आज हम आपको एक कहानी सुनाएंगे. सुनाएंगे नहीं, पढ़ाएंगे. प्रमोद पाहन की कहानी. मरांग गोमके की कहानी. यह कहानी खेल से जुड़ी है. भारत के पहले ओलिंपिक गोल्ड से जुड़ी है. यह कहानी राजनीति से जुड़ी है. यह कहानी आदिवासियों से जुड़ी है. जिन्हें इतिहास में रुचि नहीं है, उन्हें भी इसे जानना चाहिए.
अमरू पाहन के बेटे प्रमोद पाहन का जन्म 3 जनवरी 1903 में हुआ था. झारखंड में खूंटी के पास टकरा पठानटोली में. उस जमाने में जन्म तारीख याद रखा जाना संभव था नहीं. पिता 3 जनवरी 1911 को स्कूल में दाखिला दिलाने ले गए, तो जन्म तारीख 3 जनवरी मान ली गई. यहीं पर नाम बदल गया. नाम रखा गया जयपाल सिंह. अब आप समझ गए होंगे. भारत के पहले ओलिंपिक हॉकी कप्तान जयपाल सिंह मुंडा. जिनकी कप्तानी में भारत ने इतिहास का पहला गोल्ड जीता.
जयपाल सिंह पर एक शब्द बिल्कुल सटीक बैठता है- विद्रोही. उनकी पूरी जिंदगी विद्रोह से भरी रही. विद्रोह ही तो था कि उन्होंने गुलाम भारत में हॉकी के लिए अपनी ऑक्सफोर्ड की आईसीएस डिग्री को दांव पर लगा दिया. वह इंग्लैंड में पढ़ रहे थे, जब उनसे भारतीय टीम की कप्तानी करने को कहा गया.
पढ़ाई छोड़कर गए टीम की कप्तानी करने
1928 में एम्सटर्डम ओलिंपिक के लिए जाने की इजाजत नहीं दी गई. विद्रोह कर दिया और चले गए. ये ऑफर इफ्तिखार अली खां पटौदी के लिए भी था. लेकिन पटौदी ने पढ़ाई और क्रिकेट को चुना. जयपाल सिंह मुंडा को आजीवन आईसीएस पूरा न कर पाने का खामियाजा भुगतना पड़ा. लेकिन विद्रोही इन बातों की परवाह कहां करते हैं. वो तो जुर्माना मांगे जाने पर ओलिंपिक के बाद सब कुछ छोड़कर भारत वापस आ गए. दिलचस्प ये है कि उसके बाद विद्रोही तेवर के चलते उन्हें अगले ओलिंपिक के लिए नहीं चुना गया.
विद्रोह ही था, जिसकी वजह से वो 1928 ओलिंपिक का फाइनल नहीं खेले. फाइनल के दिन वो वापस इंग्लैंड चले गए. कुछ जगहों पर इसकी वजह पढ़ाई कही जाती है, लेकिन कुछ इतिहासकार इसके लिए टीम में दखलंदाजी को मानते हैं, जो उन्हें बर्दाश्त नहीं थी.
शिक्षक बने, लेकिन रंगभेद की वजह से किया विद्रोह
भारत आए, तो कई बड़े संस्थानों के साथ काम किया. फिर शिक्षक बन गए. रायपुर में प्रिंसेज कॉलेज के प्रिंसिपल बने. यहां शाही खानदान के बच्चों ने एक ‘काले आदिवासी’ से पढ़ना कुबूल नहीं किया.
पांच बार लोकसभा सांसद बने
जयपाल सिंह ने वंचित तबके को बराबरी दिलाने की लड़ाई शुरू की. आदिवासी महासभा बनाई. लगातार पांच लोकसभा चुनाव उन्होंने सीखे. भारतीय संविधान में आदिवासियों को आरक्षण दिलाने के लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी. उस दौर में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू का विरोध किया.
अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर संविधान में संशोधन के मामले में हुई बहस में उन्होंने भी हिस्सा लिया. 228-20 से वो बिल पास हुआ. विरोध में जो 20 वोट पड़े, उनमें एक जयपाल सिंह मुंडा का था. यह भी उनके विद्रोही स्वभाव को ही दिखाता है. उन्हें मरांग गोमके यानी महान नेता कहा जाता था.
आज अगर झारखंड अलग राज्य है, तो उसके बीज उसी वक्त बोए गए थे. आज उनका नाम सिर्फ किताबों में दबकर रह गया है. कुछ साल पहले एक अखबार में उनकी दरकती कब्र और घर का जिक्र था. वो स्कूल भी है, जिसमें जयपाल सिंह मुंडा पढ़े थे. उसमें अरसे से वही तीन कमरे हैं.
उनकी एक किताब है, जो उनके बेटे की वजह से पब्लिश हुई. वो किताब ही है, जो उनके बारे में काफी कुछ बताने का काम करती है. एक ऐसी शख्सियत के बारे में, जिसे खेल पसंद था, जिसे पढ़ाई पसंद थी, जिसे नाच-गाना पसंद था, जिसे मज़लूमों की आवाज बुलंद करना पसंद था. कुल मिलाकर जिसे विद्रोही होना पसंद था. आज उन्हीं जयपाल सिंह मुंडा का जन्मदिन है. भारत के पहले ओलिंपिक गोल्ड मेडलिस्ट, जिन्होंने विद्रोह की वजह से गोल्ड मेडल मैच में हिस्सा नहीं लिया.
(यह लेख हमने पिछले साल 3 जनवरी को छापा था. हम इसे दोबारा पब्लिश कर रहे हैं)