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संडे स्पेशल: एक ऐसा फुटबॉलर जो मैदान के अंदर ही नहीं बाहर भी था 'हीरो'

ब्राजील के पूर्व फुटबॉलर सॉक्रेटीस ने फुटबॉल में कमाई अपनी लोकप्रियता का इस्तमाल सामाजिक उद्देश्यों के लिए किया

Rajendra Dhodapkar

खेलों के बड़े जानकार हमारे एक मित्र का कहना है कि आंकड़ों के हिसाब से सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर से बड़े खिलाड़ी साबित होते हैं. लेकिन अगर समग्र व्यक्तित्व और योगदान की बात करें तो गावस्कर का कद तेंदुलकर से बहुत बड़ा है. खिलाड़ियों को खेल के मैदान में उनके योगदान से आंका जाना चाहिए. लेकिन खेल के मैदान इसी धरती पर, इसी समाज में होते हैं. इसलिए खेल के मैदान पर जो होता है, उसका असर समाज पर... और समाज में जो होता है उसका असर मैदान पर ज़रूर होता है. इसीलिए खिलाड़ी राष्ट्रीय सीमा में या कभी-कभी राष्ट्र की सीमा से बाहर भी अपना अच्छा-बुरा असर छोड़ते हैं.

इसके बावजूद आमतौर पर खिलाड़ी समाज या राजनीति के मुद्दों से दूर रहते हैं. वे अपने को खेल और उससे मिलने वाले पैसे तक महदूद रखते हैं. अगर किसी मुद्दे से वे अपने आप को जोड़ते भी हैं तो वह सरकार द्वारा प्रचारित कोई सुरक्षित मुद्दा होता है या वे किसी एनजीओ वगैरह की मदद कर देते हैं. विवादास्पद मुद्दों से वे खुद को दूर ही रखते हैं, भले ही वह अपने देश या समाज के लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो. इसकी वजह यह होती है कि विवादास्पद मुद्दों से जुड़ने पर उनके खेल करियर पर बुरा असर पड़ सकता है. दूसरी वजह यह होती है कि खिलाड़ी छोटी उम्र से ही खेल में ऐसे मुब्तिला होते हैं कि बाहर की दुनिया को लेकर उनका ज्ञान और समझ बहुत कम होती है.


ऐसे में कोई खिलाड़ी अगर अपनी लोकप्रियता को अपने देश और समाज की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करता है और इसके लिए सरकार की नाराज़गी का जोखिम भी उठाता है तो वह सचमुच खास खिलाड़ी है. ऐसे खिलाड़ी आधुनिक खेल के इतिहास में कम हुए जिन्होंने गंभीर राजनैतिक मुद्दों के लिए जोखिम उठाया. रंगभेद के मुद्दे पर आवाज़ उठाने वाले अमेरिकी एथलीट मोहम्मद अली, रेवरेंड डेविड शेपर्ड जैसे कुछ नाम ज़ेहन में आते हैं.

1982 में थे ब्राजील टीम के कप्तान

सॉक्रेटीस एक ऐसे ही फ़ुटबॉलर थे. वे 1982 के विश्व कप में ब्राज़ील की टीम के कप्तान थे, जिस टीम को दुनिया की महानतम टीमों में गिना जाता है. कुछ लोग तो उसे 1970 की ब्राज़ील टीम से भी बेहतर मानते हैं. सॉक्रेटीस दुनिया के महानतम मिडफ़ील्डरों में गिने जाते हैं. उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि उनमें खिलाड़ी, बुद्धिजीवी और राजनैतिक कार्यकर्ता का दुर्लभ संगम मौजूद था.

सॉक्रेटीस छह फ़ीट चार इंच लंबे छरहरे खिलाड़ी थे, जो अपने बेतरतीब बालों और दाढ़ी की वजह से भी तुरंत नजर में आ जाते थे. उनका खेल बला का ख़ूबसूरत था. यूट्यूब पर उनके खेल के क्लिपिंग देखने लायक हैं. उनके खेल में वह बात थी जो रोजर फ़ेडरर या वीवीएस लक्ष्मण के खेल में है, यानी लय और नज़ाकत का कमाल मिश्रण. उनके खेल में एक इत्मीनान था और ऐसा लगता ही नहीं था जैसे वे ताकत का इस्तेमाल कर रहे हों. एक लेखक के मुताबिक ऐसा लगता ही नहीं था कि वे गोल करते गेंद पर प्रहार कर रहे हों, बल्कि ऐसा लगता था कि वे गेंद को सहलाकर ‘गुडबॉय’ कर रहे हों.

कोच संताना ने छुड़वाई थी सिगरेट और दारू की आदत

सॉक्रेटीस एक ठीक ठाक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए थे. उनके पिता सरकारी नौकरी में थे और पढ़ने के बड़े शौकीन थे. उन्होंने अपने घर में अपनी निजी लाइब्रेरी बना रखी थी. जब ब्राजील में फौजी तानाशाही आई तो उन्होंने अपनी तमाम किताबें नष्ट कर दीं, क्योंकि हर तानाशाही पढ़ने-लिखने के और पढ़े-लिखे लोगों के खिलाफ होती है. सॉक्रेटीस तब आठ साल के थे और तब भी जानते थे कि उन किताबों का उनके पिता के जीवन में कितना महत्व है.

दिलचस्प बात यह है कि सॉक्रेटीस ने डॉक्टरी की पढ़ाई की और जब वे फुटबॉल में अपना नाम बना रहे थे तब साथ-साथ मेडिकल कॉलेज में भी पढ़ते थे. सॉक्रेटीस नौजवानी में बीयर के बहुत शौकीन थे और धुआंधार सिगरेट पीते थे. कोच संताना ने उनसे कहा कि अगर उन्हें बड़ा खिलाड़ी बनना है तो ये आदतें छोड़नी होंगी. 1982 के विश्वकप के करीब साल भर पहले उन्होंने ये आदतें छोड़ दीं और अपनी फिटनेस पर जबर्दस्त काम किया. वे इतनी मेहनत करते थे कि अक्सर उन्हें उल्टियां हो जाती थीं. लेकिन वे लगे रहते थे. विश्वकप की टीम में वे सबसे ज्यादा फिट खिलाड़ियों में थे.

सॉक्रेटीस की इस लगन के पीछे फुटबॉल में कामयाब होने का जज़्बा तो था ही, उनके दिमाग में यह भी था कि फुटबॉल मे मिली लोकप्रियता को वे बड़े सामाजिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करेंगे. जब वे ब्राज़ील में कोरिएथेंस से लिए खेल रहे थे तब उन्होने एक कोरिएथेंस डेमॉक्रेसी लीग बनाई, जिसकी मांगें देश में लोकतंत्र की स्थापना, गरीबों की हालत में सुधार, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की बेहतरी थीं.

जन आंदोलनों का बने गए थे नए चेहरा 

सॉक्रेटीस के हेडबैंड पर किसी प्रायोजकों का विज्ञापन नहीं, ‘हम अपना राष्ट्रपति खुद चुनना चाहते हैं’ जैसे नारे लिखे होते थे. उनका कहना था कि हम खिलाड़ियों को जितना बड़ा मंच मिलता है, उतना किसी नेता को मिले तो वह दुनिया इधर से उधर कर दे, तो हम इस लोकप्रियता का लाभ व्यापक सामाजिक हित में क्यों नहीं करते. ज़ाहिर है, एक तानाशाही व्यवस्था में यह जोखिम भरा काम था लेकिन सॉक्रेटीस नहीं डरे.

वे सिर्फ प्रचार तक सीमित नहीं रहे. वे लगातार जन आंदोलनों में भी सक्रिय बने रहे. यह सक्रियता उनके खेल से रिटायर होने के बाद भी बनी रही. वे मेडिकल प्रैक्टिस करने लगे और अखबारों में खेल, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर लेख लिखते रहे. उन्होंने अपने सामने फ़ौजी तानाशाही का अंत भी देखा. वे वामपंथी विचारों की ओर झुके हुए थे और फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेवेरा जैसे क्रांतिकारियों के प्रशंसक थे. हालांकि लातिन अमेरिकी समकालीन वामपंथी नेताओं के प्रति उनके विचार उतने अच्छे नहीं थे.

उनकी शराब की आदत हालांकि स्थायी रूप से नहीं छूटी और वे फिर शराब पीने लगे थे. उनका मानना था कि वे शराब तो पीते हैं, लेकिन उनका इस आदत पर नियंत्रण है और वे बिना शराब के भी जी सकते हैं. उनकी मौत असमय यानी 2011 में हुई जब उनकी उम्र सिर्फ 56 साल की थी. उनकी मौत के कारणों के बारे में जानकर यह लगता है कि उसमें उनकी शराबनोशी का बड़ा हाथ था. अब के दौर में जब खेल ज्यादा व्यावसायिक होता जा रहा है और खिलाड़ी खेल की अपनी दुनिया के ग्लैमर और पैसे में ज्यादा मस्त हैं और सामाजिक राजनैतिक दृष्टि से ज्यादा अज्ञानी होते गए हैं, तब सॉक्रेटीस जैसे खिलाड़ी को याद करना ज्यादा जरूरी है.