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संडे स्पेशल : एक खूबसूरत खेल जो हमारी दुनिया का आईना है

फुटबॉल एक ख़ूबसूरत खेल है और जो रोमांच फुटबॉल विश्व कप में है, वह कहीं नही है

Rajendra Dhodapkar

अगले महीने फुटबॉल का विश्व कप होगा और हम भारतीयों को भी क्रिकेट से कुछ राहत मिलेगी. राहत इसलिए, क्योंकि बेशक क्रिकेट हमारा सबसे प्रिय खेल है, लेकिन ज्यादातर जो क्रिकेट हम देखते हैं वह बहुत आला दर्जे का नहीं होता. कई बार मैचों को इसलिए सनसनीखेज बनाकर बेचा जाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि हमारे क्रिकेट प्रेमी दर्शक क्रिकेट के नाम पर कुछ भी देख लेंगे.  हमारे दर्शक भी इस बात को सही साबित करते रहते हैं.

आईपीएल देखना कायदे से सास बहू सीरियल या सनसनीखेज खबरिया चैनल देखने जैसा ही है. दरअसल, वो एंटरटेनमेंट शो है. इंटरनेशनल क्रिकेट में अगर कोई कायदे की सीरीज हो सकती है तो ‘मार्केट फोर्स’ मिलकर उसे कायदे का नहीं होने देते. मेरी राय में पिछले दिनों सबसे दर्शनीय क्रिकेट मैच पाकिस्तान और आयरलैंड के बीच खेला गया आयरलैंड का पहला टेस्ट मैच था, जिसे शायद भारतीय दर्शकों ने तो ज्यादा नहीं देखा.


ओलिंपिक खेलों से भी ज्यादा है फीफा वर्ल्ड कप की अहमियत 

बहरहाल, अब फुटबॉल विश्व कप का माहौल बनने लगा है. फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है और उसका विश्व कप, ओलिंपिक खेलों से भी बड़े, दुनिया का सबसे ज्यादा देखा जाने खेल आयोजन है. दोनों अमेरिकी महाद्वीपों, यूरोप और अफ्रीका में वह सबसे बड़ा खेल है. एशिया में जैसे-जैसे हम पूर्व की ओर आते हैं, उसकी लोकप्रियता तो बहुत है, लेकिन दुनिया के फुटबॉल में इन देशों की जगह खास नहीं है. फुटबॉल की लोकप्रियता पर बहुत लिखा गया है और तकरीबन हर देश के सिनेमा में भी फुटबॉल काफी आया है.

आज से करीब चालीस साल पहले जब मैं भोपाल में रहता था, कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया था. तब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मेरे कई दोस्त थे और बहुत सारा वक्त उनके साथ बीतता था. उन दिनों ही संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिए गए थे और मंडी हाउस इलाके में पुरस्कृत कलाकारों की प्रस्तुतियां रही थीं. नाटक के लिए उस साल पुरस्कार बंगाल के विख्यात नाट्य निदेशक रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता को दिया गया था. रूद्रप्रसाद सेनगुप्ता के ‘नांदीकार’ समूह का चर्चित नाटक ‘फुटबॉल’ इसी सिलसिले में खेला गया था.

वह असाधारण प्रस्तुति थी. हम सोच भी नहीं सकते थे कि किसी खेल और उसके समाजशास्त्र पर ऐसा नाटक खेला जा सकता है. उस नाटक में सत्तर के दशक के कोलकाता के अराजक माहौल में कुछ नौजवानों की कहानी थी जो किसी फुटबॉल क्लब के समर्थक हैं. फुटबॉल उन लोगों के अराजक और दिशाहीन जीवन के खालीपन को भरने वाला जुनून है. फुटबॉल से जुड़ी राजनीति, गिरोहों की हिंसा और भटकाव को यह नाटक बहुत प्रभावशाली ढंग से दिखाता है.

रुद्रप्रसाद का यह नाटक अंग्रेज नाटककार पीटर टैर्सन के नाटक ‘जीगर ज़ैगर’ का रूपांतरण है. पीटर टैर्सन का नाटक सन 1967 में लंदन के नेशनल यूथ थियेटर ने पहली बार मंचित किया था और इसे अभूतपूर्व सफलता मिली थी. इसके तमाम प्रदर्शन हाउसफुल हुए थे. बाद में बीबीसी ने इस पर फिल्म भी बनाई.

फुटबॉल पर किया गया नाटक हो गया था चर्चित

पीटर टैर्सन तब युवा नाटककार थे और इस नाटक ने उन्हें भी रातोंरात चर्चित कर दिया. इस नाटक के मंचन को इतनी बड़ी घटना माना गया कि पिछले साल इसके पचास साल पूरे होने पर इंग्लैंड में कई आयोजन किए गए. इस नाटक में इंग्लैंड की मजदूर बस्ती में रह रहे एक निम्न मध्यमवर्गीय नौजवान की कथा है जो स्कूल से निकल कर ज़िंदगी की राह तलाश रहा है. न उसकी पढ़ाई ने उसे कोई राह दिखाई है, न उसका बिखरा हुआ परिवार उसे कोई सहारा दे सकता है.

वह एक फ़ुटबॉल क्लब के समर्थकों के गिरोह में शामिल हो जाता है, जहां हिंसा, नशा, सेक्स और इसी किस्म का रोमांच है. उसके समने दो राहें हैं,  या तो वह किसी कारख़ाने में काम करे और घिसी-पिटी ज़िंदगी स्वीकार करे या फिर ‘ब्रिटिश फुटबॉल फैन’ की रोमांचक और खतरनाक जिंदगी जिए.

यह नाटक बुनियादी तौर पर ऐसे नौजवानों की दिशाहीन और खाली जिंदगी को दिखाता है. लेकिन एक स्तर पर यह नाटक फुटबॉल के आकर्षण और रोमांस को भी अभिव्यक्ति देता है. फुटबॉल का जुनून अक्सर ऐसे समाज के आपराधिक काले सफेद इलाकों तक भी ले जाता है. लेकिन वह दूसरी ओर हम सबको एक ऐसे तार से जोड़ता है, जिसकी लय और सुर हमारी ज़िंदगी को समृद्ध बनाते हैं.

फुटबॉल में ऐसा क्या है, जो उससे ऐसा जुड़ाव पैदा करता है, जो किसी और खेल के साथ नहीं होता? भारत जैसे देश में क्रिकेट की लोकप्रियता बहुत ज्यादा है. लेकिन आईपीएल जैसी लीग दर्शकों में वैसी वफादारी और लगाव नहीं पैदा कर पाई, जैसी फुटबॉल टीमें और खिलाड़ी पैदा कर पाए हैं. आईपीएल देखने वाले उसे मनोरंजन की तरह देखते हैं. फिर अपने अपने काम पर लग जाते हैं.

वह फुटबॉल की तरह जीवन मरण का सवाल नहीं बनता. इसकी वजह शायद यह है कि फुटबॉल शायद अकेला सचमुच का सामूहिक खेल है. इस मायने में कि दर्शक भी खुद को अपनी टीम का सदस्य समझता है, वह निरा दर्शक नहीं रहता. बाकी सामूहिक खेलों में दर्शकों और खिलाड़ियों के बीच कुछ दूरी जरूर बनी रहती है.

फुटबॉल स्थानीय भावनाओं के जुड़ने वाला खेल

किसी दौर में वेस्टइंडीज़ में क्रिकेट ने और अमेरिका में मुक्केबाज़ी ने अश्वेतों के संघर्ष के साथ जुड़ कर कुछ ऐसी हैसियत हासिल की थी. लेकिन उस दौर के साथ वह हैसियत भी खत्म हो गई. फुटबॉल चाहे बोगोटा में हो या मैनचेस्टर में या मैड्रिड में हो या कोलकाता में, वह लोगों का अपना खेल होता है जो स्थानीय भावनाओं के साथ जुड़कर अपनी एक सांस्कृतिक पहचान बना लेता है.

इसकी वजह शायद फुटबॉल की जड़ों में है. फुटबॉल के इतिहास में बार बार ‘ट्राइबल’ शब्द पढ़ने में आता है. हम पढ़ते हैं कि फुटबॉल जैसा खेल सदियों से तमाम समाजों में खेला जाता था और उसमें सारे का सारा गांव खेलता था. न उसमें खिलाड़ियों की संख्या सीमित होती थी, न मैदानों का कोई बंधन होता था. सड़कें, चौराहे, खेत सब मैदान का हिस्सा होते थे, जिनमें लोग गेंद या गेंदनुमा किसी चीज़ को इधर उधर पैर से धकेलते थे.

उन्नीसवीं सदी के इंग्लैंड में पब्लिक स्कूलों ने क्रिकेट और फुटबॉल को अपने छात्रों को सामूहिकता, नेतृत्व और अनुशासन जैसे गुणों का प्रशिक्षण देने के लिए अपनाया और इन खेलों के नियम बने. क्रिकेट पर तो पब्लिक स्कूलों के अभिजात्य माहौल का असर बना रहा और वह मुख्यत: मध्यमवर्गीय खेल बना रहा. लेकिन फुटबॉल अपने ग्रामीण और कबीलाई जड़ों से कहीं जुड़ा रहा. यही वजह है कि वह हर देश, समाज, वर्गीकरण नस्ल के लोगों का प्रिय खेल है. वह अभिजात वर्ग से लेकर तो मज़दूरों तक सबका अपना खेल है, क्योंकि वह हमारे सामूहिकता के संस्कार से जुड़ता है.

शायद यही वजह है कि वह फ़ैन्स में भयानक किस्म की वफ़ादारी और एकजुटता भी पैदा करता है, जो कभी हिंसक भी हो जाती है. दरअसल, फुटबॉल हमारी दुनिया का आईना है जिसमें हम सुंदरता भी देख सकते हैं और अपने समाज की शक्ल पर कुछ बदसूरती के दाग भी, जो भी हम देखना चाहें.

लेकिन फुटबॉल एक ख़ूबसूरत खेल है और जो रोमांच फुटबॉल विश्व कप में है, वह कहीं नही है.