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भारतीय हॉकी में अब नहीं होगा कोई ‘राजीव मिश्रा’

पिछले 20 साल में पूरी तरह बदल गया है भारतीय हॉकी में सपोर्ट सिस्टम

Shailesh Chaturvedi

साल था 1998. तारीख थी 11 जनवरी. तब नेशनल स्टेडियम का नाम मेजर ध्यानचंद स्टेडियम नहीं हुआ था. भारत और जर्मनी के बीच हॉकी मैच था. राजीव मिश्रा का आखिरी इंटरनेशनल मैच. वही राजीव मिश्रा, जिनका नाम हर जूनियर वर्ल्ड कप के समय आता है. 1997 के जूनियर वर्ल्ड कप में रनर अप रही भारतीय टीम के हीरो थे राजीव मिश्रा. इसलिए जब वर्ल्ड कप आता है, उनका नाम भी आता है. एक त्रासदी याद दिलाते हुए.

करीब 20 साल हो गए हैं. हर बार भारतीय हॉकी उनका नाम याद करती है. कैसे भविष्य का धनराज पिल्लै या मोहम्मद शाहिद माना जाने वाला खिलाड़ी चोट और उदासीनता का शिकार बना था. राजीव मिश्रा के घुटने में चोट थी. सर्जरी हुई. बगैर पूरी फिटनेस के उन्हें दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में फटे टर्फ पर उतार दिया गया. चोट बिगड़ गई. उसके बाद वो कभी नहीं खेले.


खेलना तो दूर, हॉकी से उनका रिश्ता भी टूटता गया. यहां तक कि अनुशासित जिंदगी से उनका रिश्ता टूटता चला गया. कुछ समय पहले उन्हें चोट की वजह से दिल्ली के एक अस्पताल लाया गया था. वजह थी कि वो गिर पड़े थे. गिरने के पीछे अवसाद से लेकर शराब तक तमाम वजहें बताई जाती हैं. लेकिन बगैर राजीव से बात किए सही वजह बता पाना संभव नहीं. राजीव ने अपने आपको उस दुनिया से अलग कर दिया, जहां हॉकी है, खिलाड़ी हैं, मीडिया है.

आज, जब भारतीय हॉकी में जश्न का समय है. ये सवाल उठता है कि क्या वाकई भारतीय हॉकी के नए सेट-अप में फिर किसी का साथ वो हो सकता है, जो राजीव मिश्रा के साथ हुआ था?

और भी खिलाड़ी चोट के बाद भटके हैं

राजीव मिश्रा की तरह ही विलियम खाल्को थे. बड़े सपने लेकर आए थे. उड़ीसा के  ऐसे गांव से, जहां बिजली-पानी नहीं था. फोन करने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. खाल्को को अगला दिलीप टिर्की कहा जाता था. वो भी चोटिल हुए. जिंदगी को लेकर अनुशासनहीन हुए. आज वो भी कहीं हाशिए पर हैं.

मुद्दा यही है कि सिस्टम से मदद नहीं मिली. लेकिन उसके बाद इन खिलाड़ियों ने भी खुद को खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. याद कीजिए, जब बोरिस बेकर विंबलडन में हार गए थे. वो दौर, जब विंबलडन की जीत से उनकी पहचान जुड़ी थी. बेकर प्रेस कांफ्रेंस में आए और उन्होंने कहा कि कोई मरा नहीं है, मैं सिर्फ एक मैच हार गया हूं. यहां भी खेल करियर खत्म हुआ था. निराशा थी. लेकिन जिंदगी पर इसका कुछ ज्यादा असर पड़ गया.

लाकड़ा ने नहीं हावी होने दी निराशा

इन घटनाओं से अलग याद करना चाहिए बिरेंद्र लाकड़ा को. लाकड़ा को भारतीय मिड फील्ड की जान माना जाता है. उन्हें 2016 की हॉकी इंडिया लीग के समय चोट लगी. ज्यादातर विशेषज्ञों ने माना कि लाकड़ा रियो ओलिंपिक नहीं खेल पाएंगे. लाकड़ा ने इसे चुनौती की तरह लिया. उन्होंने फिटनेस पाने की भरसक कोशिश की.

फिजियो और ट्रेनर के मुताबिक रियो के लिए टीम चुनी गई, तब उनकी फिटनेस 85 से 90 फीसदी थी. यानी वो इवेंट के समय तक पूरी तरह फिट हो सकते थे. इसके बावजूद थिंक टैंक ने उन्हें न लेने का फैसला किया. उन्हें बैंगलोर में रखा. उनसे कोच सहित सभी सीनियर लोगों ने बात की. उनकी निराशा कम नहीं हुई. लेकिन जिंदगी को अनुशासन से अलग ले जाने की बात उन्होंने नहीं सोची.

लाकड़ा आज फिर टीम का हिस्सा हैं. वो भी बड़ी आसानी से राजीव मिश्रा हो सकते थे. वो बड़ी आसानी से भटक सकते थे. लेकिन भारतीय हॉकी में 19 साल का फर्क यही सब बताता है कि दुनिया राजीव मिश्रा से बहुत आगे निकल आई है.

लाकड़ा ने कभी हिम्मत नहीं हारी. अगर वो निराश होते थे, तो उन्हें समझाने के लिए पूरी टीम थी. यही राजीव मिश्रा के समय नहीं था. उस दौर के कोच के लिए, ‘जान लड़ा दो’ का नारा सबसे ऊपर था. कोई थिंक टैंक नहीं था, जो राजीव को सही या गलत बता सकता. खुद राजीव की उम्र भी कम थी, जहां उन्होंने इस तरह की बात सोची नहीं.

जूनियर चैंपियंस ने पहले भी झेली हैं त्रासदी

भारतीय जूनियर हॉकी ने कई त्रासदियां देखी हैं. 1997 जूनियर वर्ल्ड कप के चैंपियन खिलाड़ी थे राजीव मिश्रा. 2001 के चैंपियन खिलाड़ियों में एक थे जुगराज सिंह. वो भयंकर सड़क दुर्घटना के शिकार हुए थे. उनमें भी वापसी का जज्बा था. तब तक हॉकी में हालात थोड़े सुधरे थे. उनका बेहतर तरीके से ध्यान रखा गया था.

हालांकि कहा जा सकता है कि वो वापसी जुगराज की मानसिक मजबूती की वजह से ही संभव थी. डॉक्टर यहां तक कह रहे थे कि शायद वो कभी अपने पांव पर खड़े न हो पाएं. लेकिन जुगराज खड़े ही नहीं हुए, घरेलू हॉकी भी खेली. आज भी वो पंजाब पुलिस में अपना काम कर रहे हैं.

इसी तरह 2005 के स्टार संदीप सिंह को अजीब दुर्घटना का सामना करना पड़ा था. उन्हें शताब्दी एक्सप्रेस में अचानक चली गोली पीठ पर लग गई थी. संदीप ने भी वापसी की. वो तो इंटरनेशनल भी खेले. यहां भी खिलाड़ियों की देखभाल के मामले में हालात थोड़ा और बेहतर हुए थे.

अब वो जमाना नहीं रहा. उस तरह के कोच नहीं रहे. कम उम्र के खिलाड़ियों को समझाने के लिए पूरी टीम होती है. 20 साल ने भारतीय हॉकी का बदलाव देखा है. दुनिया बदलती देखी है. राजीव मिश्रा के बहाने भारतीय हॉकी की बदलती दशा को देखना चाहिए. ... और ये मानना चाहिए कि अब भारतीय हॉकी में अब किसी का हश्र राजीव मिश्रा जैसा नहीं होगा. भारतीय हॉकी में अब संता सिंह, परविंदर सिंह, अजित पांडेय, हरमनप्रीत सिंह, हरजीत सिंह होंगे... राजीव मिश्रा नहीं.