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तो क्या खेतों में फसल उगा रहे होते बैडमिंटन चैंपियन श्रीकांत!

किसान परिवार से आए श्रीकांत और उनके परिवार की कहानी

T S Sudhir

एक नजारे की कल्पना कीजिए. खाली समय में किदांबी श्रीकांत और किदांबी नंदगोपाल खेती करवा रहे होते. आंध्र प्रदेश के गुंटूर में वे हर खरीफ और रबी के सीजन में फसलें उगा रहे होते. ये होता, अगर उनके पिता उन्हें बैडमिंटन कोर्ट पर अपने सपनों को हकीकत में बदलने की इजाजत नहीं देते.

किसान परिवार से आने के बावजूद खेत जोतने के लिए लीज पर जमीन देकर किदांबी परिवार ने भारतीय बैडमिंटन में कामयाबी के बीज बोए. 16 साल हो गए, जब बड़े भाई नंदगोपाल घर छोड़कर विशाखापत्तनम गए थे. वहां उन्हें आंध्र प्रदेश की स्पोर्ट्स एकेडमी में चुना गया था. एक साल बाद श्रीकांत ने भी बड़े भाई जैसा काम किया. कुछ साल बाद जब उनके कोच सुधाकर राव खम्मम गए, तो दोनो भाई भी साथ चले गए.


पिता केवीएस कृष्णा बताते हैं कि उनकी जिंदगी में बैडमिंटन ने उड़ान भरी करीब 2000 के आसपास. तब गुंटूर में उनके घर के करीब म्युनिसिपल स्टेडियम बना. दोनों भाइयों को नई सुविधाएं मिलीं और यहां से खेल ने अपनी जड़ गहरे तक पकड़ ली.

कृष्णा ने गुंटूर में जिला स्तर तक क्रिकेट खेली है. उनका मानना है कि किसी भी इंसान के कैरेक्टर बनाने में खेल अहम रोल निभाता है. लेकिन क्रिकेट जैसे टीम गेम की जगह कृष्णा ने तय किया कि अपने दोनों बच्चों को इंडिविजुअल स्पोर्ट खिलाएंगे. वह कहते हैं कि ये सबसे मुश्किल फैसलों में था. लेकिन अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो इसे अपना सबसे अच्छा फैसला पाता हूं.

पिता को पता था कि वह रिस्क ले रहे हैं

यकीनन साहसिक फैसला था. भारतीय मध्यवर्गीय माइंडसेट में पूरा फोकस पढ़ाई पर होता है. कृष्णा कहते हैं कि साहस जरूरी था और पैसे भी. उनके मुताबिक, ‘मैं यह नहीं कहूंगा कि यह जुआ था. हमने सोचा कि अगर बच्चा खेल में आगे बढ़ता नहीं दिखता, तो दसवीं क्लास के बाद रोक देंगे. वहां से पढ़ाई पर ध्यान देंगे.’

कोच पुलेला गोपीचंद का मंत्र हमेशा से रहा है कि कामयाबी पाने के लिए फोकस बहुत जरूरी है. गोपी को मल्टीटास्किंग पसंद नहीं. मल्टीटास्किंग मतलब खेल के साथ पढ़ाई में भी बहुत अच्छा होने की कोशिश, पार्टियों में जाना, समय से खाना न खाना या न सोना वगैरह. श्रीकांत और नंदगोपाल की मांग राधा मुकुंद कहती हैं, ‘मैंने अपने बच्चों से एक ही बात कही थी. अगर खेल चुनो, तो गंभीरता से चुनो. अगर किताब चुनो, तो वो भी गंभीरता से चुनो. दो नावों में सवारी मत करना, नहीं तो डूब जाओगे.’

सालों तक एक साथ रहने से दोनों भाइयों में खास किस्म का जुड़ाव रहा. श्रीकांत कहते हैं कि वह नंदू के शुक्रगुजार हैं, ‘वह मुश्किल समय में हमेशा मेरे साथ रहा.’ किसी खिलाड़ी का दिमाग बहुत अकेलापन लिए होता है. कोर्ट पर सामने विपक्षी खिलाड़ी के मुकाबले अपने दिमाग में चल रही बातों से लड़ना ज्यादा मुश्किल होता है. परिवार से अलग रहते हैं. बहुत अलग तरह की जिंदगी जीते हैं. चोट से जूझते हैं. कई बार पहले राउंड में हारकर बाहर हो जाते हैं. इन सभी बातों से खिलाड़ी को जूझना होता है. श्रीकांत के लिए ऐसे समय मे उनके भाई सपोर्ट सिस्टम की तरह थे.

नंदगोपाल भारत के लिए डबल्स खेले हैं. उन्हें बड़ा अनुशासित माना जाता था. जबकि शुरुआत में श्रीकांत की ख्याति आलसियों वाली थी. श्रीकांत को खाने-पीने या एक्सरसाइज में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. टर्निंग पॉइंट था, जब नंदगोपाल को गोपीचंद एकेडमी में एडमिशन मिला. यहां श्रीकांत को शुरू में जगह नहीं मिली थी. उन छह महीनों में, जब श्रीकांत को यहां जगह नहीं मिली, वो जैसे किसी शेल में चले गए. स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया में वो प्रैक्टिस से अलग रहने लगे. यहां तक कि जूनियर खिलाड़ियों से भी हारने लगे.

गोपीचंद ने पहचाना श्रीकांत का टैलेंट

श्रीकांत जूनियर स्तर पर डबल्स खेलते थे. गोपी ने उनमें सिंगल्स प्लेयर देखा. उन्हें अपने कंफर्ट जोन से बाहर लाए. ऐसा कंफर्ट जोन, जहां वो सिर्फ कोर्ट के एक हिस्से में रहना चाहते थे और नेट पर ही खेलना पसंद करते थे. अब उन्हें सब कुछ करना था. इसके लिए तमाम तकनीकी सुधार करने थे. डबल्स खिलाड़ी कोर्ट के सेंटर मे ज्यादा हमले करता है, ताकि दो खिलाड़ियों में कनफ्यूजन हो. सिंगल्स में लाइन और फ्लैंक का इस्तेमाल बहुत जरूरी होता है. श्रीकांत को बैक कोर्ट में ज्यादा खेलना जरूरी था. उन्हें फुटवर्क में भी बदलाव की जरूरत थी.

श्रीकांत इसे लेकर आश्वस्त नहीं थे कि उन्हें अपने गेम में क्या बदलाव करने पड़ेंगे. यहां भी नंदगोपाल उनकी मदद के लिए आगे आए. नंदगोपाल सिंगल्स से डबल्स में गए थे. उन्होंने श्रीकांत से पूछा, ‘अगर गोपी सर को तुम पर इतना भरोसा है, तो तुमको खुद पर क्यों नहीं है.’ अब अगर पलटकर देखा जाए, तो गोपी का यह फैसला श्रीकांत के लिए बेस्ट था.

खेल परिवार में एक बात अच्छी होती है कि वे कामयाबी और नाकामी में खुद को एडजस्ट करना जानते हैं. वे आपमें भरोसा भरते हैं कि आज हारे हैं, तो कल जीत सकते हैं. राधा कहती हैं, ‘हमें बच्चों में ये भरोसा भरना चाहिए. उन्हें खुद पर भरोसा होना चाहिए. यह बहुत जरूरी है.’ कोर्ट पर कामयाबी इस परिवार के लिए बच्चों से दूर रहने के दर्द पर मरहम का काम करती है, ‘वे जीतते हैं, तो हम सारी तकलीफें भूल जाते हैं. अगर वे हारते हैं, तो जाहिर तौर पर हमें बुरा लगता है.’

श्रीकांत को अब वर्ल्ड चैंपियन मैटीरियल कहा जा रहा है. उनके पास विज्ञापनों से जुड़े तमाम ऑफर आ रहे हैं. परिवार यह समझता है कि नंदगोपाल को वैसी कामयाबी नहीं मिली, ‘सब कुछ अलग रखकर, यह भूलकर कि वो मेरा भाई है, मैं श्रीकांत पर फख्र करता हूं.’ नंदगोपाल के ये शब्द दोनों के बीच समझ को बताते हैं.

कृष्णा कहते हैं कि डबल्स में दो खिलाड़ियों का लगतार, एक साथ अच्छा प्रदर्शन जरूरी है. ऐसे में प्रदर्शन ऊपर-नीचे होते ही हैं. नंदगोपाल ने कुछ इंटरनेशनल टाइटल जीते हैं. लेकिन बड़े मौके उनसे दूर रहे हैं.

ये एक ब्राह्मण परिवार की कहानी है. इनका शाकाहार से मांसाहार की तरफ जाना ही आसान नहीं था. अब भी दोनों भाइयों का पसंदीदा खाना दाल और आलू फ्राई है. यही खाना श्रीकांत का इंतजार कर रहा है. जब वो बैडमिंटन से कुछ दिन ब्रेक लेंगे और गुंटूर में अपने घर में कुछ वक्त बिताएंगे.