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लापरवाही और दुर्दशा के आगे चित भारतीय कुश्ती

पेरिस में भारतीय कुश्ती की फजीहत के बाद तर्क-वितर्क और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है

Norris Pritam

जिंदगी हो या खेल, नाकामी और खराब प्रदर्शन से मनोबल तो टूटता ही है, साथ ही दर्द भी होता है. ये दर्द उस वक्त और बढ़ जाता है, जब हम बुलंदी की ओर बढ़ रहे होते हैं, लेकिन किन्हीं वजहों से अचानक जमीन पर आ गिरते हैं. भारतीय कुश्ती के साथ भी हालिया वक्त में ऐसा ही हुआ है. कुछ अरसा पहले तक भारत में बुलंदियों को छू रहा कुश्ती का खेल, एकाएक रसातल में पहुंच गया है.

कुश्ती की ऐसी दुर्दशा पर कोचों और कुश्ती प्रेमियों के साथ पूरी कुश्ती बिरादरी निराश है. लेकिन लगता है कि किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर गड़बड़ कहां है. या फिर ऐसा है कि खामियां सुधारने के लिए कोई भी देश में कुश्ती के कर्ताधर्ताओं से लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है.


भारत को कुश्ती में पहला पदक केडी जाधव ने दिलाया था, उन्होंने 1952 के हेलसिंकी ओलिंपिक में फ्री स्टाइल कुश्ती में कांस्य पदक जीता था. जाधव के कांस्य पदक के बाद देश ने कुश्ती में खासी कामयाबी हासिल की और कई पदक जीते, इनमें एशियन और कॉमनवेल्थ गेम्स में जीते गए स्वर्ण पदक भी शामिल हैं. लेकिन भारतीय कुश्ती को विश्व स्तर पर पहचान बिशम्बर सिंह ने दिलाई, उन्होंने 1967 में नई दिल्ली में हुई विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक जीतकर इतिहास रच दिया था.

वहीं 2008 के बीजिंग ओलिंपिक में सुशील कुमार ने कांस्य पदक जीतकर जाधव का करिश्मा दोहराया था. भारतीय कुश्ती के लिए इसे अहम मोड़ माना जाता है.

2012 के लंदन ओलिंपिक में सुशील कुमार ने अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए रजत पदक जीता, वहीं लंदन ओलिंपिक में ही योगेश्वर दत्त ने भारत की झोली में एक कांस्य पदक डाला. और फिर 2016 के रियो ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतकर साक्षी मलिक ने नया इतिहास लिख दिया. साक्षी कुश्ती के खेल में ओलिंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान हैं.

हालांकि साक्षी से पहले कर्णम मल्लेश्वरी भारत के लिए ओलिंपिक पदक जीत चुकी थी, लेकिन वो पदक कुश्ती में नहीं बल्कि वेट लिफ्टिंग यानी भरोत्तलन में आया था. कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कांस्य पदक जीता था.

विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में टूटी भारत की उम्मीद

लास वेगास में हुई पिछली विश्व चैंपियनशिप में नरसिंह ने कुश्ती प्रेमियों में नई उम्मीदें जगा दी थीं. नरसिंह ने लास वेगास में कांस्य पदक जीता था, तब सभी को लगा था कि भारतीय कुश्ती का स्वर्णिम दौर फिर से लौट आया है. लेकिन हालिया पेरिस में संपन्न हुई विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में भारतीयों की सभी उम्मीदें धराशाई हो गईं. पेरिस में भारतीय कुश्ती की फजीहत के बाद तर्क-वितर्क और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है.

वहीं इस साल के शुरूआत में ईरान में हुआ कुश्ती विश्व कप भी भारतीय पहलवानों के लिए एक बुरे सपने से कम नहीं रहा. डब्ल्यूएफआई यानी भारतीय कुश्ती महासंघ ने सभी आठ भार वर्ग (वेट कैटेगरी) के लिए राष्ट्रीय चैंपियन पहलवानों को ईरान भेजा था, लेकिन 32 मुकाबलों में उन्हें 29 में हार का मुंह देखना पड़ा.

इस पूरे प्रकरण का दुखद पहलू ये है कि जो शख्स भारतीय कुश्ती की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है, वही दूसरों पर आरोप मढ़ रहा है. हम बात कर रहे हैं बीजेपी सांसद और भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष ब्रज भूषण सिंह की, जो पहलवानों की नाकामी का ठीकरा कभी कोचों पर फोड़ते हैं, कभी सुविधाओं का रोना रोते हैं, और कभी पेरिस विश्व चैंपियनशिप के आयोजकों को दोष देते हैं. जबकि होना ये चाहिए कि ब्रज भूषण विनम्रता के साथ हार की जिम्मेदारी लें, और आत्मनिरीक्षण करें.

डब्ल्यूएफआई चीफ ब्रज भूषण की दलील है कि, आयोजकों ने विश्व चैंपियनशिप से पहले भारतीय पहलवानों की ट्रेनिंग का इंतजाम बुलेवार्ड के एक स्थानीय क्लब में किया था. जर्मनी और फ्रांस की सीमा पर स्थित इस क्लब में जरूरी सुविधाएं नहीं थी. जिसकी सीधा असर भारतीय पहलवानों के प्रदर्शन पर पड़ा और वो हार गए.

अपनी गलती कब मानेंगे ब्रज भूषण सिंह?

ब्रज भूषण सिंह की दलीलें अपनी जगह, लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि, पेरिस में भारतीय पहलवान ट्रेनिंग कहां करेगें विश्व चैंपियनशिप के आयोजकों ने इसकी जानकारी डब्ल्यूएफआई को बहुत पहले ही दे दी थी. ऐसे में सवाल ये उठता है कि, क्या डब्ल्यूएफआई और ब्रज भूषण ने उस क्लब और उसकी सुविधाओं की जांच-पड़ताल कराई थी? क्योंकि ये डब्ल्यूएफआई और ब्रज भूषण की कोर टीम की ही जिम्मेदारी है. लेकिन उन्होंने इस मामले में जरा भी गंभीरता नहीं दिखाई.

दूसरा सवाल ये उठता है कि, क्या पेरिस में सिर्फ भारतीय पहलवानों को ही खराब सुविधाएं दी गईं? जवाब है नहीं. विश्व चैंपियनशिप से पहले कई और देशों के पहलवानों को मनमाफिक ट्रेनिंग सेंटर नहीं मिल पाए थे, लेकिन उन देशों के कुश्ती संघों ने सजगता दिखाई. उन्होंने वक्त रहते न सिर्फ ट्रेनिंग पार्टनरों का इंतजाम किया, बल्कि पहलवानों के लिए सभी जरूरी सुविधाएं भी जुटाईं.

यहां ये बताना बेहद जरूरी है कि, 2015 में लास वेगास में हुई विश्व चैंपियनशिप में सभी देशों के पहलवानों के लिए परिस्थितियां और सुविधाएं समान थीं. भारतीय दल के पास तब व्लादिमीर मेस्टविरिशविली जैसा दिग्गज जॉर्जियाई कोच भी था, जो बीते एक दशक से भारतीय पहलवानों के लिए एक दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक और कुश्ती कोच की भूमिका निभाता आ रहा था. लेकिन जब व्लादिमीर का अनुबंध खत्म हुआ, तब भारतीय कुश्ती महासंघ ने उसे बढ़ाने पर जरा भी विचार नहीं किया, जिसका खामियाजा भारतीय पहलवानों को भुगतना पड़ा.

पहलवानों की खामियों और जरुरतों को व्लादिमीर बहुत जल्द समझ जाते थे. वो इस बात का पूरा ख्याल रखते थे कि सभी पहलवान सुबह की ट्रेंनिग में हिस्सा जरूर लें. नाश्ते की टेबल पर व्लादिमीर अपनी बाज जैसी तेज आंखों से सभी पहलवानों पर नजर रखा करते थे.

वो पहलवानों के पेट में जाने वाले हर निवाले का हिसाब रखते थे, ताकि उनके आगे वजन की समस्या पेश न आए. तीन अन्य कोच, जगमिंदर सिंह (पुरुष फ्रीस्टाइल), कुलदीप मलिक (महिला कुश्ती) और कुलदीप सिंह (ग्रीको-रोमन) मिलकर भी व्लादिमीर की विशेषताओं का मुकाबला नहीं कर सकते.

पेरिस में भारतीय टीम को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, वैसी ही समस्याएं अमेरिकी पहलवानों के भी आड़े आईं, उन्हें अलग टाइम जोन में अटलांटिक पार तक की लंबी और उबाऊ हवाई यात्रा करना पड़ी. लेकिन अमेरिकी टीम ने सभी संभावित समस्याओं का अंदाजा पहले ही लगा लिया था.

अमेरिकी टीम अपने राष्ट्रीय महासंघ या उसके ब्रज भूषण सिंह जैसे अध्यक्ष पर निर्भर नहीं थी. महिला टीम के मुख्य कोच टेरी स्टेनर ने खिलाड़ियों के पेरिस पहुंचने से पहले ही सभी समस्याओं के हल निकाल लिए थे. जिसका परिणाम हम सबके सामने है.

अमेरिका की विक्टोरिया एंथनी ने विनेश को पोडियम पर चढ़ने से रोक दिया था. विनेश को हराकर विक्टोरिया ने कांस्य पदक पर कब्जा किया था. स्टेनर के मुताबिक, बतौर कोच ये उनकी जिम्मेदारी है कि वो खिलाड़ियों की क्षमता बढ़ाएं, साथ ही उन्हें अलग-अलग परिस्थितियों में ढलने के लिए भी तैयार करें.

इसके अलावा सभी खिलाड़ियों की प्रशिक्षण प्रक्रिया पर निगरानी रखना भी बेहद जरूरी है. इसमें खिलाड़ियों को कठोर और अनुशासित तरीके से कुछ विशेष अभ्यास कराना, वीडियो देखकर खिलाड़ियों की तकनीक का विश्लेषण करना, खिलाड़ियों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना, विरोधी खिलाड़ियों की कमजोरियों और खामियों का पता लगाना और दैनिक अभ्यास सत्रों की योजना बनाने में खिलाड़ियों की सहायता करने जैसे अहम काम भी शामिल हैं.

जरा सोचिए कि अगर ये सारी कवायद भारतीय कोचों से करने को कही जाए तो इस अग्निपरीक्षा में कितने लोग सफल होंगे?. ब्रज भूषण सिंह ने कहा है कि डब्ल्यूएफआई विदेशी कोचों की तलाश कर रहा है, लेकिन अभी तक किसी से भी बात नहीं बन पाई है.

भारत के पास नहीं है सुशील कुमार जैसा पहलवान?

ब्रज भूषण के मुताबिक, 'पेरिस की पराजय से हमें अच्छा सबक मिला है, वहां खिलाड़ियों की नाकामी से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.'

लेकिन पूर्व राष्ट्रीय मुख्य कोच यशवीर सिंह का मानना है कि, भारत में फिलहाल ऐसा पहलवान तैयार कर पाना मुश्किल है जो दो बार के ओलिंपिक पदक विजेता सुशील कुमार के नक्शे कदम पर चल सके.

यशवीर के मुताबिक, 'ईमानदारी से कहूं तो इस वक्त भारतीय टीम में सुशील जैसी क्षमता वाला एक भी पहलवान नहीं है, इस खाली जगह की भरपाई होने में काफी वक्त लग सकता है.'

वहीं गीता फोगाट ने अपनी बात और भी ईमानदारी से रखी. गीता मानती हैं कि, 'पेरिस में भारत के खराब प्रदर्शन की वजह उचित ट्रेनिंग का अभाव है'. अब गेंद एक बार फिर से डब्ल्यूएफआई के पाले में है और ब्रज भूषण सिंह को फैसला करना है कि महासंघ आखिर चाहता क्या है- व्यावहारिक और फलदायक फैसला ? या निरंकुश निर्णय?