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दीपा कर्माकर- द स्मॉल वंडर.... 'गधे और भैंस' के आसमान छूने की कहानी

Dipa Karmakar: The Small Wonder दीपा कर्माकर की आत्मकथा उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो खिलाड़ी का संघर्ष समझना चाहते हैं...

Shailesh Chaturvedi

जरा सा चूक जाना भारतीय खेलों की कहानी रही है. मिल्खा सिंह जरा सा चूक गए. पीटी उषा जरा सा चूक गईं. भारतीय हॉकी टीम सिडनी ओलिंपिक्स में जरा सा चूक गई. लेकिन जब दीपा कर्माकर की बात आती है, तो उसे जरा सा चूकना नहीं, एक उड़ान की शुरुआत कहेंगे. ओलिंपिक्स में चौथा स्थान पदक से चूकना नहीं, पदक की तरफ बढ़ाया बड़ा कदम है.

इसीलिए जब पहली बार पता चला कि दीपा कर्माकर की ऑटोबायोग्राफी/मेमॉयर्स लिखी जा रही है, तो यह सवाल कतई जेहन में नहीं आया कि चूकने वाले पर किताब क्यों. हालांकि किताब दीपा कर्माकर- द स्मॉल वंडर के सह लेखकों दिग्विजय सिंहदेव और विमल मोहन से सवाल जरूर पूछे गए. लेकिन उनके लिए इस किताब में रुचि लेने की तमाम वजह रही होंगी. दीपा कर्माकर ऐसी शख्सियत हैं, जिन पर किताब लिखने की इच्छा यकीनन होगी.


त्रिपुरा जैसी छोटी सी जगह से आई एक लड़की उस खेल में ऐसा मुकाम बनाए, जिसके बारे में आम लोग जानते न हों. उसके संघर्ष की कहानी, उसके ओलिंपिक्स तक पहुंचने की कहानी, ट्रेनिंग की कहानी... एक कहानी के भीतर तमाम कहानियां हैं, जिसे इस किताब में बहुत अच्छी तरह उकेरा गया है.

जाहिर है, आत्मकथा है, तो लेखक या कहें लेखिका दीपा ही हैं. यह कहानी उन्हीं की है. लेकिन तीन सह लेखक हैं. दो पत्रकार दिग्विजय और विमल, साथ में दीपा के कोच बिश्वेश्वर नंदी. दीपा और नंदी की कहानी को रोचक तरीके से एक किताब की शक्ल देना था, जिसे बहुत अच्छी तरह किया गया है.

दीपा की एक कहानी में कई कहानियां छुपी हैं

दीपा ने कई जगह ‘डंकी और बफैलो’ यानी गधे और भैंस की बात की है. उन्हें ये तंज सुनने पड़े थे. कई बार किताब में अपनी उपलब्धि का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया है कि कैसे गधे और भैंस की जोड़ी ने कमाल कर दिखाया. यह बताता है कि वो तंज किस कदर दिल में घर करते हैं, जो कई बार हम-आप यूं ही मजाक में किसी के लिए कह देते हैं. खासतौर पर खिलाड़ी के लिए. आम लोगों से लेकर पत्रकारिता जगत में ऐसी बातें सुनना आम है कि अरे, इससे कुछ नहीं होगा. उस वक्त लोग भूल जाते हैं कि एक खिलाड़ी उसके लिए पूरी जिंदगी लगा देता है, जिसे खारिज करना आपके लिए महज एक वाक्य है. यकीनन ऐसे लोगों को किताब जरूर पढ़नी चाहिए.

उन्हें भी यह किताब पढ़नी चाहिए, जो खेल की दुनिया से अलग रहते हैं. जिन्हें एक खिलाड़ी के संघर्ष का अंदाजा नहीं है. जिन्हें समझ नहीं आता कि एक छोटी सी चोट किसी खिलाड़ी के लिए कैसे पूरा करियर खत्म कर देती है. जिन्हें समझ नहीं आता कि भारतीय सिस्टम में किसी के लिए खिलाड़ी के तौर पर टॉप पर पहुंचना क्या मतलब रखता है.

दीपा ने जिम्नास्टिक्स के लिए क्या किया है, ये 14 अगस्त 2016 की उस रात से समझा जा सकता है, जब रियो ओलिंपिक्स में पूरा देश टीवी पर नजर गड़ाए बैठा था. ज्यादातर लोगों को नियम नहीं पता थे. लेकिन हर कोई इसे समझना चाहता था.. और चाहता था कि दीपा जीत जाएं. इससे भी पता चलता है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दीपा से मिले तो उन्होंने क्या टिप्पणी की. दीपा ने लिखा है, ‘पीएम ने कहा, अरे, आप तो चलकर आ रही हैं. मुझे लगा समरसॉल्ट लगाकर आएंगी.’ ज्यादातर मामलों में खिलाड़ी की खेल से पहचान होती है. दीपा वो हैं, जिन्होंने आम लोगों में खेल को पहचान दी. इसलिए भी यह किताब लिखना बहुत जरूरी था.

दीपा ने इस देश के लोगों को यह भी बताया कि प्रोद्युनोवा एक शब्द होता है. इस शब्द का मतलब क्या है. जिम्नास्टिक्स में प्रोद्युनोवा क्या है, इसकी क्या अहमियत है, इसे क्यों चुना गया, विस्तार से इसकी चर्चा है. प्रोद्युनोवा को चुनने का फैसला और उसे इस्तेमाल कैसे किया गया, इसकी कहानी वाकई रोचक है. खासतौर पर चोटिल टखने के साथ उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स में किस तरह मेडल जीता.

दीपा के लिए कुछ मायने में यह सफर बाकियों के मुकाबले थोड़ा आसान कहा जा सकता है. पिता खिलाड़ी, उसके बाद भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई के कोच. सोमा नंदी जैसी पहली कोच, सोमा के पति बिश्वेश्वर जैसा अगला कोच. ये सब उन लोगों के मुकाबले दीपा का काम थोड़ा आसान करते हैं, जिनका बैकग्राउंड खेल से जुड़ा नहीं है. बिश्वेश्वर नंदी के बारे में जो कुछ भी किताब में है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक कोच की क्या अहमियत होती है. उस अहमियत का पूरा ध्यान दीपा ने रखा है. खासतौर पर एक जगह उन्होंने अपने अर्जुन पुरस्कार लेने का जिक्र किया है. पुरस्कार उन्होंने सफेद मोजे पहनकर लिया था. वो मोजे कोच के थे. दीपा चाहती थीं कि जब वो पुरस्कार लें, तो कोच का ‘कोई हिस्सा’ उनके साथ हो.

एक 'बिगड़ैल' लड़की के चैंपियन बनने का सफर

इसी तरह कोच का दीपा के खराब टेंपरामेंट को झेलना, उन्हें समझना, उनके लिए कोच के साथ पिता, मैनेजर सहित हर रोल नंदी ने निभाया है. एक किस्सा है, जिसमें दीपा नाराजगी में दीवार पर जोर से पैर मारती हैं और उनका पैर छिल जाता है. वो चीखती हैं, उन्हें स्ट्रीट फूड पसंद है, उन्हें घूमना पसंद है, उन्हें वो सब करना पसंद है, जो उनकी उम्र की लड़कियों के साथ जोड़ा जा सकता है. लेकिन कोच नंदी को पता है कि खेल जीवन के लिए अनुशासन कितना जरूरी है. यहां वो सम्मान नजर आता है, जो दीपा कर्माकर के मन में अपने कोच के लिए है. वो सम्मान नहीं हो, तो कोई कोच कुछ नहीं कर सकता. इसी तरह, कुछ जगहों पर उल्टा मामला है. दीपा लिखती हैं कि इवेंट से पहले उन्हें उतना तनाव नहीं होता, जितना कोच को होता है. वो ज्यादा परेशान होते हैं, जबकि दीपा को शांति से नींद आती है. कामयाबी के लिए यह भी जरूरी है. गुरु और शिष्य एक दूसरे की कमियों को भरते हैं. एक-दूसरे की ताकत बढ़ाते हैं. गुरु-शिष्य का रिश्ता इस किताब की सबसे खास बात है.

एक और खास बात साई से जुड़ी है. साई के बारे में मान जाता है कि यहां काम  आसानी से कराना नामुमकिन है. लेकिन रियो ओलिंपिक से पहले एथलीट्स को जिस तरह सपोर्ट मिला, वो काबिले तारीफ है. दीपा ने किताब में कई जगह आईएस पाबला का जिक्र किया है, जिन्होंने उनकी मदद की. इसके अलावा, इंजेती श्रीनिवास, जो रियो ओलिंपिक्स से पहले साई के महानिदेशक थे. उनसे मिली मदद का जिक्र है. यहां भी उस ‘सफेद हाथी’ का मानवीय पहलू नजर आता है, जिसके बारे में ज्यादातर लोग नेगेटिव बातें ही करते हैं.

किताब लिखा जाना कतई आसान नहीं होगा, यह इसे पढ़कर समझ आता है. पहले दीपा और नंदी को मनाना... उसके बाद रिसर्च. त्रिपुरा में जिम्नास्टिक्स का एक कल्चर रहा है. उसे जिस तरह किताब में लिया गया है, उसमें मेहनत दिखाई देती है. जिम्नास्टिक्स के बारे में जो लोग भी जानना चाहते हैं, उनके लिए वो चैप्टर बहुत जरूरी है.

किसी भी किताब को लिखे जाने के लिए ईमानदारी होना बहुत जरूरी है. दीपा ने इसमें पूरी ईमानदारी बरती है. बचपन की गुड्डू या टीना से लेकर दीपा कर्माकर तक अपनी जिंदगी के हर पहलू को उन्होंने छुआ है. व्यक्तित्व की कमियों को भी लिखने या सह लेखकों को बताने में वो हिचकी नहीं हैं.

किताब लिखा जाना इस मायने में भी आसान नहीं था, क्योंकि दिग्विजय सिंहदेव और विमल मोहन जुनूनू लोग हैं. रिपोर्टिंग में कितनी मेहनत करनी पड़ती है, उसे समझने के लिए इन दोनों को समझना जरूरी है. व्यक्तिगत जिंदगी में दोनों की शख्सियत बहुत अलग है. लेकिन जब खेलों की बात आए, जो वो पैशन और पॉजिटिविटी कूट-कूट कर भरी दिखती है, जो पत्रकारों में होना आसान नहीं. इन दोनों से अगर आप किसी खिलाड़ी के बारे में जानना चाहेंगे, तो पहले पॉजिटिव बातें ही सुनने को मिलेंगी. यह समझने को मिलेगा कि फलां खिलाड़ी क्यों जीत सकता है. आमतौर पर पत्रकार या विश्लेषक इससे शुरू करते हैं कि फलां खिलाड़ी क्यों नहीं जीत सकता. यह बात इन्हें बाकियों से अलग करती है. तभी दीपा कर्माकर की किताब यही दोनों लिख सकते थे. बाकियों के मन में शायद यही होता कि दीपा तो चूक गई, उसने कुछ जीता कहां!

इन सबके बीच अगर एक चैप्टर और होता, तो शायद मेरे लिए किताब और बेहतर होती. उस तरह का चैप्टर जैसा अभिनव बिंद्रा की ऑटोबायोग्राफी अ शॉट एट हिस्ट्री : माई ऑब्सेसिव जर्नी तो ओलिंपिक गोल्ड मे था. जहां शूटिंग कितना मुश्किल है, इसे आसान तरीके से समझाया गया है. उदाहरण या कुछ बातों से तुलना करके समझाया गया है, जिससे हार और जीत के फर्क का पता चलता है.

दीपा कर्माकर- द स्मॉल वंडर में जिम्नास्टिक्स समझने के लिए काफी कुछ है. लेकिन कई जगह ऐसे लोगों को समझाने के लिए उदाहरण का सहारा लेना पड़ता है, जो उस खेल से जुड़े नहीं है. इससे पढ़ने वालों का दायरा और बढ़ता है. लेकिन इन सबके बीच यह किताब ऐसी है, जो किसी खेल प्रेमी को नहीं छोड़नी चाहिए. यह किताब ऐसी है, जो उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो किसी खिलाड़ी की हार के बाद कहते हैं- मैंने तो पहले ही कहा था, इसके वश का कुछ नहीं... उन लोगों को भी, जिन्हें समझ नहीं आता कि खेल में उस जगह पहुंचने के लिए क्या करना पड़ता है, जहां पहुंचने के बाद ही खिलाड़ी पर आम लोगों की नजर पड़ती है.

दीपा कर्माकर- द स्मॉल वंडर

पब्लिशर – फिंगरप्रिंट

कीमत – 499 रुपए.

किताब एमेजॉन (www.amazon.in) पर डिस्काउंट के साथ उपलब्ध है.