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क्या खेल मंत्रालय के लोग ही करते हैं खेल पुरस्कारों में धांधली?

खेल पुरस्कारों के चयन से पहले नहीं होती पूरी छानबीन, जानबूझकर छुपाए जाते हैं मामले !

Norris Pritam

पिछले कुछ सालों में खेल मंत्रालय और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने खेल फेडेरशन और उनके अधिकारियों की जमकर आलोचना की है. स्पोर्ट्स कोड बनाकर फेडेरशन और अधिकारियों को किसी न किसी तरह कोड के शिकंजे में कसने की कोशिश की. किसी फेडेरशन को निलंबित किया तो किसी अधिकारी को उम्रदराज बताकर फेडेरशन से हटाया.

मंत्रालय का तर्क था कि खेलों में धांधलेबाजी की वजह से भारतीय खेल पनप नहीं रहे हैं. मंत्रालय ऐसे लोगों को खेल से बाहर रख कर खेलों में ईमानदारी और अनुशासन लाएगा. लेकिन अगर इस साल के राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों के चयन पर नजर डालें तो साफ हो जाता है की धांधलेबाजी में खेल मंत्रालय फेडेरशन या उम्रदराज अधिकारियों से किसी भी तरह काम नहीं है. बल्कि दो हाथ आगे ही है.


नौकरशाही की वजह से हुई इस साल द्रोणाचार्य अवॉर्ड में गफलत 

संयोग से इस वर्ष के द्रोणाचार्य और ध्यान चंद अवॉर्ड की चयन समिति में मुझे भी मनोनीत किया गया. यह मेरे लिए गर्व की बात थी. इससे भी ज्यादा खुशी इस बात की थी की मैं उस पैनल का सदस्य था, जिसके चेयरमैन ऑल इंग्लैंड चैंपियन गोपी चंद थे. साथ ही पैनल में मॉस्को ओलम्पिक के गोल्ड मेडलिस्ट हॉकी खिलाड़ी महाराज किशन कौशिक और चोटी के पूर्व स्टीपलचेजर गोपाल सैनी भी थे.

मैंने तीन-चार दिन काफी मशक्कत की और कोचों के काम पर नजर डाली. इस बीच में इस इंतजार में था कि कम से कम चार-पांच दिन पहले खेल मंत्रालय उन नामों की सूची भेजेगा, जिनको उनकी स्क्रीनिंग कमेटी ने शॉर्ट लिस्ट किया होगा. आखिर सब नामों की स्क्रीनिंग और उनका चयन एक दिन में चार-पांच घंटे की मीटिंग में तो नहीं किया जा सकता. लेकिन ऐसी कोई सूची नहीं आई.

जब मीटिंग के लिए पहुंचा तो हाल में मीटिंग से एक मिनट पहले एक पुलिंदा दिया गया, जिसमे वो नाम थे जो खेल मंत्रालय ने खेल सचिव इंजेती श्रीनिवास, मंत्रालय और स्पोर्ट्स ऑथोरिटी के बड़े अधिकारियों ने चुने थे. हालांकि कहा यही जाता है कि इसमें नाम चुने नहीं जाते, बल्कि तकनीकी कमी न हो, तो सारे नाम कमेटी के सामने रख दिए जाते हैं. विचार करना तो दरकिनार नामो को ढंग से पढ़ने का भी समय नहीं था क्योंकि बैठते ही मीटिंग शुरू हो गयी.

खेल सचिव की मर्जी से शामिल हुआ था कोच सत्यनारायण का नाम

एक एक करके नाम आते गए और पैनल के सदस्य चेयरमैन गोपी चंद को अपने-अपने सुझाव देते गए. जब विकलांग एथलीटों के कोच सत्यनारायण का नाम आया तो मैंने कहा कि खिलाड़ियों को ओलिंपिक पदक दिलाने में उनका सहयोग बेशक रहा हो, लेकिन उनके खिलाफ कोर्ट में मुकदमा है.

इस पर खेल मंत्रालय की और से मीटिंग का संचालन कर रहे खेल सह सचिव आईएएस अफसर जयवीर सिंह ने कहा कि सत्यनारायण और खेल रत्न के लिए मनोनीत हुए हॉकी खिलाड़ी सरदार सिंह का मामला एक सा है. दोनों के खिलाफ कोर्ट में मामला है और अगर वो बाद में दोषी पाए गए तो उनका नाम वापस ले लिया जाएगा.

जब स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के हेडक्वार्टर में मीटिंग चल रही थी तो साथ  वाले कमरे में स्पोर्ट्स सेक्रेटरी इंजेती श्रीनिवास अपने ऑफिस में बैठे थे. लेकिन वो मीटिंग में नहीं आए. लेकिन एक पूर्व आईएएस अफसर के चिट्ठी लिख कर विरोध करने के बाद श्रीनिवास ने सत्यनारायण का नाम कटवा दिया.

इसी तरह कबड्डी के लिए मनोनीत हीरानंद कटारिया का नाम भी खेल   मंत्रालय ने दो दिन पहले काट दिया. कारण दिया गया कि वो कबड्डी से नहीं हैं. सवाल यह है की स्क्रीनिंग कमिटी क्या कर रही थी? क्यों ये नाम पैनल के सामने रखे गए?

इन दोनों उदाहरणों से आप समझ सकते हैं कि खेल पुरस्कारों के लिए किस तरह का माहौल होता है. सवाल भी उठता है कि आखिर पुरस्कारों से पहले छानबीन क्यों नहीं होती. और अगर होती है, तो क्या कुछ लोगों के बारे में जानकारी जान-बूझकर छुपाने की धांधली होती है?

(नौरिस प्रीतम पिछले कई दशकों से खेल पत्रकारिता कर रहे हैं. वो इस साल द्रोणाचार्य अवॉर्ड कमेटी में थे, जिसे लेकर काफी विवाद हो रहा है. लेख में तथ्य और विचार पूरी तरह नौरिस प्रीतम के हैं)