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सुशील का भविष्य क्या अब भी ‘सुशील में है’?

एशियन गेम्स में प्रभावित करने में नाकाम रहे सुशील पर सवाल उठाए जा रहे है, क्या अब भी उनमें दम में है या अब किसी और को उनकी जगह लेनी होगी

Shailesh Chaturvedi

इस जोड़ी को कुश्ती के जय-वीरू कहा जाता रहा है. दिल्ली के मॉडल टाउन में छत्रसाल अखाड़ा इन दोनों की दोस्ती, अनुशासन और शानदार प्रदर्शन का गवाह रहा है. सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त. एशियन गेम्स में कुश्ती के पहले दिन फिर दोनों पर निगाहें थीं. इसके बावजूद कि योगेश्वर जकार्ता नहीं गए. सुशील गए और पहले राउंड में हार गए.

योगेश्वर भले ही नहीं गए हों, लेकिन बजरंग के रूप में उनका शिष्य मौजूद था. बजरंग को सुशील बेटा कहते हैं. योगेश्वर के शब्दों में, ‘उसके रूप में मैं खुद को ही मैट पर देखता हूं.’ 74 किलो वर्ग में थके, कुछ अधेड़ से, थोड़े अनफिट... पुराने वाले की छाया भी नजर नहीं आने वाले सुशील थे. दूसरी तरफ, फिट, चपल, चुस्त, मुस्तैद... और हर मायने में चैंपियन बनने के हकदार बजरंग थे. सुशील निराशा के साथ विदा हुए. बजरंग के हाथों में गोल्ड था.


कुछ वक्त पहले योगेश्वर से बात हुई थी. एक सवाल पूछा था कि क्या आप अब बड़े इवेंट में जाएंगे? जवाब मिला, ‘सिर्फ वर्ल्ड चैंपियनशिप मे जा सकता हूं. बाकी जगह तो बेटा जाएगा. एक वेट कैटेगरी में हम दोनों नहीं जा सकते. ऐसे में अब बजरंग ही जाएगा.’ एक तरह से यह वो लम्हा था, जहां आप उस खेल को कुछ देते हैं, जिसने आपको जिंदगी में इतना कुछ दिया.

सुशील भी इस तरह के तोहफे देंगे. छत्रसाल अखाड़ा भारतीय कुश्ती को चैंपियन दे सकता है. लेकिन वो अभी दूर है. अभी नजरें सुशील पर हैं. देश के महानतम पहलवान. देश के महानतम खिलाड़ियों में एक. सवाल यही है कि बजरंग में तो देश को योगेश्वर का भविष्य दिखाई दिया. ऐसे में क्या सुशील का भविष्य सुशील ही हैं? जैसा खुद सुशील ने कहा कि एशियाड उनके लिए वापसी की तरह हैं. जैसे-जैसे वो बड़े पहलवानों के साथ मुकाबला करेंगे, और बेहतर होंगे.

सुशील का विकल्प कौन

सवाल यह है कि क्या एशियाड ही वो जगह है, जहां आप खुद को परखना चाहते हैं? क्या यही सही स्टेज है? लेकिन इन सवालों से पहले हम देख लें कि सुशील की वेट कैटेगरी में हमारे पास विकल्प क्या है. हम सब जानते हैं कि नरसिंह यादव डोपिंग में फंसकर बैन हो गए थे. उसके बाद प्रवीण राणा आए थे. राणा ने नेशनल्स में सुशील के पैर छुए और वॉक ओवर दे दिया. कुश्ती सर्किल में बताया गया कि हम तो अपने बड़ों का सम्मान करते हैं. उसके बाद ट्रायल्स में वो लड़े. उसमें दोनों पक्ष के समर्थकों में मारामारी तक हो गई.

सम्मान से मारामारी के बीच जो कुछ हुआ, वो भारतीय कुश्ती के लिए भला नहीं है. 35 साल के सुशील को यकीनन लगता है कि वो अब भी ओलिंपिक्स में पदक जीत सकते हैं. उन्हें लगता है तो कोई वजह नहीं कि उन पर यकीन न किया जाए. लेकिन क्या उन्हें यह लगता था कि वो एशियाई खेलों में पदक जीत सकते हैं?

सुशील कुश्ती जगत में सबसे समझदार पहलवानों में हैं. अपने बारे में उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता. इसीलिए यह सवाल है कि अगर वो पिछले काफी समय से देश और विदेश में अभ्यास कर रहे थे, तो क्या उन्हें नहीं पाता था कि अभी वो फिटनेस के मामले में पदक के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं. दरअसल, सुशील को मैट पर देखना दुखद लग रहा था. वो किसी अधेड़ की तरह लग रहे थे. ऐसा लग ही नहीं रहा था कि 2008 और 2012 में जिस सुशील ने ओलिंपिक पदक जीते थे, यह वही हैं. ऐसे में वो खुद को कितना बेहतर कर पाएंगे? और क्या फेडरेशन उन्हें इतना वक्त देगा?

पिछले कुछ समय से सुशील फेडरेशन की गुडबुक्स में नहीं रहे हैं. खासतौर पर तबसे, जब उन्होंने नरसिंह को रियो ओलिंपिक्स में भेजे जाने के फैसले के बाद हाई कोर्ट का रुख किया था. फेडरेशन में काफी लोग इसके लिए सुशील के ससुर सतपाल को जिम्मेदार मानते हैं. लेकिन जो भी हो, इससे उनके रिश्ते बिगड़े थे, जो अब भी पूरी तरह सुधर नहीं पाए हैं.

अब एशियाई खेलों के प्रदर्शन के बाद उनसे सवाल पूछे जाएंगे. किसी भी उम्र में अच्छे प्रदर्शन के लिए भरोसे की जरूरत होती है. यह युवा के लिए भी जरूरी है और 35 साल के डबल ओलिंपिक मेडलिस्ट के लिए भी. सुशील को खुद पर भरोसा है. लेकिन उन पर कितनों का भरोसा होगा, यह देखना एशियाड के बाद दिलचस्प होगा.

इस बात में कोई शक नहीं कि अभी अपने देश में उन्हें टक्कर नहीं मिल पा रही. लेकिन यहां देश में वो किस जगह हैं, उसकी बात नहीं है. बात है कि दुनिया में वो किस जगह हैं. यकीनन आज की तारीख में वो उस जगह नहीं हैं, जहां उन्हें विश्व स्तर पर मेडल का दावेदार कहा जा सके. उसके लिए समय चाहिए. समय तभी मिलता है, जब भरोसा होता है. अगर वो फेडरेशन का भरोसा नहीं जीत पाए, तो क्या करेंगे? क्या वो कड़ी मेहनत से वो भरोसा हासिल कर पाएंगे? या फिर योगेश्वर की तरह अपने किसी शिष्य में अपना भविष्य देखेंगे? इस सोच के साथ कि जिस खेल ने उन्हें इतना कुछ दिया, वो उसे उसका भविष्य देकर विदा हो रहे हैं.