view all

पुण्यतिथि विशेष, मेजर ध्यान चंद: जीवन ही नहीं, उनकी मौत से भी सबक लीजिए

जिस देश में खेल का सबसे बड़ा पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न हो और ध्यान चंद के नाम पर पुरस्कार प्रायोरिटी में नीचे आता हो वहां हम अपने खेल के हीरो के प्रति सम्मान समझ सकते हैं

Shailesh Chaturvedi

करीब 12 साल पहले की बात है. झांसी हीरोज मैदान के पास. मेजर ध्यानचंद की जन्मशती वर्ष था. झांसी में उनका घर, झांसी हीरोज ग्राउंड, उनके दोस्त भगवान दास गुप्ता जैसे तमाम लोगों से मिलने और उनसे जुड़ी तमाम यादें जुटाने के बाद मैंने अशोक कुमार से पूछा था- क्या वाकई, दद्दा की मौत एम्स के जनरल वार्ड में हुई थी? अशोक कुमार... दद्दा यानी मेजर ध्यान चंद के बेटे. भारत के महान हॉकी खिलाड़ियों में एक. विश्व कप विजय में भारत को चैंपियन बनाने वाले गोल स्कोरर.

सवाल सुनकर अशोक कुमार चुप हो गए. उन्होंने चेहरे को हल्की सी निराशा में हिलाया. हाथ का इशारा किया, जैसे कहना चाह रहे हों कि देख लीजिए, इस मुल्क में हीरो की नियति क्या होती है. फिर उन्होंने कहा, ‘मजे की बात यह है कि मैं अपनी मोटरसाइकिल से पंचकुइयां रोड गया. वहां मुझे बॉडी को झांसी ले जाने के लिए ताबूत की जरूरत थी. लौटकर आया, तो जैसे दुनिया बदल गई थी. राष्ट्रीय शोक घोषित हो गया था. लोगों का हूजूम था. उन्हें ले जाने के लिए चॉपर लाने की बात हो रही थी.’ लेकिन ये सब कब... जब दद्दा नहीं रहे.


हॉकी का जादूगर, भारतीय खेलों का झंडाबरदार, गुलाम भारत को दुनिया में मुकाम दिलाने वाला. ये सब बातें मेजर ध्यान चंद के लिए कही जाती हैं. वो गुलाम भारत को तीन ओलिंपिक गोल्ड दिलाने वाले खिलाड़ी थे. पूरी खेल दुनिया उन्हें सलामी देती थी. लेकिन आज से ठीक 38 साल पहले 3 दिसंबर 1979 को एम्स में वो पूरी तरह अकेले थे. बीमार हुए, कोमा में गए और फिर दुनिया छोड़ गए.

आखिरी मौके पर नहीं मिला ध्यान चंद को भारत रत्न

मेजर ध्यान चंद को भारत रत्न न देने पर खेल प्रेमियों का एक तबका नाराज भी हुआ था

यह मेजर ध्यान चंद के लिए नहीं, हमारे आपके लिए अहम है. यह जानना कि हम अपने हीरो का किस तरह ध्यान रखते हैं. जैसे ही, ग्लैमर हटता है, नजरें हट जाती हैं. रिटायरमेंट के बाद का जीवन इसीलिए बिल्कुल अलग होता है. शायद तभी जिस साल मेजर ध्यान चंद को भारत रत्न मिलना था, उन्हें नहीं दिया. उस वक्त, खेल मंत्रालय के सूत्रों ने बताया था कि दद्दा का नाम जा चुका है. हर तरफ से स्वीकृति मिल चुकी है. लेकिन तभी सचिन तेंदुलकर का रिटायरमेंट आ गया. उनके आखिरी टेस्ट के बीच ही उनका नाम भेजा गया. उसे पीएमओ से क्लीयर कराया गया. इसमें बड़ा रोल एक नेता का था, जो बीसीसीआई में बहुत पावरफुल थे. मेजर ध्यान चंद का नाम कट गया. आखिर ध्यान चंद को भारत रत्न देने से उतनी पब्लिसिटी थोड़ी मिलती, जितनी सचिन को दिए जाने से मिली.

उसके बाद से अशोक कुमार सहित तमाम लोग इस कोशिश में लगे हैं कि अब मिल जाए. पिछले दिनों अशोक कुमार ने कहा भी कि अब तो शर्म आने लगी है. ऐसा लगता है, जैसे भीख मांग रहे हों. हालांकि उन्हें इस साल भी भरोसा दिलाया गया है कि भारत रत्न मिलेगा. लेकिन वाकई, अगर ध्यान चंद के लिए भारत रत्न मांगना पड़े, तो शर्म की ही बात है.

रस्म अदायगी से ज्यादा करने की जरूरत है

लेकिन हम इस शर्म के साथ जीने के आदी हैं. हम हर 29 अगस्त और 3 दिसंबर को याद करेंगे कि कैसे ध्यान चंद ने भारत को ओलिंपिक गोल्ड दिलाए थे. हम कुछ सही और कुछ गलत किस्सों के साथ उनकी महानता का गुणगान करेंगे. हम बताएंगे कि कैसे वह तिरंगे को सलामी देकर हिटलर के मुल्क में जर्मनी के खिलाफ उतरे थे. कैसे उन्होंने हिटलर के सामने उनकी टीम को 1936 में मात दी थी. कैसे 60 की उम्र पार करने के बाद भी उन्होंने एक हाथ से खेलते हुए दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में गोल दागा था. फिर हर साल 29 अगस्त की सुबह जो भी खेल मंत्री होगा, वो दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में उनकी प्रतिमा पर फूल चढ़ाएगा. वहां खिलाड़ियों के सामने भाषण देगा कि दद्दा के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए.

हम उनके वो सब किस्से याद करेंगे. फिर मशगूल हो जाएंगे आज की दुनिया में. हमने दद्दा की कहानी से सबक नहीं लिया न लेंगे. जिस मुल्क में खेल के सबसे बड़े पुरस्कार का नाम राजीव गांधी खेल रत्न हो और ध्यान चंद के नाम पर पुरस्कार प्रायोरिटी में नीचे आता हो, वहां हम समझ सकते हैं कि हमें अपने खेल के हीरो से कितना प्यार है. दद्दा की कहानियां नहीं, उनकी पुण्यतिथि पर खेलों की कड़वी सच्चाई याद करना और सबक लेना उन्हें बेहतर श्रद्धांजलि होगी.