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केपीएस गिल: एक वो शेर जिसे शायरी भी पसंद थी

गिल कुछ भी बर्दाश्त कर सकते थे, लेकिन खालिस्तान का समर्थन नहीं

Shailesh Chaturvedi

दिल्ली के नेशनल स्टेडियम के बाहर की घटना है. एक युवा, जोश से भरी रिपोर्टर अपने माइक के साथ मौजूद थी. उसे केपीएस गिल का इंटरव्यू करना था. केपीएस गिल, जो उस वक्त भारतीय हॉकी फेडरेशन यानी आईएचएफ के अध्यक्ष थे.

रिपोर्टर को सारे ‘टफ क्वेश्चन’ पूछने थे. अंदर से गिल निकले. मूंछों पर ताव देते हुए उन्होंने रिपोर्टर को देखा. रिपोर्टर ने सवाल किया-हॉकी की इतनी दुर्दशा क्यों है? गिल ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को और बड़ा किया- वॉट नॉनसेंस.. क्या बकवास सवाल किया है?


अगला सवाल- अगर हॉकी में सब ठीक चल रहा है, तो इतने साल से नेशनल्स क्यों नहीं हुए? गिल की आंखें और बड़ी हो गईं- मोहतरमा, तैयारी करके आया कीजिए, अंदर क्या चल रहा है? अब रिपोर्टर पूरी तरह घबरा चुकी थीं. इस बीच गिल अपनी लाल बत्ती वाली गाड़ी में बैठे और चले गए.

रिपोर्टर अंदर गई कि वहां चल क्या रहा है. जाहिर है, खाली स्टेडियम था. कुछ नहीं चल रहा था. गिल से बात करने का पहला सबक रिपोर्टर को मिल चुका था. बिना तैयारी के उस शख्स से आप बात नहीं कर सकते. दूसरा सबक, गिल कुछ भी कह सकते हैं. सच हो या गलत.

केपीएस गिल का नाम लेते ही जेहन में अलग-अलग तरह की तस्वीरें उमड़ती हैं. तानाशाह, हॉकी को तबाह करने वाला, पंजाब में आतंकवाद का खात्मा करने वाला, महिला से दुर्व्यवहार की वजह से सजा पाने वाला...अलग-अलग तरह की इमेज. एक बैनर याद आता है, जो 2008 में लहराया गया था. तब भारतीय हॉकी टीम इतिहास में पहली बार ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई थी. बैनर पर लिखा था-गिल ने पंजाब से आतंकवाद खत्म किया और देश से हॉकी.

1994 में बने थे भारतीय हॉकी फेडरेशन के प्रमुख

केपीएस गिल को दरअसल, हॉकी में लाया गया था. जो लोग उन्हें मनाकर लाने में कामयाब हुए थे, उनमें परगट सिंह शामिल थे. गिल ने बड़े जोर-शोर से शुरुआत की. लेकिन उनके अंदर पंजाब पुलिस वाला अंदाज था.

तभी फेडरशन प्रमुख बनते ही दो पत्रकारों को पंजाब पुलिस ने उठा लिया था. उन दोनों की बातों से गिल नाराज थे. ‘बॉस’ को नाराज देखकर दोनों की जमकर पिटाई की गई. यहां तक कहा जाता है कि दोनों का एनकाउंटर करने की तैयारी थी.

पत्रकारों के साथ उनकी तल्खियां

उस एक घटना के बाद लगातार पत्रकारों से उनकी तल्खियां ही रहीं. एक पत्रकार उनके घर इंटरव्यू के लिए गया, तो उन्होंने अपने गार्ड को बुलाकर कहा था कि इसे बाहर फेंक दो.

एक से उन्होंने कहा-बरखुरदार, न तुम्हें हिंदी आती है न इंग्लिश.. मैं क्या तुमसे फ्रेंच में बात करूं? एक महिला पत्रकार ने उनसे एक बार सवाल किया. जवाब तो नहीं दिया. बस, इतना कहा- आज आप बिंदी बहुत अच्छी लगाकर आई हैं.

मेरे साथ भी इस तरह की घटना हुई है.

उन्होंने अखबार में मेरी एक रिपोर्ट को लेकर संपादक से शिकायत की. जब संपादक ने उन्हें बताया कि हम रिपोर्टर के साथ हैं और रिपोर्ट सही है, तो उन्होंने फोन पटक दिया. फोन पटकते हुए इतना जरूर कहा- आप भी क्लाउन हैं और आपका रिपोर्टर भी.

एक बार एक चैनल पर उनसे सवाल किया गया था कि भारतीय हॉकी की नाकामी के लिए क्या आपको इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? इस पर उन्होंने जवाब दिया कि आपकी टीम मेरे घर इंटरव्यू के लिए आई. यहां वो इंटरव्यू नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि ओबी वैन में गड़बड़ी थी. आपको नहीं लगता कि इसके लिए आपके एडिटर इन चीफ को इस्तीफा दे देना चाहिए? ये उनका तरीका था.आग को आग से काटने का. किसी भी रिपोर्टर की खबर को यह कहकर खारिज करने में उन्हें बड़ा मजा आता था कि इस रिपोर्टर को मैंने जिंदगी में कभी मैदान पर नहीं देखा.

हॉकी खिलाड़ियों के साथ उनका व्यवहार

केपीएस गिल का एक इंटरव्यू में दिया यह बयान बड़ा चर्चित हुआ था कि मैच फीस ‘ब्राइबरी’ है. इसलिए हम हॉकी में कभी मैच फीस नहीं देंगे. धनराज पिल्लै के साथ उनके कड़वे-मीठे अनुभवों पर तो किताब लिखी जा सकती है. 1998 में एशियाई खेलों का गोल्ड जीतने के बाद उन्होंने धनराज सहित कई बड़े खिलाड़ियों को बाहर कर दिया था. वजह थी कि उस समय खिलाड़ी मैच फीस की मांग करने लगे थे.

गिल ने बाहर किए जाने की वजह बताते हुए कहा था-'क्या आपको पता है कि एशियाड में हुआ क्या था? वहां खिलाड़ियों के बीच खून-खराबा हो गया था'.

बड़े आराम से उन्होंने दो खिलाड़ियों के बीच की झड़प को खून-खराबा बता दिया था.

2004 ओलिंपिक से ठीक पहले उन्होंने धनराज को टीम से बाहर कर दिया था. एक कॉरपोरेट हाउस का दबाव नहीं होता, तो धनराज वो ओलिंपिक भी नहीं खेल पाते.

जिन परगट सिंह का उन्हें लाने में बड़ा रोल रहा, उनके रिश्ते भी बाद में तल्ख हो गए. बल्कि परगट, महान खिलाड़ी अशोक कुमार जैसों के लिए उन्होंने एक बयान दिया था. उन्होंने कहा था-'ये लोग रुदाली हैं. इन्हें सिर्फ रोना आता है'.

गिल के समय भारतीय हॉकी ने कुछ ऊंचाइयां देखीं.

2001 में भारत ने जूनियर वर्ल्ड कप जीता. 2000 के सिडनी ओलिंपिक में भारत सेमीफाइनल के बहुत करीब पहुंचा. भारत में खेल लीग शुरू करने का श्रेय उन्हें जाता है. 2005 में प्रीमियर हॉकी लीग शुरू हुई थी. वो हमेशा कहते भी थे कि हॉकी ने क्रिकेट से नहीं, क्रिकेट ने हॉकी से सीखा है. आईपीएल बाद में शुरू हुआ, पीएचएल पहले आया. भारतीय हॉकी के लिए 2003-04 का समय बहुत अच्छा रहा. लेकिन उसके बाद अचानक सब कुछ बदल गया.

ओलिंपिक से एक महीने से भी कम बाकी था, जब उन्होंने कोच को हटा दिया. उसके लिए भी उनके पास वजह थी. दरअसल, अमेरिका में टीम का कैंप लगा था. गिल के पास खबर आई कि कोच राजिंदर सिंह सीनियर ऐसे कुछ लोगों के घर गए हैं, जो खालिस्तान समर्थक हैं. गिल कुछ भी बर्दाश्त कर सकते थे, लेकिन खालिस्तान का समर्थन नहीं.

उन्होंने तुरंत कोच को हटाने का फैसला किया. आतंकवाद का खात्मा करने के उनके तरीकों को लेकर तमाम कहानियां रही हैं. इनमें कितनी सच्चाई है, नहीं कहा जा सकता. लेकिन हर कहानी ये बताती है कि खालिस्तान समर्थक से जरा सा संपर्क भी वो बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.

गिल का दूसरा पहलू

केपीएस गिल की शख्सियत के तमाम पहलू हम सब जानते हैं. कुछ अनजाने पहलू हैं. जैसे हर महीने वो वृंदावन जाते थे. वहां विधवाओं की संस्था को लगातार वो पैसे और मदद भेजते थे. उन्हें पढ़ने-लिखने का बेहद शौक था.

एक प्रेस कांफ्रेंस याद है. वहां उन्होंने किसी बात पर एक शेर पढ़ा-'सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा'...उसके बाद वो दूसरी लाइन भूल गए. उन्होंने पूछा- मुझे उम्मीद तो नहीं है, लेकिन क्या किसी को इसकी दूसरी लाइन याद है? जब उन्हें पता चला कि हॉल में मौजूद एक से ज्यादा लोगों को वो शेर याद है, तो बहुत खुश हुए. उन्होंने फैज़, ग़ालिब, ज़ौक से लेकर तमाम शायरों के कई शेर उस प्रेस कांफ्रेंस में सुनाए.

2006 के दोहा एशियाड में दिलीप टिर्की भारतीय टीम के कप्तान थे. हम लोग दोहा में बात कर रहे थे कि क्या फेडरेशन से कोई कुछ बात करता है आपसे? इस समय राज्यसभा सांसद दिलीप टिर्की के जवाब में चौंकाया. उन्होंने कहा- आपको यकीन नहीं होगा कि गिल साहब रोज फोन करते हैं. वो पूछते हैं कि कोई बीमार तो नहीं है. किसी को पैसों की जरूरत तो नहीं. किसी भी तरह की जरूरत हो, तो मुझे बताओ. किसी को खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.

गिल का ये रूप वाकई अलग था. उनके बारे में कहा भी जाता है कि जब हॉकी टीम को पैसों की जरूरत होती थी, वो फोन उठाते थे. कुछ देर में कोई न कोई पैसे लेकर आ जाता था. उस पैसे का कोई हिसाब नहीं होता था. लेकिन खिलाड़ियों को पैसे दे दिए जाते थे. बस, गिल उसे सिस्टम में लाने के खिलाफ थे.

आज वो चले गए हैं. 82 की उम्र में. उनकी शेर-ओ शायरी, उनकी तल्खी, उनकी गुर्राहट, शेर जैसा उनका चेहरा कभी नहीं भूला जा सकता. वाकई वो शेर की तरह थे. जंगल के राजा की तरह, जहां अगर आप प्रजा की तरह हैं, तो वो आप पर मेहरबान हैं. लेकिन अगर आप प्रजा से ज्यादा हैं, तो फिर वो सुपरकॉप हैं. केपीएस गिल जैसी शख्सियत शायद ही भारतीय खेलों के इतिहास में फिर कभी आएगी. उनका जैसा न कोई था, न कोई होगा.