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आजादी के एक साल बाद एहसास हुआ कि अपना देश और झंडे के क्या मायने होते हैं

आजादी के 70 साल बाद उस वक्त और उन भावनाओं को याद रहे है तीन बार के ओलिंपिक गोल्ड मेडलिस्ट बलबीर सिंह सीनियर

Balbir Singh Senior

15 अगस्त 1947 यानी आजाद भारत की वह पहली सुबह यूं तो करोड़ों भारतवासियों के लिए एक ख्वाब के साकार होने जैसी थी. लेकिन हमारे लिए यह सुबह पिछली कई सुबहों की ही तरह थी. उस सुबह भी, भारत विभाजन के बाद पैदा  हुए हालात से निपटने की चिंता हमारे दिलो-दिमाग पर हावी थी.

मैं उस वक्त पंजाब पुलिस में बतौर एएसआई तैनात था. यूं तो पुलिस डिपार्टमेंट में खिलाड़ियों को फील्ड पोस्टिंग पर नहीं भेजा जाता है लेकिन बंटवारे के बाद पैदा हुए हालात पंजाब में इतने ज्यादा विस्फोटक थे कि तमाम पुलिस फोर्स कम पड़ रही थी.


आजादी की उस पहली सुबह के दिन मेरी पोस्टिंग लुधियाना सदर थाने में थी. सरहद के दोनों ओर पंजाब जल रहा था और लुधियाना भी उस आग की चपेट में था. जो नहरें पंजाब के खेतों की शान हुआ करतीं है, उनके पानी को इंसानी खून से लाल होते हुए हम हर रोज देख रहे थे.

इसी दौरान एक सिपाही की रायफल से गलती से एक गोली भी चली जो मेरी सर से दो इंच दूर, मेरी पगड़ी को बेधती हुई निकल गई. उन दिनों हमारी कोशिश किसी भी तरह सरहद के इस ओर रह रहे उन मुस्लिम परिवारों सुरक्षित सरहद के पार पहुंचाने की रहती थी. इसी जद्दो-जहद में उस आजादी का अहसास ही पैदा नहीं हो सका जिसका सपना मेरे पिताजी दलीप सिंह दुसांझ जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था.

1947 के उस साल में हम सबको पता था हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने वाले है. लेकिन उस साल पंजाब समेत पूरे मुल्क में  में हुए खून-खराबे ने आजादी की कीमत को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया. 15 अगस्त 1947 से साल भर पहले ही बंटवारे की विभीषिका ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था. अभी मेरी शादी को एक साल भी नहीं हुआ था. मेरी पत्नी सुशील कौर लाहौर में चीफ इंजीनियर के पद पर तैनात अपने पिता के घर पर थीं. मुझे उन्हें वापस लाना था. हालात इतने ज्यादा खराब थे कि लाहौर से उन्हें वापस लाने के बाद कई दिन मुझे अपनी पत्नी को लुधियाना सदर पुलिस थाने की उस बैरक में रखना पड़ा जो सिपाहियों के ठहरने के लिए बनी थी.

बतौर पुलिस अधिकारी तो बंटवारे के इस खून-खराबे को देखकर कई बार दिल सिहर जाता था. वहीं बतौर हॉकी खिलाड़ी मुझे इस बात का गम सता रहा था कि मेरे साथ खेले कई खिलाड़ी बंटवारे के बाद पाकिस्तान जा रहे थे. साल 1946 में बंबई (अब मुंबई) में हुए हॉकी नेशनल्स के बाद कराची में हमें बेहतरीन रिसेप्शन दिया गया था. हमने सोचा भी नहीं इसके बाद कराची पराए मुल्क का शहर हो जाएगा. हॉकी बेहतरीन खिलाड़ी शाहरुख जैसे मेरे दोस्त अब पराए हो रहे थे.

सालों बाद 2005 में पाकिस्तान के हॉकी खिलाड़ी और मित्र शाहरुख के साथ बलबीर सिंह सीनियर की मुलाकात के दौरान दोनों की आंखें नम हो गईं

ऐसे माहौल में जब दिल और दिमाग पर बंटवारे बाद पैदा हुए हालात इस कदर हावी थे तब आजादी की उस सुबह अहमियत का अहसास ही नहीं हो सका.

खैर ...वह एक जुनून था जो गुजर गया और उसके एक साल बाद आजाद भारत और आजाद भारत के तिरंगे झंडे के लहराने का मतलब समझ में आया.

1948 लंदन ओलिंपिक में हुआ आजाद भारत का एहसास

साल 1948 में हम ओलिंपिक खेलने लंदन पहुंचे. भारतीय हॉकी टीम फाइनल में पहुंची. आजादी मिलने के करीब एक साल बाद 12 अगस्त 1948 को हमारा मुकाबला उसी ब्रिटेन की टीम के साथ था जिससे लड़कर एक साल पहले हमने आजादी हासिल की थी. उस फाइनल मुकाबले में भावनाएं चरम पर थी. मैने भारतीय टीम के लिए पहले दो गोल दागे. और हमने 4-0 से अंग्रेजों को हराकर आजाद भारत के लिए ओलिंपिक का पहला गोल्ड मेडल हासिल किया. आजादी के बाद यब पहला मौका था जब किसी बड़े आयोजन में भारतीय तिरंगा शान के साथ लहराया गया.

मुझे कल की सी बात लगती है. मैच के बाद तकरीबन एक लाख लोगों की भीड़ भारत के लिए नारे लगा रही थी. उस वक्त तिरंगे को लहराते देख यह अहसास हुआ कि मेरे पिताजी जब 'आजादी, अपना देश और अपने झंडे' की बात कहते थे तो इस बात के क्या मायने थे.

राष्ट्रगान की धुन के साथ हमारा तिरंगा धीरे-धीरे ऊपर जा रहा था. मुझे लग रहा था जैसे मैं भी तिरंगे के साथ पर उठ रहा हूं. उस दिन एहसास हुआ कि अब हम आजाद हैं.

(बलबीर सिंह सीनियर देश के महानतम हॉकी खिलाड़ियों में एक हैं. 1948, 52 और 56 की स्वर्ण विजेता भारतीय टीम के वो सदस्य थे.)