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कॉमनवेल्थ गेम्स के गोल्ड की चमक क्या टोक्यो ओलिंपिक में भी बरकरार रह पाएगी!

कॉमनवेल्थ गेम्स मे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले भारतीय एथलीट्स ओलिंपिक में क्यों फेल हो जाते हैं

Sumit Kumar Dubey

पांच से लेकर 15 अप्रैल तक हर दिन हम भारतीयों की सुबह की शुरुआत ऑस्ट्रेलिया से आने वाली खुशखबरी के साथ हुई. गोल्ड कोस्ट में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय एथलीट्स ने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए हर खेल प्रेमी का दिल जीत लिया. 26 गोल्ड मेडल के साथ कुल 66 मेडल जीतकर भारत मेडल टेली में तीसरी पोजीशन पर रहा. भारतीय एथलीट्स के इस शानदार प्रदर्शन को पूरे देश में जिस तरह हाथों हाथ लिया गया उसकी बानगी सोशल मीडिया पर भी नजर आई.

गोल्ड कोस्ट में भारत के गोल्डन शो को देखकर हर देशवासी के मन में खेलों की सुपर पावर होने का भाव जरूर पैदा हुआ होगा. लेकिन इस भाव को वास्तविकता की कसौटी पर परखने के लिए जरा घड़ी की सुइयों को थोड़ा पीछे घुमाते हैं.


दो साल से भी कम वक्त पहले 117 सदस्यों का भारतीय दल ब्राजील की राजधानी रियो में ओलिंपिक में भाग लेने पहुंचा था. 5 अगस्त, 2016 को शुरू हुए खेलों के इस महाकुंभ में भारत के मेडल जीतने की पहली खबर आने तक 12 दिन बीत गए. 17 अगस्त को महिला रेसलर साक्षी मलिक के 57 किलोग्राम की कैटेगरी में ब्रॉन्ज के तौर पर रियो में पहला मेडल हासिल करने से पहले ही देश में सोशल मीडिया पर भारतीय एथलीट्स के फ्लॉप शो को लेकर बहस छिड़ चुकी थी. बहरहाल साक्षी के अलावा बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु के सिल्वर मेडल के साथ भारत का रियो ओलिंपिक में सफर खत्म हुआ.

ऐसे में अब सवाल यह है कि क्या गोल्ड कोस्ट में भारतीय एथलीट्स का यह शानदार प्रदर्शन दो साल बाद यानी टोक्यो ओलिंपिक 2020 के लिए भारत की खेल शक्ति का एक ट्रेलर है या फिर यह महज कॉमनवेल्थ तक ही सिमट कर रह जाने वाला शो है. इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि आखिरकार कॉमनवेल्थ है क्या और कॉमनवेल्थ गेम्स में मेडल जीतने के क्या मायने हैं.

क्या है कॉमनवेल्थ ?

एक वक्त था जब कहा जाता कि ब्रिटिश राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता. यानी दुनिया के हर कोने में बड़े भूभाग पर ब्रिटेन की सीधे या अपरोक्ष रूप से सत्ता चलती थी. कॉमनवेल्थ इसी कहावत को चरितार्थ करने वाला एक संगठन है. इसमें वे देश शामिल हैं जहां कभी ना कभी ब्रिटिश राज का शासन रहा है. 53 सदस्यों वाले कॉमनवेल्थ में रवांडा और मोजांबिक ऐसे दो देश हैं जो ब्रिटिश सत्ता के अधीन नहीं रहे. यानी यही वे 53 देश हैं जिनके एथलीट्स कॉमनवेल्थ गेम्स में अपना हुनर आजमाने पहुंचते हैं.

ओलिंपिक के 'सच का सामना'

अब आते हैं भारत के गोल्ड कोस्ट में प्रदर्शन और ओलिंपिक में उसकी संभावनाओं की बात पर. भारत ने गोल्ड कोस्ट में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन शूटिंग, रेसलिंग और वेटलिफ्टिंग में किया है. शूटिंग में भारत ने सात गोल्ड मेडल के साथ सबसे अधिक कुल 16 मेडल हासिल किए. इसकी तुलना अगर रियो ओलिंपिक से की जाए तो वहां शूटिंग में सबसे ज्यादा गोल्ड जीतने वाले टॉप के पांच मुल्क इटली, जर्मनी, चीन, साउथ कोरिया और वियतनाम कॉमनवेल्थ का हिस्सा नहीं हैं.

ऐसे ही हालात रेसलिंग में भी हैं. गोल्ड कोस्ट में भारत के रेसलर्स ने पांच गोल्ड के साथ 12 मेडल हासिल किए. रियो ओलिंपिक में रेसलिंग में सबसे अधिक मेडल जीतने वाले टॉप के पांच देश रूस, जापान, क्यूबा, अमेरिका और तुर्की कॉमनवेल्थ गेम्स में खेलने नही आते हैं.

वेटलिफ्टिंग में भारत को पांच गोल्ड समेत कुल 9 मेडल मिले, जबकि रियो ओलिंपिक में वेटलिफ्टिंग में सबसे ज्य़ादा मेडल जीतने वाले चीन, थाईलैंड, ईरान, नॉर्थ कोरिया और कजाकिस्तान का कॉमनवेल्थ गेम्स से वास्ता नहीं है.

गोल्ड कोस्ट में भारत की टेबल टेनिस और बॉक्सिंग की टीमों ने भी मेडल के साथ-साथ खूब सुर्खियां बटोरीं. लेकिन रियो ओलिंपिक की मेडल टेली बताती है कि टेबल टेनिस के सरताज चीन, जापान जर्मनी और नॉर्थ कोरिया हैं, जबकि बॉक्सिंग में उज्बेकिस्तान, क्यूबा, फ्रांस और कजाकिस्तान जैसे टॉप के चार देश कॉमनवेल्थ में शामिल ही नहीं है.

आंकड़ों का यह आइना साफ दिखाता है कि कॉमनवेल्थ में जीते गए मेडल को ओलिंपिक भी बरकरार रख पाना कितना मुश्किल काम है.

तो क्या गोल्ड कोस्ट में भारतीय एथलीट्स का प्रदर्शन टोक्यो ओलिंपिक के लिए कोई उम्मीद नही जगाता..जवाब है, नहीं. भारतीय एथलीट्स ने गोल्ड कोस्ट में जीत का जज्बा और जुनून पेश किया है उसे अगर आर्थिक मदद और सिस्टम की सरलता की खुराक मिल जाए तो भारत भी ओलिंपिक मेडलिस्ट पैदा करने का माद्दा रखता है.

तीन पैसा प्रतिदिन खर्च करोगे तो कैसे मिलेंगे ओलिंपिक मेडलिस्ट!

पिछले साल ही भारत के खेल मंत्री और खुद ओलिंपिक मेडलिस्ट रह चुके राज्यवर्धन राठौड़ ने संसद में बताया था कि भारत सरकार प्रति व्यक्ति के हिसाब से हर दिन तीन पैसे खेल पर खर्च करती है. हालांकि इसमें राज्य सरकारों और कॉरपोरेट का खर्च शामिल नहीं था. इसकी तुलना अगर खेलों की दुनिया में राज करने वाले देशों से करें तो यह आंकड़ा अमेरिका में करीब 22 रुपए, ब्रिटेन में 50 पैसे और जमैका में 19 पैसे है.

भारत सरकार ने हालांकि स्पोटर्स बजट में वृद्धि की है यह ऊंट के मुंह में जीरे के ही समान है. जो पैसे एथलीट्स की ट्रेनिंग के लिए खर्च किए जाते हैं उसमें भी कई बार बहुत झोल नजर आता है. सरकार ने एथलीट्स को ट्रेनिंग करने के लिए टारगेट ओलिंपिक पोडियम स्कीम यानी टॉप्स बनाई है जिसके तहत कुल 184 खिलड़ियों को इंटरनेशनल स्तर पर मेडल जीतने के काबिल मानते हुए ट्रेनिंग के लिए आर्थिक मदद दी जाती है.

इसकी तुलना अगर ऑस्ट्रेलिया की ऐसी ही योजना ‘डायरेक्ट एथलीट सपोर्ट’ से की जाए तो इस स्कीम में 982 एथलीट्स शामिल हैं. करीब 2.5 करोड़ से भी कम जनसंख्या वाले ऑस्ट्रेलिया और 1.3 अरब की जनसंख्या वाले भारत के बीच के अंतर का यह आंकड़ा अपने आप में पूरी कहानी बयान कर देता है.

यह नहीं टॉप्स के तहत एथलीट्स के मिलने वाले पैसे में भी लालफीताशाही की अड़चनों की तमाम खबरें सामने आती रहती हैं. यानी जिस मकसद के तहत यह स्कीम शुरू की गई है वह पूरी तरह से हासिल नहीं हो पा रहा है. पिछले दिनों टॉप्स में शामिल हर एथलीट को हर महीने 50,000 रुपए का पॉकेट मनी देने का फैसला हुआ था जो निश्चित रूप से स्वागत के योग्य है.

2010 में भारत में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों के लिए एथलीट्स की ट्रेनिंग के लिए बज़ट काफी बढ़ाया गया था. जिसका असर ना सिर्फ कॉमनवेल्थ में दिखा, बल्कि उसी साल हुए एशियन गेम्स और दो साल बाद लंदन ओलिंपिक्स 2012 में भी दिखा. इन इवेंट्स में भारत ने अपने इतिहास के सबसे अधिक मेडल हासिल किए.

गोल्ड कोस्ट से मिली मेडल की खुशियों को अगर टोक्यो ओलिंपिक तक बरकरार रखना है हमें अपने एथलीट्स की ट्रेनिंग का बजट तो बढ़ाना ही होगा साथ ही उसे खर्च करने में आने वाली अड़चनों को भी दूर करने की जरूरत है.