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Asian Games 2018: खुद को देश में सौतेला मानते हैं ग्रीकोरोमन रेसलर्स!

कोच कुलदीप ने स्वीकार किया कि ग्रीको रोमन पहलवानों को महसूस होता है कि उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है

Bhasha

भारत में पहचान बनाने के संकट से जूझ रही कुश्ती की ग्रीको रोमन स्पर्धा की छवि में कुछ हुआ है लेकिन आमूलचूल बदलाव के लिए बड़े मेडलों की जरूरत है.

ग्रीकोरोमन शैली में आप कमर के नीचे नहीं पकड़ सकते और इस शैली के कोचों और खिलाड़ियों का मानना है कि उनकी अनदेखी होती है जबकि सारी सुर्खियां फ्रीस्टाइल पहलवान बटोर लेते हैं.


बीजिंग ओलिंपिक में सुशील कुमार के ब्रॉन्ज मेडल ने भारत में इस खेल को लोकप्रियता दी और फ्रीस्टाइल शैली को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया.

भारत के राष्ट्रीय ग्रीको रोमन कोच कुलदीप सिंह ने कहा, ‘इस प्रवृत्ति में अब बदलाव आ रहा है, अगर कोई शैली बदल रहा है तो युवावस्था में ऐसा कर रहा है. इससे पहले पहलवान 18 से 20 साल की उम्र के बाद शैली में बदलाव (ग्रीको रोमन से फ्रीस्टाइल) करते थे लेकिन अब यह 14, 15 साल की उम्र से होने लगा है.’

उन्होंने कहा, ‘इससे पहले अगर 100 लोग कुश्ती को अपने खेल के रूप में चुनते थे तो 95 लोग फ्रीस्टाइल का विकल्प चुनते थे. लेकिन अब खेल को स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है इसलिए इस बदलाव में तेजी आई है. इसका असली असर अगले चार से पांच साल में पता चलेगा और ग्रीको रोमन फ्रीस्टाइल की लोकप्रियता की बराबरी कर लेगा.’

कुलदीप ने स्वीकार किया कि ग्रीको रोमन पहलवानों को महसूस होता है कि उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है.

उन्होंने कहा, ‘हां, यह अहसास है. फ्रीस्टाइल पहलवानों को मीडिया और प्रशंसकों से अधिक सुर्खियां मिलती हैं लेकिन डब्ल्यूएफआई ग्रीको रोमन पहलवानों की अच्छी देखभाल कर रहा है और उन्हें तथा हम कोचों को प्रेरित करता रहता है.’

उन्होंने कहा, ‘और ऐसा सिर्फ भारत में है. यूरोपीय देशों में ग्रीको रोमन अधिक लोकप्रिय है. यह देश की संस्कृति पर निर्भर करता है. हमारे यहां दंगल और फ्रीस्टाइल प्राचीन काल से होते रहे हैं.’