एशियन गेम्स यूं तो जीता गया हर मेडल अपने आप में बेहद खास है लेकिन बुधवार को भारत की एथलीट स्वप्ना बर्मन ने हेप्टाथलन में गोल्ड जीत जीतकर जो इतिहास रचा है उसके पीछे की कहानी जानकर अाप स्वप्ना क जज्बे को सलाम किए बिना नहीं रह सकते.
यह पहला मौका जब एशियाड में भारत को इस इवेंट में गोल्ड मेडल हासिल है. हेप्टाथलन को एथलेटिक्स में सबसे कठिन मेडल माना जाता है क्योंकि इसमें जीत हासिल करने के लिए सात इवेंट्स में अव्वल आना पड़ता है.
भारत की स्वप्ना बर्मन को इस इस इवेंट में कड़ी चुनौती मिली लेकिन उससे पहले एक बड़ी चुनौती तो उन्हें खुद से मिली थी. एशियन गेम्स में जाने से पहले ही उनके दांतों में परेशानी शुरू हो गई और उनके इवेंटस के दौरन उनके चेहरे पर जो पट्टी बंधी दिखी थी वह इसी का नतीजा थी. दांतों के इस दर्द के बीच स्वप्ना तीन दिन तक हेप्टाथलन के सात इवेंट्स में भाग लेती रहीं.
क्या है स्वपना का बैकग्राउंड
लेकिन स्वप्ना के संघर्ष की कहानी दांतो के इस दर्द की दास्तान से भी कहीं गहरी है. पश्चिम बंगाल के न्यू जलपाईगुड़ी इलाके की रहने वाला स्वप्ना के पिता एक रिक्शा चालक थे. सात साल पहले हार्टअटैक के चलते यह काम भी उनके हाथ से गया और वह तब से अब तक बिस्तर पर ही हैं. स्वप्ना की मां घर चलाने के लिए चाय के बागान में पत्तियां तोड़ने की मजदूरी करती हैं.
एक बेहद गरीब पृष्ठभूमि के आने वाला स्वप्ना के लिए यही मुसीबत काफी नहीं है. उनकी सबसे बड़ी समस्या तो उनके खुद के पैर हैं. जिनके दोनों पंजों में छह-छह उंगलियां हैं. पंजे की अतिरिक्त चौड़ाई के चलते ऐसी स्थिति में उनके लिए सामान्य जूतों का फिट आना बेहद मुश्किल काम है. ऐसे हालात में एथलीट के लिए खास किस्म के जूते बनाए जाते हैं जिनका खर्चा उठा पाना पाना स्वप्ना के बस से बाहर की बात थी.
बहरहाल कुछ सामाजिक संगठनों की मदद से स्वप्ना ने अमेरिका से ऐसे खास जूते मंगाकर अपना ट्रेंनिंग का आगाज किया जिसका अंजाम जकार्ता में गोल्ड मेडल के साथ हुआ है.
उम्मीद है इस मेडल के बाद स्वप्ना को नौकरी भी मिलेगी और उन्हें अपने जूतों के लिए किसी पर निरभर नहीं होना पड़ेगा.