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‘दंगल’ को सुपरहिट कराने वाले हॉल के बाहर कहां गायब हो जाते हैं

रील लाइफ दंगल को हजार करोड़, रियल लाइफ दंगल के लिए चंद सौ लोग.. भारतीय खेलों की दास्तान

Shailesh Chaturvedi

दंगल फिल्म चल रही है. राष्ट्रगान बजता है. पूरा हॉल खड़ा हो जाता है. गीता फोगाट के एक-एक दांव पर तालियां बजती हैं. फिल्म हिट, सुपर हिट, बंपर हिट हो जाती है. लोग बताते हैं कि उन्हें तो अब कुश्ती का एक-एक दांव पता है.

इस बीच चीन से लेकर कई देशों से खबरें आती हैं कि फिल्म दंगल हिट हो गई. बताया जाता है कि कैसे एक फिल्म इस मुल्क में खेल की किस्मत बदल देगी. इन खबरों के बीच दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में एशियाई कुश्ती होती है. फोगाट परिवार की ही एक लड़की विनेश फोगाट रजत जीतती है. रियो ओलिंपिक की पदक विजेता साक्षी मलिक भी रजत जीतती हैं. वही साक्षी, जिन्हें देश की बेटी, देश की शान और न जाने क्या-क्या उपाधियां दिए हुए एक साल भी नहीं हुआ. वो झंडा उठाती हैं. अगर भारतीय कुश्ती और बाकी देश से आए पहलवानों और अधिकारियों को छोड़ दिया जाए, तो सिर्फ कुश्ती प्रेमी के नाम पर उंगलियों पर गिनने लायक लोग होते हैं.


क्यों सिनेमा हॉल भरे होते हैं, लेकिन खाली होते हैं स्टेडियम

आखिर वो कहां चले जाते हैं, जो एयर कंडीशंड सिनेमा हॉल में गर्व कर रहे थे. कहां चले जाते हैं, जो राष्ट्रगान पर खुद तो खड़े होते ही हैं, ये भी सुनिश्चित करते हैं कि सभी लोग खड़े हों. पॉपकॉर्न खाते और कोल्ड ड्रिंक पीते हुए भारतीय खेलों की दुर्दशा की बात करते हैं. उसके बाद बताते हैं कि देखिए, ये हालात होने पर भी फोगाट बहनों ने क्या कमाल किया है. एक गर्व लिए अपने घर जाते हैं और उसके बाद भूल जाते हैं कि सिनेमाहॉल के बाहर खेलों की असली दुनिया भी होती है.

ये सिर्फ एक खेल की बात नहीं है. हर खेल से जुड़ी फिल्मों के साथ यही होता है. पान सिंह तोमर की तालियां याद कीजिए, चाहे मैरी कॉम के साथ हुए अन्याय के बीच उनके जीतने पर लोगों का जोश. सुल्तान फिल्म याद कर लीजिए, जिसमें सिनेमा हॉल भरे हुए थे. चक दे इंडिया का गाना तो भारतीय खेलों का जैसे एंथम बन गया था. लेकिन भारतीय महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन को बार-बार सिनेमाहॉल या टीवी पर देखने वालों से महिला टीम के कुछ खिलाड़ियों को नाम पूछकर देख लीजिए. सब बदल जाएगा.

फ्रेंचाइजी के मैचों के लिए स्टेडियम फुल, देश के लिए खाली

आखिर दुनिया इतनी अलग क्यों है. उस रोज जब साक्षी मलिक जीत रही थीं, इंदिरा गांधी स्टेडियम से महज कुछ सौ मीटर दूर फिरोजशाह कोटला स्टेडियम खचाखच भरा था. वहां रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर और दिल्ली डेयरडेविल्स के बीच आईपीएल का मुकाबला चल रहा था. 300-400 मीटर की दूरी में दर्शकों की तादाद 300-400 सा 40-45 हजार में तब्दील हो जा रही थी. यह जानते हुए कि फिरोजशाह कोटला में कोई देश नहीं खेल रहे. सिर्फ दो फ्रेंचाइजी खेल रही हैं.

जितने लोग भारतीय खेलों की दुर्दशा के लिए आलोचकों को कोसते हैं, वे जरा याद करें कि पिछली बार किसी स्टेडियम मे जाकर उन्होंने कब मैच देखा. आईपीएल के फ्री पास के लिए जी-जान लगा देने वाले लोग याद करें कि पिछली बार उन्होंने कब ऐसा कोई मुकाबला देखा था, जहां कोई टिकट नहीं थी. भले ही वो क्रिकेट का मुकाबला हो, जहां रणजी ट्रॉफी या किसी भी घरेलू टूर्नामेंट में टिकट नहीं होती.

यकीनन फेडरेशन में खेलों का भला चाहने वाले लोग कम होंगे. यकीनन फेडरेशन ने अच्छा काम नहीं किया होगा. यकीनन स्टेडियमों की देखभाल वैसी नहीं होती, जैसी होनी चाहिए. यकीनन फेडरेशन अपने टूर्नामेंट का ऐसा प्रचार नहीं करता, जिससे आम लोग स्टेडियम में आने के लिए आकर्षित हों. ये सब वजह हैं, जो भारतीय खेलों के पीछे रहने में अहम वजह हैं. लेकिन इन सब वजहों को गिनाने के बाद खुद को भी आईने में देखें.

कुछ जिम्मेदारी तो हमारी-आपकी भी है ना जनाब!

आपको नहीं लगता है कि जब स्टेडियम खचाखच भरा होता है, तो खिलाड़ी का खेल ही अलग हो जाता है. क्या आपको नहीं लगता कि तालियां जब गूंजती हैं, तो वो माहौल ही अलग होता है. हमारे यहां तो कई लीग में जानबूझकर बड़े होर्डिंग से स्टेडियम की सीटें ढकी जाती हैं, ताकि टीवी पर खराब न दिखे. हमारे यहां कोशिश की जाती है कि मुकाबले इतने छोटे स्टेडियम में कराए जाएं, जहां ‘प्रायोजित’ भीड़ से स्टैंड भर जाएं. ये सब मजबूरियां हैं, क्योंकि हमने और आपने सिर्फ सिनेमाघर को अखाडा समझ लिया है. वहीं जाते हैं. दंगल जैसी फिल्म को कई सौ करोड़ का कारोबार देते हैं. उधर, दूर कहीं कोई असली बजरंग पूनिया, साक्षी मलिक, विनेश फोगाट तिरंगा लिए खाली स्टेडियम के चक्कर लगाते हैं. जहां भीड़ के नाम पर सिर्फ खेलों से जुड़े ऑफिशियल होते हैं.