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हम कब तक खेलों के बाजार में पालकी ढोने वाले बने रहेंगे

आखिर डुरंट जैसे खिलाड़ियों के आने से आज तक भारतीय खेलों का क्या भला हुआ है?

Shailesh Chaturvedi

हिंदी के बड़े कवि थे बाबा नागार्जुन. साढ़े पांच दशक से भी ज्यादा हो गए, उन्होंने एक कविता लिखी थी. वो कविता महारानी एलिजाबेथ के भारत दौरे के समय थी. उन्होंने लिखा था –

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी,


यही हुई है राय जवाहरलाल की

प्रधानमंत्री नेहरू पर वो तंज था. देश के जो हालात थे, उसमें रानी के स्वागत की जो तैयारी हो रही थी, उस पर. इस कविता को खेल के संदर्भ में आज लिखा जाए, तो शब्द बदल जाएंगे. उसमें किसी बड़े एनबीए खिलाड़ी का नाम होगा.

यहां जवाहरलाल की जगह किसी मल्टीनेशनल कंपनी और पीआर एजेंसी का नाम होगा. कोई प्रमोटर किसी बड़ी कंपनी की मदद से दुनिया के बड़े स्टार को लेकर आएगी और हम पलक-पांवड़े बिछाकर उसका स्वागत करेंगे. स्वागत के बाद वो हमें अपने घर जाकर गाली देगा. फिर उसे इवेंट मैनेजर बताएंगे कि बड़े बाजार वाले देश को गाली नहीं देते.  उसके बाद वो माफी मांग लेगा.

केविन डुरंट को क्यों मिली इतनी आवाभगत?

ऊपर जिस खिलाड़ी और घटना की चर्चा हो रही है, वो केविन डुरंट हैं. डुरंट कुछ समय पहले भारत आए थे. एनबीए के बड़े स्टार हैं. एनबीए को प्रमोट कर रहे लोगों को पता है कि भारत बड़ा बाजार है. ऐसे में उन जैसे लोगों को लाना जरूरी है. वो भारत आए, तो खेल दुनिया को ऐसा लगा, मानो भगवान आ गए हों. इंटरव्यू के लिए बड़े-बड़े ग्रुप में मारामारी थी.

कुछ बड़े अखबारों में उन्हें गेस्ट एडिटर बनाने की तैयार हो गई. जो लोग इंटरव्यू करने के लिए लाइन में लगे थे, उनमें से बहुत से लोगों ने दिल्ली के स्टेडियम तक ठीक से नहीं देखे होंगे. जिन्होंने शायद ही करियर में कोई लोकल इवेंट कवर किया हो. लेकिन वो पालकी लिए खड़े थे, क्योंकि डुरंट आए थे. आखिर डुरंट से बेहतर भारत को कौन समझता!

खैर, डुरंट ने वाकई समझ लिया और बता दिया कि भारत कितना पीछे है. यहां सड़कों की क्या हालत है. यहां के लोग कितने पिछड़े हैं, वगैरा-वगैरा. मार्केटिंग की दुनिया से दूर किसी स्टेडियम में बॉक्सिंग, कुश्ती, हॉकी, कबड्डी जैसे खेलों की तैयारी कर रहे युवाओं के मन में जरूर आता होगा कि आखिर डुरंट में क्या है, जो उनमें नहीं है.

उनके मन में सवाल आता होगा कि आखिर डुरंट जैसे खिलाड़ियों के आने से आज तक भारतीय खेलों का क्या भला हुआ है?  कितने खेल ऐसे हैं, जिन्होंने पिछले दस सालों में इस वजह से तरक्की की, क्योंकि उसमें किसी सुपर स्टार ने आकर दस मिनट बच्चों के साथ और दस घंटे मीडिया के साथ बिता लिए.

इन सवालों का जवाब नहीं मिलेगा. लेकिन चमक-दमक से दूर इन सवालों के साथ जी रहे खिलाड़ियों को समझना चाहिए कि वो कुछ गरीब किस्म के खेलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. उनमें किसी मल्टीनेशनल कंपनी की रुचि नहीं होगी. पिछले दिनों एक सर्वे से समझ आया थ कि अगर पब्लिक सेक्टर कंपनियां न हों, तो देश के खेलों का क्या होगा. प्राइवेट सेक्टर की ज्यादातर कंपनियां भारतीय खेलों के स्पॉन्सरशिप के लिए आगे नहीं आतीं. यहां उन्हें बाजार नहीं दिखता.

उन्हें बाजार दिखता है एनबीए जैसों के लिए. भले ही भारतीय खेल दुनिया में एक मामूली फीसद हिस्सा इन खेलों से जुड़ा हो. लेकिन यह वही हिस्सा है, जो देश में क्या कुछ होना है, वो तय करता है. उस छोटे से हिस्से के बच्चों को एनबीए देखना होता है. उन्हें जानना होता है कि डुरंट कौन हैं. उन्हें डुरंट से मिलना होता है. उन्हें डुरंट में वो सब नजर आता है, जो उनके मुताबिक किसी भारतीय खिलाड़ी में कभी नहीं मिलेगा.

यही वजह है कि जब डुरंट आते हैं, तो हम सब हाथ बांधे खड़े हो जाते हैं. वजह यही है कि बाजार चला रही शक्तियां चाहती हैं कि हम ऐसे ही खड़े हों. हम खड़े होते हैं. हम पूजने की मुद्रा में आ जाते हैं. डुरंट को तो समझ नहीं आया, इसलिए मन के भाव निकाल दिए. बाकी खिलाड़ी आते, भारत की तारीफ करते, हम मुग्ध हो जाते.

हमें लगता कि हम खेल की सबसे बड़ी शक्ति बनने वाले हैं. उसी मुग्धता भाव में जीते और फिर वहीं रहते, जहां हैं. यह चलता रहेगा, क्योंकि बाजार हमें बाबा नागार्जुन के शब्दों में ‘पालकी ढोने’ का आदेश देता रहेगा. ... और हम पालकी ढोते रहेंगे. हमें बुरा कहा तो क्या हुआ. आप बड़े हैं.. फिर आइए, आपका हम वैसा ही स्वागत करेंगे, जैसा पिछली बार किया था.