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संडे स्‍पेशल: फीफा वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंचने के बाद क्या बदलेंगे क्रोएशिया और फ्रांस के हालात?

फ्रांस में फ्रांसीसी मूल के लोगों और अफ्रीकी अप्रवासी लोगों के बीच कुछ अशांति और अविश्वास का माहौल बना रहता है, अब शायद हालात बदल जाए

Rajendra Dhodapkar

व्यक्तिगत तौर पर मुझे फाइनल में फ्रांस की जीत से खुशी हुई, क्योंकि वह मेरे हिसाब से बेहतर टीम थी. मेरी इच्छा तो यह थी कि फाइनल में फ्रांस और बेल्जियम का मुकाबला हो, क्योंकि बेल्जियम भी बला का खूबसूरत खेल रही थी, लेकिन ड्रॉ कुछ ऐसा था कि इन दोनों टीमों को सेमीफाइनल में ही टकराना पड़ा और अब खेल प्रेमियों का ध्यान दूसरे खेलों पर जाना शुरु हो गया है. फ्रांस की जीत इसलिए भी अच्छी है क्योंकि इससे उस देश में कुछ बेहतर माहौल बना. फ्रांस में फ्रांसीसी मूल के लोगों और अफ्रीकी अप्रवासी लोगों के बीच कुछ अशांति और अविश्वास का माहौल बना रहता है.

अप्रवासी लोग अमूमन ज्यादा गरीब हैं और शहरों के गरीब इलाकों में रहते हैं. शिक्षा और रोजगार के मामले में भी वे पिछड़े हुए हैं , ऐसे में कुछ नौजवानों के असंतोष को भुनाने की कोशिश धार्मिक कट्टरपंथी और आतंकवादी संगठन कर रहे हैं. फ्रांस की इस सामाजिक खाई को पिछले कुछ वर्षों में हुए आतंकवादी हमलों ने चौड़ा कर दिया है.


लेकिन इन्हीं पिछड़े इलाकों से पोग्बा और एमबाप्‍पे जैसे फुटबॉल के सितारे भी निकल रहे हैं. फ्रांस की विश्वविजेता टीम के अस्सी प्रतिशत खिलाडी अप्रवासी मूल के हैं. अगर यह जीत कुछ हद तक फ्रांस के सामाजिक विभाजन को कम कर पाए तो इससे अच्छा क्या होगा.

क्रोएशिया में स्थिति कुछ अलग है. सोवियत संघ के ढहने के बाद उसके प्रभाव में रहे पूर्वी यूरोपीय देशों में भी भारी टूटफूट हुई. सब से ज्यादा टुकड़े पूर्व युगोस्लाविया के हुए. वहां एक की जगह सात देश बन गए. ये देश काफी खून खराबे के बाद बने हैं इसलिए इनमें आपसी दुश्मनी और उग्र राष्ट्रवाद का जोर बहुत है. वैसे भी तमाम पूर्वी यूरोपीय देशों की राजनीति उग्र राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी है और क्रोएशिया भी अपवाद नहीं है.

क्रोएशियाई फुटबॉल में भी संकीर्ण दक्षिणपंथी और उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं का बोलबाला है और यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि अगर क्रोएशिया विश्व कप जीतता है तो अनुदार और संकीर्ण राजनीति को ज्यादा बढ़ावा मिलेगा. पचास लाख से कम जनसंख्या वाले छोटे से देश का फाइनल में पहुँचना अपने आप में एक बड़ी बात तो है ही लेकिन यह भी सच है कि फुटबॉल के खूबसूरत खेल के पीछे राजनैतिक संकीर्णता , उग्र राष्ट्रवाद , नस्लवाद और भारी भ्रष्टाचार की भी कई कहानियाँ मौजूद है.

हम लोग अक्सर खेल को हमारे राष्ट्रवाद का और उस वक्त प्रभावी विचारधारा का आइना मान लेते हैं , जैसा है नहीं. अगर देश दक्षिणपंथी प्रभाव में है तो राजनेता और खेल प्रशासक लोकप्रिय खेल को अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए इस्तेमाल करते हैं और खिलाडी भी यही सुरक्षित मानते हैं कि वे उस वक्त सत्तारूढ़ नेता और विचारधारा का समर्थन करें. यही हाल वामपंथी शासन में भी होता है. कोई भी खिलाडी सत्तारूढ़ ताक़तों का विरोध करके अपने करियर को खतरे में नहीं डालना चाहता. लूका मोड्रिच आज लोकप्रियता के शिखर पर हैं, लेकिन एक साल पहले वे अपने देश के सबसे ज्यादा नापसंद किए जाने वाले व्यक्ति थे. उन्होने अपने देश के एक बहुत ताकतवर फुटबॉल प्रशासक ज्‍द्राव्को मामिक का भ्रष्ट्राचार के एक मामले में बचाव किया था.

मामिक पर कई आरोप थे, जिनमें से एक बडा आरोप यह था कि वे खिलाड़ियों की ट्रांसफर फीस का एक बडा हिस्सा हड़प जाते थे. मामिक ने मोड्रिच को उनके करियर की शुरुआत में काफी मदद की थी. मामिक ने मोड्रिच से भी पैसे लिए थे. अदालत में मोड्रिच ने झूठ बोलकर मामिक को बचाने की कोशिश की, लेकिन जब सचाई खुली तो उन्होंने बयान बदल दिया. उन पर अदालत में शपथ लेकर झूठ बोलने का इल्जाम लगा और वे मुश्किल से जेल जाने से बचे.

मौजूदा क्रोएशियाई राष्ट्रपति कोलिंदा गैबर कितारोविच की राजनीति में पैसा लगाने वाले लोगों में मामिक भी हैं. अगर क्रोएशियाई राष्ट्रपति फुटबॉल फाइनल देखने के लिए मास्को में मौजूद थीं तो उसके पीछे खेल प्रेम नहीं था, फुटबॉल के जरिए अपना अगला चुनाव जीतने की मंशा थी. इसी तरह फ्रांस के राष्ट्रपति  मैक्रोन  भी यह उम्मीद कर रहे हैं कि इस विश्व कप का फायदा उन्हें अगले चुनाव में होगा. ऐसा नहीं है कि फ्रांस की समस्याएं इस जीत से कम हो गई है, लेकिन इस जीत से देश में खुशी की जो लहर फैली है, उससे लोग बहुत सारी शिकायतें भूल जाएंगे. बीस साल पहले जब फ्रांस विश्व कप जीता था, तब भी तत्कालीन राष्ट्रपति जैकस चिराक अगला चुनाव जीते थे और इस जीत की एक बड़ी वजह विश्व कप में जीत को माना गया था.

इसलिए वास्तविकता यह है कि भले ही अप्रवासियों की इस टीम ने विश्व कप जीता है और इसकी वजह से फ्रांस में कड़वाहट कम हुई है, लेकिन इससे कोई स्थायी असर पड़ेगा ऐसा नहीं है. बुनियादी बात यह है कि खेलों का देश की परिस्थिति पर बहुत कम असर होता है , जो ज्यादा असर होते दिखता है वह इसलिए कि राजनेता खेल की लोकप्रियता को अपने लिए भुनाने की कोशिश करते हैं. नेल्‍सन मंडेला जैसा महान नेता ही खेलों का इस्तेमाल एक बडे उद्देश्य के लिए कर पाते हैं. खेल की जीत तो देश की या राष्ट्रवाद की जीत मानने के या उन्हें देश की इज्ज्त से जोड़ते समय थोड़ा ठहर कर सोचना चाहिए. खेल को खेल की तरह देखना हर मायने में मुफीद है , वह खेल के लिए भी अच्छा है और हमारे लिए भी.