मेदारी सिर्फ आज और भविष्य के चैंपियनों को तैयार करना हो.

8. खेल संघों को मदद और फंडिंग बंद कर दी जाए. उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए मदद की जाए. बढ़ावा दिया जाए कि वे अपने-अपने खेलों के लिए कमर्शियल मॉडल तैयार करें.

9. भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) को जो बजट दिया जाता है, उस पर पुनर्विचार होना चाहिए. भारतीय खेलों में वे ही हैं, जिन पर सबसे ज्यादा पैसा खर्च किया जाता है और जो सबसे ज्यादा पैसा खर्च करता है. भारतीय खेलों को बढ़ावा देने में इसके मुताबिक उनका योगदान बहुत कम है.

और हां.. आखिर में

10. मैं अपने खेल परिवार के 99 फीसदी लोगों से सहमत हूं कि खेल बजट बढ़ना चाहिए और खिलाड़ियों की उपलब्धि पर गर्व होना चाहिए.

आज के समय में हर खेल एथलीट का प्रोफेशन है. इसलिए आदरणीय खेल मंत्री, आप आगे आइए. खेल को चलाने और पैसे आवंटित करने के लिए और पेशेवर तरीका अपनाने की पहल कीजिए.

(लेखक पिछले 25 साल से खेल दुनिया से जुड़े हैं. पहले खिलाड़ी, फिर एक दशक खेल पत्रकार के तौर पर. अब भारत की प्रमुख खेल मैनेजमेंट कंपनी स्पोर्टी सॉल्यूशंज के मुख्य कार्यकारी (सीईओ) हैं.)