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CWG 2018, Men's Hockey : क्या क्रिकेट का 'चैपल इफेक्ट' भारतीय हॉकी में भी आ रहा है

फेल रही कोच मरीन्ये की यंग इंडिया से गोल्ड दिलाने की कोशिश, न्यूजीलैंड से हारकर टीम इंडिया हुई फाइनल से बाहर

Shailesh Chaturvedi

कोई भी कमजोर या अपना दबदबा जमाने की कोशिश करने शख्स आता है, तो वो अपनी टीम में युवाओं की बात करता है. वो हमेशा यह बताने की कोशिश करता है कि टीम में अनुभव की कोई जरूरत नहीं. युवा जोश के आगे सब फीका है. कमजोर के लिए अनुभवी को हैंडल करना आसान नहीं होता. तानाशाह के लिए भी यही बात साबित होती है. अनुभवी या बेहतर लोग सवाल पूछते हैं, जो किसी तानाशाह को पसंद नहीं आता.

कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के साथ ग्रेग चैपल जुड़े थे. उन्हें दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाजों में शुमार किया जाता रहा है. उन्होंने आते ही सबसे पहला हमला अनुभव पर बोला था. सौरव गांगुली के साथ उनके विवाद तो सबको पता ही हैं. उन्हें सचिन तेंदुलकर और जहीर खान से लेकर तमाम सीनियर लोग पसंद नहीं थे. वे उनके जगह युवाओं को लाना चाहते थे. वे युवाओं को लाए. उसके बाद 2007 के वर्ल्ड कप में जो हुआ, सबको पता है. भारतीय टीम बुरी तरह हारकर वेस्टइंडीज से लौटी थी.


चैपल तानाशाह थे, मरीन्ये कमजोर नजर आए हैं

चैपल का उदाहरण तानाशाह जैसा था. अब कमजोर का उदाहरण देखिए. उसके लिए कॉमनवेल्थ गेम्स में हॉकी के मैच देखने पड़ेंगे. पुरुषों के मैच देखिए, जहां टीम ने इंग्लैंड के खिलाफ आखिरी के कुछ मिनट छोड़ दिए जाएं, तो कोई कमाल नहीं किया. दूसरी तरफ महिला टीम, जो लगातार अपने से ऊपर टीम को टक्कर देती रही. हॉकी टीम का उदाहरण कमजोर कोच का है. श्योर्ड मरीन्ये. आते ही उन्होंने कहा कि मैं खिलाड़ियों को फैसला करने देना चाहता हूं. उसके बाद उन्होंने हर बार ऐसी टीम चुनी, जिसमें सीनियर नहीं थे. वो भी यंग इंडिया बनाना चाहते हैं. वो तानाशाह नहीं हैं. लेकिन अभी तक जो संकेत दिए हैं, उससे यही लगता है कि सीनियर्स को हैंडल करना उन्हें नहीं आता.

अनुभव को दरकिनार करना पड़ा है भारी

सुल्तान अजलन शाह कप में सरदार सिंह को ऐसी टीम दी, जिसका कामयाब न होना लगभग तय था. उससे पहले ही बातें होने लगी थीं कि सरदार को अब कभी टीम इंडिया में नहीं लिया जाएगा. उस टीम को कामयाब नहीं होना था, वो नहीं हुई. उसके बाद सरदार बाहर हो गए. कॉमनवेल्थ गेम्स के पहले ही मैच में समझ आ गया कि सरदार के न होने का क्या मतलब है. पाकिस्तान के कोच रोलंट ओल्टमंस ने गेम बदला. पूरी टीम इंडिया को समझ नहीं आया. सरदार सिंह की जगह लिए गए विवेक सागर प्रसाद की कोई गलती नहीं. उन्हें अभी हॉकी की स्ट्रैटेजी समझने के लिए वक्त चाहिए. उन्हें वक्त चाहिए ये समझने के लिए सामने वाली टीम अगर गेम की रफ्तार बदल दे, तो क्या करना चाहिए. वो नौसिखिए साबित हुए.

इसी तरह की गलती गेरहार्ड राख ने 2004 एथेंस ओलिंपिक में की थी, जब उन्होंने धनराज पिल्लै के अनुभव पर एडम सिन्क्लेयर को तरजीह दी थी. वो भी कमजोर कोच की ही एक कहानी थी. इस बार भी श्योर्ड मरीन्ये ने यही किया. पाकिस्तान के मैच ने ही साफ कर दिया था कि मरीन्ये और ओल्टमंस के बीच कितना बड़ा फर्क है. यह भी कि मिड फील्ड में सरदार सिंह या बिरेंद्र लाकड़ा का अनुभव न होना टीम को कहां कैसे पूरी टीम को बरबाद कर सकता है.

रणनीति में बदलाव नहीं समझ पाई यंग इंडिया

पाकिस्तान के खिलाफ मैच गंवाया नहीं. वीडियो अंपायर की भी गलती थी, जिससे चंद सेकेंड बाकी रहते गोल हुआ. लेकिन इस पाकिस्तानी टीम को आखिरी मिनट तक मौका देना अपने आप में आपकी कमजोरी ही दिखाता है. पाकिस्तान ने मैच के पेस को कम किया. उस समय उनकी रणनीति में बदलाव समझने के लिए वैसा अनुभव नहीं था, जैसा होना चाहिए. आखिर में जब पेनल्टी कॉर्नर भी मिला, तो रोलंट ओल्टमंस ने पाकिस्तानी खिलाड़ी को बुलाकर कान में गुरुमंत्र दिया और टीम ने श्रीजेश को बीट करके बराबरी पा ली.

वेल्स और मलेशिया के खिलाफ भी जीत बचपन के केमिस्ट्री क्लास की याद दिला देती थी, जहां हिंदी में रंगहीन, गंधहीन पदार्थ के बारे में बताया जाता था. जीत पूरी तरह रंगहीन थी. इंग्लैंड पर जीत भी करीबी अंतर से थी. बल्कि कहें तो आखिरी दो मिनट में दो गोल करके जीत हासिल की गई थी. लेकिन दो मिनट में किए दो गोल ने रोमांच भर दिया था. इसने यह भी तय कर दिया कि सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया से नहीं खेलना पड़ेगा, जिनके खिलाफ हम पिछले दो कॉमनवेल्थ गेम्स का फाइनल हारे थे.

न्यूजीलैंड के खिलाफ रिकॉर्ड कमाल का रहा है. 95 मैच में 51 जीत, सिर्फ 27 हार. लेकिन रैंकिंग और रिकॉर्ड्स से मैच नहीं जीते जाते. मैच टर्फ पर जीते जाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय टीम न्यूजीलैंड से बेहतर खेली. उसे बेहतर चांस मिले. गोल पर 18 मौके मिले, जिसमें से सिर्फ दो बार गोल हो पाया. सच है कि न्यूजीलैंड के गोलकीपर ने भी कमाल का प्रदर्शन किया. लेकिन यह भी सच है कि रणनीति के मामले में एक बार फिर भारतीय टीम कमजोर दिखी.

2-0 की बढ़त के बाद ही भारत के लिए जीतना आसान नहीं था. लेकिन यह भी सच है कि इस पूरे टूर्नामेंट में ऐसी कोई वेरायटी दिखाई नहीं दी, जिससे लगे कि भारतीय टीम विपक्षी को अपनी रणनीति से चौंका रही है. 2-3 से मुकाबला गंवा दिया. 2010 और 2014 में फाइनल खेलने के बाद पहली बार भारतीय टीम कॉमनवेल्थ गेम्स के फाइनल में नहीं पहुंची है. इसकी वजह दिखाई देती है कि या तो कोच रणनीति नहीं बना पाए हैं या युवा टीम उस रणनीति को समझकर उसे मैदान पर नहीं दिखा पाई है.

जो गेम्स में अच्छा खेले, वे सब अनुभवी खिलाड़ी

टीम में जो खिलाड़ी अच्छा खेले, वे सब अनुभवी है. श्रीजेश, सुनील, मनप्रीत जैसे खिलाड़ियों ने अच्छा प्रदर्शन किया. जितने युवा खिलाड़ी हैं, वे बीच-बीच में प्रतिभा की झलक जरूर दिखाते हैं. लेकिन उन्हें समय चाहिए. अगर मरीन्ये सिर्फ कॉमनवेल्थ गेम्स में ही युवाओं को लेकर प्रयोग करना चाहते थे, तब भी यह ठीक नहीं है. एक बार टीम की लय बिगड़ जाए, तो पाना आसान नहीं है. अगर यह प्रयोग नहीं, बल्कि मरीन्ये का फैसला है, तो फिर चिंता की बात है. इसके बाद एशियन गेम्स और वर्ल्ड कप हैं. इन दोनों जगह कमजोर प्रदर्शन भारतीय हॉकी को बड़ा नुकसान देकर जाएगा. भारतीय क्रिकेट तो ग्रेग चैपल के असर से निकल गया. लेकिन भारतीय हॉकी कमजोर कोच के असर से उबर पाएगी, इसे लेकर संदेह है.