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बैडमिंटन वालों का बड़प्पन सीखें क्रिकेट वाले

कोच गोपीचंद ने लिखी है बैडमिंटन की कामयाबी की दास्तान

Navin Kumar

अब जबकि विवाद की राख ठंडी पड़ चुकी है, कुंबले अपने घर लौट चुके हैं और कोहली ने अपने क्रोध को अपने मनचाहे अंजाम तक पहुंचा दिया है क्रिकेट में सुलगी आग की बात हो जाए. कोई माने न माने लेकिन इस पूरे विवाद ने एक बार फिर से साबित किया है कि भारतीय क्रिकेट की सितारा संस्कृति उसकी गरिमा और गौरव दोनों पर भारी पड़ रही है. कोहली के स्टार हो जाने की कीमत उसे कुंबले को गंवाकर चुकानी पड़ी.

हालांकि आपको यह तुलना विचित्र लगेगी लेकिन क्रिकेट को बैडमिंटन से सीखने की जरूरत है. भारतीय बैडमिंटन इस समय जिस शिखर पर है वह कल्पना से परे है. अभावों, अवरोधों और असफलताओं के जिस खोह से बैडमिंटन निकलकर यहां तक पहुंचा है क्रिकेट वालों को उसपर बैठकर सोचना चाहिए. दोनों खेलों का अंतर केवल मैदान के आकार और खेल के तरीके का अंतर नहीं है, अपना हासिल रचने के लिए अपनाई गई पद्धतियों का भी अंतर है.


गोपीचंद ने  तोड़ी थी 'चीन की दीवार'

एक समय था जब बैडमिंटन की दुनिया में चीन, कोरिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, स्कैंडेवियाई देशों का दबदबा था. चीन का वर्चस्व तो ऐसा था कि उसे दीवार कहा जाता था. भारत इस दीवार को तोड़ने की सोच भी नहीं सकता था. उसी दौर में पुलेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीती. इक्कीसवी सदी के पहले साल में मिली इस उपलब्धि को क्रिकेट के खुमार में डूबा देश बहुत समझ नहीं पाया था. नतीजा गोपीचंद स्टार नहीं बन पाए. सुविधाओं की कमी, कोचिंग के अभाव और खुराक वगैरह की दिक्कतों के कारण वो इस रफ्तार को बरकरार नहीं रख सके.

एक खिलाड़ी के तौर पर सिर्फ सात साल में गोपीचंद का करियर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया. लेकिन बैडमिंटन उनके लिए खेल नहीं जीवन था. उन्होंने तय किया कि जिन मुश्किलों ने उन्हें हरा दिया उनसे वो अगली नस्लों को नहीं हारने देंगे. घर गिरवी रखा, दोस्तों से उधार लिया और सारी बचत झोंककर बैडमिंटन एकेडमी की स्थापना की.

बतौर कोच शुरू की दूसरी पारी

एक महान खिलाड़ी अब कोच की भूमिका में था. एक सख्त, अक्खड़ और जिद्दी कोच जिसके लिए खेल से बड़ा कुछ नहीं था. इसके नतीजे के बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं है. सायना नेहवाल, पीवी संधु, पी कश्यप, किदांबी श्रीकांत और अरुंधति पंतावने जैसे सुनहरे नामों को पुलेला गोपीचंद नाम के कोच ने भारत के माथे पर सजाया है. अगर धार्मिक आग्रहों को किनारे रखें तो गोपीचंद ने खुद शाकाहारी होने के बावजूद खिलाड़ियों को मांसाहार के लिए प्रेरित किया, क्योंकि वो मानते थे उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन खिलाड़ियों का स्टैमिना बढ़ाने में कारगर साबित होगा. कोहली एंड कंपनी को इसके बारे में जानना चाहिए.

भारतीय बैडमिंटन को क्रिकेट की तरह का बाजार थाल में सजाकर नहीं मिला है. सिर्फ दस साल पहले तक बैडमिंटन भारत के लिए एक टापू की तरह रहा है. इंडोनेशिया, कोरिया, हांगकांग और ताइपे जैसे देशों के दबदबे के सामने यूरोप के दिग्गज भी कहीं नहीं टिकते थे. चीन की दीवार के सामने किसी की कुछ नहीं चलती थी. लेकिन अगर आज यह दीवार टूटी है तो इसके पीछे इस खेल को लेकर एक कोच की निष्ठाएं और उसका निर्देशन है. सिंगापुर ओपन के फाइनल में तो मुकाबला ही दो भारतीयों के बीच था. साई प्रणीत और किदांबी श्रीकांत. लेकिन किसी ने किदांबी, प्रणीत, सिंधु या कश्यप के गोपीचंद से मतभेदों के बारे में सुना है? यही वो अंतर है जहां क्रिकेट बैडमिंटन से हार जाता है.

आज बैडमिंटन स्टार खिलाड़ियों से भरा पड़ा है. लेकिन उनमें आप स्टार नहीं पाएंगे. क्रिकेट की हर ट्रॉफी अपने साथ ड्रेसिंग रूम में दंभ भी ले आती है. गोपीचंद ने यही नहीं होने दिया. वह सिर्फ बैडमिंटन के रहे, किसी खिलाड़ी के नहीं. 2012 के लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद सायना नेहवाल ने अपने आपको स्टार मानने की भूल की थी. वो गोपीचंद को निजी जागीर समझ बैठी थीं. निर्देशों को दरकिनार करना शुरू किया. अपने फैसले लेने शुरू किए. इसके बाद ही उनका ढलान शुरू हुआ और वो आजतक इस ढलान को रोक नहीं पाई हैं. हालांकि उन्होंने कभी भी गोपीचंद के बारे में एक शब्द नहीं कहा.

कोच किसी भी टीम की आत्मा होता है. उसे आत्मसात करना होता है. आप दंगल फिल्म का अंतिम सीन याद कीजिए. जब फाइनल मुकाबला चल रहा होता है और आमिर खान को धोखे से स्टेडियम के एक कमरे में बंद कर दिया जाता है. लड़की की निगाहें बार-बार उसे ढूंढती हैं और जब वह उसे नहीं पाती है तो उसके सबक को सीने में उतारकर प्रहार करती है. कोहली अपने स्टारडम की नीम बेहोशी में इतनी बारीकियां समझने को भले तैयार न हों लेकिन इसने उनसे महान बनने का मौका छीन लिया है.

बेदाग रहा है कुंबले का करियर

समकालीन क्रिकेट में कुंबले से बड़ा स्पिनर कोई नहीं है. शेन वॉर्न और मुथैया मुरलीधरन की सफलताएं भले कुंबले से बड़ी रही हों लेकिन वो बेदाग नहीं रहे हैं. ड्रग लेने या बॉलिंग एक्शन जैसे दाग कुंबले पर कभी नहीं लगे. इंटरनेशनल क्रिकेट में 959 विकेट की बराबरी की उम्मीद भारत में तो नजर नहीं आती अभी. लेकिन सवाल केवल निजी रिकॉर्ड का नहीं है. क्रिकेट को लेकर कुंबले की प्रतिबद्धताएं असंदिग्ध रही हैं. आपको याद हो तो 12 मई 2002 को एंटीगा टेस्ट में वेस्टइंडीज के खिलाफ मुकाबले में अपने चोटिल जबड़े के साथ वो मैदान में उतरे थे. ऐसी स्थिति में भी उन्होंने ब्रायन लारा का विकेट उखाड़ा था. क्रिकेट और क्रिकेट की परख इतनी कि द्रविड़ के बाद जब कप्तान बने और टीम ऑस्ट्रेलिया जा रही थी तो 16 खिलाड़ियों में सहवाग को नहीं रखा गया था. कुंबले ने कप्तान के तौर पर अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सहवाग की मांग की थी. सहवाग ने उसी दौर में अपनी यादगार पारियां खेली हैं.

कोहली को क्रिकेट के इतिहास से भी सबक लेना चाहिए. अभी भी क्रिकेट के बहुत सारे विश्लेषक मानते हैं कि विनोद कांबली सचिन तेंदुलकर से ज्यादा प्रतिभावान बल्लेबाज हुआ करते थे. लेकिन कांबली ने स्टार होते ही आचरेकर को दरकिनार करना शुरू किया. खेल को लेकर जो अनुशासन, समर्पण और त्याग होना चाहिए वह तेंदुलकर में आचरेकर ने बचपन में ही भर दिया था. कांबली इस मामले में अभागे रहे और अपने करियर के शैशवकाल में ही अराजकता के शिकार हो गए. आपको सफलताएं यकीनन स्टार बनाती हैं लेकिन मैदान में नहीं. मैदान से बाहर. जैसे ही कोई खिलाड़ी मैदान में अपने स्टारडम की धौंस जमाने लगता है वह अपने ही हाथों से अपनी दुर्गति लिखने लगता है.

अंत में कुंबले के संन्यास पर महान क्रिकेट समीक्षक हर्षा भोगले की एक टिप्पणी – “एक समय हम कुंबले को क्रिकेट के दूसरे महानायकों की तरह ही आंकड़ों की वजह से याद रखेंगे. वे आंकड़े असाधारण हैं. उससे जो तस्वीर बनती है वह सुंदर तो है लेकिन अधूरी है. वो नहीं बताएंगे कि किस गरिमा के साथ उन्होंने यह खेल खेला. वो नहीं बताएंगे कि अपनी निष्ठाओं की वजह से उन्होंने क्रिकेट में कैसा सम्मान अर्जित किया. और यह सब केवल गेंदबाज के बतौर नहीं, बल्कि एक इंसान के बतौर भी.” क्या विराट कोहली को यकीन है कि जब वह क्रिकेट के मैदान से अपनी अंतिम पारी खेलकर लौट रहे होंगे तो उनके लिए ऐसे शब्द लिखे जाएंगे? अगर नहीं तो उन्हें कुंबले से सार्वजनिक तौर पर माफी मांग लेनी चाहिए. इतना झुककर ही वो आसमान की ऊंचाई हासिल कर सकते हैं. वर्ना कप्तान न वो पहले हैं और न आखिरी. उन्हें याद रखना चाहिए कि कप्तान होने का मतलब हमेशा महान होना नहीं होता.