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सपनों का ‘दंगल’ जहां से हकीकत लेगी ओलिंपिक मेडल की शक्ल

ओलिंपिक मेडलिस्ट योगेश्वर दत्त की कुश्ती एकेडमी का सफर, हरियाणा के गोहाना के नजदीक है एकेडमी

Shailesh Chaturvedi

दिल्ली-चंडीगढ़ हाइवे पर दौड़ती गाड़ियां. मानो जिंदगी में रफ्तार के अलावा कुछ और नहीं है. हॉर्न बजाते ट्रक, बस, कारों के बीच रास्ता बदलता है. सड़क बदलते ही जैसे जिंदगी बदल जाती है. चौड़ी सड़कों की जगह पतली, टूटी हुई, कहीं पगडंडी जैसी सड़क ले लेती है. हाइवे के दोनों तरफ भव्य होटल जैसे हो चुके ‘ढाबों’ की जगह खुले खेत ले लेते हैं, जिसमें कहीं कोई नीलगाय का झुंड नजर आता है. उसी बीच एक बोर्ड दिखाई देता है भगवान परशुराम कॉलेज का

यह बली ब्राह्मण गांव है. हरियाणा के गोहाना में छोटा सा गांव. सुबह के करीब छह बजे हैं. कॉलेज के एक कोने में काफी हलचल दिख रही है. कुछ मोटे रस्से बंधे हैं एक्सरसाइज के लिए. कुछ बच्चे यहां जमा हैं. उससे कुछ दूर अखाड़ा है, जहां कुश्ती की प्रैक्टिस हो रही है. बीच-बीच में पहलवान अपने शरीर पर वो मिट्टी मलते हैं. उससे नजदीक एक छोटी सी जगह पर जूस तैयार किया जा रहा है. उसके साथ एक हॉल है, जहां मैट पर ट्रेनिंग चल रही है.


दीवारों पर तस्वीरें लगी हैं, जिसमें योगेश्वर दत्त, बजरंग पुनिया और रामफल दिखते हैं. मैट के एक कोने पर एक शख्स बैठा है, जो खुद एक्सरसाइज कर रहा है. लेकिन नजरें पूरे मैट पर हैं. यह योगेश्वर दत्त हैं. 2012 ओलिंपिक के मेडलिस्ट. योगेश्वर की नजरें बीच में दरवाजे की तरफ जाती हैं. उन्हें अंदाजा लगता है कि कुछ मेहमान आ गए हैं. एक बच्चे को बुलाकर कुछ कुर्सियां लाने को कहते हैं. उसके बाद फिर आवाज गूंजती है. वो किसी बच्चे के दांव से खुश नहीं हैं.

यह कुश्ती का अनुशासन है. यहां एक बार मैट पर आप हैं, तो बाहरी दुनिया से अलग होना जरूरी है. इसी अनुशासन में योगेश्वर बचपन से रहे हैं. बचपन में गांव से शुरुआत करने के बाद वो काफी साल दिल्ली के छत्रसाल अखाड़े में रहे. हर जगह का नियम वही, प्रैक्टिस के बीच कुछ और नहीं.

दिन के करीब दस बज रहे हैं. प्रैक्टिस खत्म होती है. योगेश्वर अभिवादन करते हैं. इस बीच मोबाइल में कुछ मैसेज भी देखते हैं. रेसलिंग में सोशल मीडिया पर सबसे एक्टिव लोगों में हैं योगेश्वर. खेल से लेकर राजनीति तक हर मामले में उनका एक स्टैंड होता है. एक सवाल जेहन में आता है, ‘बच्चों को मोबाइल इस्तेमाल करने की आजादी है?’ जवाब वही, जिसकी उम्मीद थी, ‘बिल्कुल नहीं.. अगर कोई बच्चा मोबाइल के साथ दिखेगा भी, तो उसे एकेडमी से बाहर कर दिया जाएगा. जब तक एकेडमी में हैं, कोई मोबाइल नहीं.’

योगेश्वर ने एक साल पहले एकेडमी शुरू की थी. उनका सपना था कि एकेडमी शुरू करें. वहां से ओलिंपिक मेडलिस्ट निकलें. वही सपना उनके लिए अहम है. वो अब भी रेसलिंग करते हैं. वो वर्ल्ड चैंपियनशिप में हिस्सा लेना चाहते हैं, क्योंकि यही वो इवेंट है, जहां उन्होंने मेडल नहीं जीता. लेकिन उसके अलावा, अब उनके लिए सपना है, तो अपने ‘बेटे’ बजरंग को ओलिंपिक में जीतते देखना और एकेडमी से कुछ चैंपियन तैयार करना. बजरंग पुनिया उनके शिष्य हैं, जो उनकी ही वेट कैटेगरी में देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. उनकी कामयाबी में योगेश्वर अपनी कामयाबी मानते हैं. लेकिन इसके साथ एक सपना और. उनकी अपनी एकेडमी से कई बच्चे निकलें, जो देश का नाम रोशन करें.

एकेडमी के लिए जगह कॉलेज की है. कुछेक लोगों का सपोर्ट योगेश्वर को मिला है. इसके साथ उनकी अपनी मेहनत है. बच्चों के रहने की सुविधा यहां है. करीब 200 बच्चे हैं. इसमें ज्यादातर हरियाणा या यूं कहें कि एनसीआर के हैं. लेकिन इससे बाहर के भी बच्चे यहां आते हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से भी बच्चे हैं. उनके रहने और खाने का खयाल रखा जाता है. यहां तक कि पढ़ाई का भी. योगेश्वर मानते रहे हैं कि पहलवानों के लिए अंग्रेजी न जानना ठीक नहीं है. कुछ समय पहले उन्होंने कहा था, ‘बाहर जाते हैं, तो अंग्रेजी जरूरी है. ऐसे में मैं नहीं चाहता कि हमारे बच्चे पीछे रह जाएं. उन्हें पूरी तरह तैयार होना चाहिए. दुनिया को समझना चाहिए.’

प्रैक्टिस के बीच योगेश्वर हर बच्चे के साथ नजर आते हैं. वो उन्हें दांव सिखाते हैं. गलत दांव लगाने पर समझाते हैं. कभी घूरते हैं.. और कुश्ती की परंपरा के मुताबिक कई बार नाराजगी थप्पड़ की शक्ल में भी दिखती है, ‘देखिए जी, हमारे गुरु जी ने हमें जैसे सिखाया है. हम भी उसी तरह सिखाते हैं. तबसे अब तक काफी कुछ बदला है. टैक्नीक बदली है, जमाना बदला है. लेकिन गुरु-शिष्य परंपरा हमारे खेल में वैसी ही है.’

गुरु-शिष्य परंपरा, जहां बाहर के जूते-चप्पल पहनकर कुश्ती हॉल में नहीं जाते. परंपरा, जहां अपने से बड़े को देखते ही पांव छूना जीवन शैली का हिस्सा है. जहां गुरु का एक-एक शब्द आपके लिए आदेश है. बच्चों को बाहर जाने की इजाजत नहीं है. बिना इजाजत घर में बात नहीं कर सकते. जहां जगना, सोना, रहना सब कुछ नियम के मुताबिक होता है, ‘डिसिप्लिन के बिना चैंपियन नहीं बनते.’

कुश्ती दरअसल, परंपरा का ही खेल है. शायद यही वजह है कि आपको कुश्ती में शहरी तौर-तरीके नहीं दिखेंगे. योगेश्वर कहते हैं, ‘बड़े शहरों में भी कुश्ती होती है. हमने भी दिल्ली में ही रहकर तैयारी की है. लेकिन यह सही है कि अखाड़े में गांव के लोग आते हैं. या बड़े शहरों से वो लोग आते हैं, जिनका परिवेश गांव का है.’ वही परिवेश यहां नजर आता है. सुबह तीन घंटे और शाम को तीन घंटे प्रैक्टिस. उसके बीच खाना. पढ़ाई के वक्त पढ़ाई. उसके अलावा, सोना. करीब साढ़े दस बज गए हैं. खाना तैयार हो चुका है. हमारी टीम अब विदाई चाहती है. लेकिन अपने फोन में सुबह की अहम खबरें देख रहे योगेश्वर अभी एक और परंपरा का निर्वाह चाहते हैं. पहलवान के दर से कोई बगैर खाए कैसे जा सकता है, ‘खाना खाके जाना. बिना खाना खाए नहीं.’

दाल, दही, फल, सलाद, अंडे के साथ चूल्हे की सौंधी महक वाली रोटियां मेस में तैयार हो रही हैं. बच्चे एक-एक करके अपनी प्लेट में खाना ले रहे हैं. ठीक से खाना खाया, इसे देखने के लिए भी लोग तैनात हैं. खाना जारी है, जिसके बाद बच्चों को आराम करना है. हमें खाने के बाद वापस उस पतली सी सड़क पर निकल जाना है, जिसे पगडंडी भी कह सकते हैं. वहां से थोड़ी चौड़ी सड़क पर होते हुए हाइवे वापस आता है. फिर शोर, फिर हॉर्न, फिर गाड़ियों का धुआं. वो दुनिया पीछे रह गई, जहां इन सबसे अलग 200 बच्चे सिर्फ और सिर्फ दुनिया में अपना नाम करने के लिए कोशिश कर रहे हैं. बिना थके, बिना रुके, परिवार, मोबाइल, सोशल मीडिया, शोर-शराबे सबसे दूर.