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नक्सलियों के खौफ में जी रहे इस गांव की फुटबॉलर बेटियों ने बदल दी तस्वीर....

बेटियों की पढ़ाई के साथ उनका फुटबॉल जारी रहे इसके लिए माँ पिता अब और ज्यादा मेहनत करने लगे हैं

Brajesh Roy

फुटबॉल का जुनून इन दिनों लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा है. इसी कड़ी में हम आपको कुछ अलग तरह की कहानी बताने जा रहे हैं. झारखंड के नक्सल प्रभावित गांव की नन्ही मासूम बच्चियां जब मैदान में फुटबॉल के साथ ड्रिबलिंग करती और किक मारती दिखाई पड़ती हैं तो बस आप देखते रह जाएंगे.

पहनने को ढंग के कपड़े नहीं, नंगे पांव ही मैदान पर. लेकिन पैदा हुआ है गजब का जुनून. रांची से 35 किमी दूर ओरमांझी प्रखंड के हुटुप रुक्का और गगारी गांव के मैदान में कुल आठ गांव की आदिवासी बच्चियां फुटबॉल का गुर सीखने में लगी हैं. तीन से 16-18 साल की ये लड़कियां हर दिन शाम चार बजने के साथ ही फुटबॉल के मैदान में पहुंच जाती हैं. युवा फाउंडेशन संस्था की कोच इन बच्चियों को लेकर मैदान में पहुंच जाती हैं.


नेहा बेदिया है गगारी गांव के फुटबॉल टीम की कप्तान

छठी क्लास में पढ़ने वाली आदिवासी नेहा बेदिया पिछले दो साल से अपने गांव के फुटबॉल टीम की कप्तान हैं. मां बाप की इकलौती बेटी नेहा को घर के काम काज में भी हाथ बंटाना पड़ता है. मां चूल्हा चौका करती हैं तो नेहा झाड़ू पोछा से लेकर बर्तन धोने और घर के लिए हैंड पंप से पानी लाने का काम करती है. पिता सधनु बेदिया एक प्राइवेट कंपनी के दफ्तर में चपरासी का काम करते हैं. मां शीला बेदिया पास के एक कपड़े की दुकान में काम करती हैं. सिंचाई सुविधाओं का अभाव झेलता यह बेदिया परिवार बमुश्किल साल भर दो जून की रोटी जुटा पाता है. फिर भी फुटबॉल अब नेहा के लिए जुनून है.

नेहा बेदिया

मां शीला बेदिया भी कहती हैं कि पिछले तीन साल में कोई दिन भी ऐसा नहीं आया जब नेहा शाम को फुटबॉल मैदान में अपनी टीम के लिए ना पहुंची हो. नेहा कहती है कि उसका ख्वाब है वो अपनी कोच दीदी की तरह देश विदेश के मैदान पर फुटबॉल खेले. बड़ी होकर टीम इंडिया के लिए फुटबॉल खेलना. नेहा की तरह ही गगारी, हेसातु, आरा, केरम, मनातू, हुटुप और रुक्का गांव की 350 से ज्यादा लड़कियों में आज फुटबॉल का जुनून सिर चढ़ कर बोल रहा है.

फुटबॉल मैदान में पहुंचने की कहानी बड़ी रोचक है  

आज से दस साल पहले रांची शहर से सटे इस गांव मे यहां की गरीब नन्ही लड़कियों ने फुटबॉल खेलना शुरू किया था. एक अमेरिकी फुटबॉल ट्रेनर फ्रेंज गैस्लर जब इस इलाके के गांव हुटुप में आए थे. तब फ्रेंज को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी इन लड़कियों के परिवार वालों को मनाने में. सबसे बड़ी बाधा बनी फ्रेंज की भाषा. इसके लिए फ्रेंज ने पहले बाकायदा हिंदी सीखी. कारण था नक्सल प्रभावित गांव के लोग किसी भी अनजान से मेल मिलाप नहीं रखना चाहते थे. फिर फ्रेंज तो गोरे थे, कैसे भरोसा होता आदिवासी ग्रामीणों को. दो साल लग गए फ्रेंज को माहौल बनाने में.

आखिरकार गांव वाले मान गए. फिर यहां की आदिवासी लड़कियों ने फुटबॉल खेलना शुरू किया. धीरे-धीरे इस गांव के अलावा दूसरे गांव की भी लड़कियां खेलने के लिए मैदान पर जुटने लगी थीं. सिलसिला आगे बढ़ता गया और आज लगभग 350 से ज्यादा लड़कियां हर दिन फुटबॉल के मैदान पर पसीना बहाती हैं.

2013 का साल इनके लिए यादगार रहा था  

पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद 2013 की 27 जून को फ्रेंज एक टीम तैयार कर इन नन्हीं परियों को फुटबॉल के एक बड़े टूर्नामेंट गेसटीस कप के लिए स्पेन ले गए. झारखंड जैसे गरीब प्रदेश की इन लड़कियों ने चकाचौंध की जिंदगी को भी इस दौरान करीब से देखा और जिया भी. फिर जब मैच शुरू हुआ तो झारखंड की इन नन्हीं परियों ने विदेशी जमीन पर कदम दर कदम सफलता के झंडे गाड़ना शुरू कर दिया था. फाइनल तो ये नहीं जीत पाईं, लेकिन फिर भी इन्होंने उस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट मे ब्रांज मेडल के साथ तीसरा स्थान पाकर अपने कोच और ट्रेनर फ्रेंज के साथ हिंदुस्तान का झंडा स्पेन में लहरा दिया था.

बगैर किसी सरकारी मदद के जीत की कहानी जब झारखंड पहुंची तब राज्य सरकार ने भी अपनी फुटबॉल की नन्हीं परियों का अभिनंदन किया था. तत्कालीन युवा सीएम हेमंत सोरेन ने प्रत्येक खिलाड़ी को 21-21 हजार रुपए का नगद पुरस्कार भी दिया था.

कल के फुटबॉल टीम की सदस्य और वर्तमान कोच नेहा खालको आज भी उन दिनों की याद बड़े अरमान से सहेज कर रखती हैं. नेहा के अनुसार स्पेन के बाद कनाडा, अमेरिका में इनकी टीम ने कई टूर्नामेंट खेले और अपने खेल का बेहतरीन प्रदर्शन भी किया. फुटबॉल का ककहरा सिखाकर सफलता की सीढ़ी चढ़ाने वाले ट्रेनर फ्रेंज इन दिनों अमेरिका में छुट्टी बिता रहे हैं.

बहरहाल फ्रेंज गैस्लर और युवा फाउंडेशन संस्था की पहल का असर यह हुआ कि अब नक्सल प्रभावित आठ गांव की आदिवासी लड़कियां घर की चौखट से बाहर निकलकर मैदान में बॉल को किक लगा रही हैं. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि आदिवासी समाज और परिवार भी अपनी दकियानूसी विचार से अब बाहर निकलते हुए अपनी बेटियों के खेल से पहचाने जाने लगे हैं. गांव के लोग जब खुश होकर इन्हे फुटबॉल खिलाड़ी के मां-पिता के तौर पर पुकारते हैं तो इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता.

तत्कालीन सीएम हेमंत सोरेन

दरअसल नक्सल प्रभाव वाले इलाके के गांव में आदिवासी अपनी इज्जत आबरू को लेकर फिक्रमंद कभी रहा करते थे. बेटियों को फुटबॉल मैदान में खेलता देख गरीब मां-पिता भी अपनी मुफ़लिसी को कुछ देर के लिए ही सही भूल जाया करते हैं. बेटियों की पढ़ाई के साथ उनका फुटबॉल जारी रहे इसके लिए मां-पिता अब और ज्यादा मेहनत करने लगे हैं. सच में अब फुटबॉलर बेटियों ने बदल दी है परिवार और गांव की तस्वीर.