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Sunday Special: विकेटकीपर के लिए सिर्फ काबिल होना काफी नहीं है, इस मामले में खुशकिस्‍मत हैं साहा

साहा इस मायने में किस्मत वाले हैं कि पुराने किस्म के सीधे सादे विकेटकीपर होते हुए भी वह इस दौर में भारत के नंबर एक विकेटकीपर बन पाए

Rajendra Dhodapkar

कहते हैं कि नेपोलियन कोजब किसी सैन्य अधिकारी की भर्ती करनी होती थी तो उसके बारे में जो सवाल वह पूछा करता था उनमें से एक सवाल यह भी होता था, क्या वह खुशकिस्‍मत  है? हार-जीत, कामयाबी-नाकामी, इन सब में किस्‍मत की बड़ी भूमिका होती है, यह नेपोलियन से बेहतर कौन जान सकता था. क्रिकेट में भी किस्‍मत बड़ी चीज होती है, यह हम देखते ही हैं. इस मायने में मुझे लगता है कि ऋद्धिमान साहा बड़े किस्‍मत वाले खिलाड़ी  रहे हैं. इसलिए नहीं कि वह भारत के टेस्ट विकेटकीपर होने के काबिल नहीं थे. वह निसंदेह अपने दौर के सबसे काबिल विकेटकीपर हैं, लेकिन क्रिकेट खिलाड़ी के लिए खास कर विकेटकीपर के लिए सिर्फ काबिल होना काफी नहीं है.


गॉडफ्रे इवांस ने बदल दिए थे विकेटकीपिंग के मायने

बहुत अर्सा पहले मैंने इसी स्तंभ में अंग्रेज विकेटकीपर गॉडफ्रे इवांस के बारे में लिखा था. इवांस दूसरे महायुद्ध के तुरंत बाद इंग्लैंड के विकेटकीपर हुए और उन्होंंने  विकेटकीपिंग के मायने काफी हद तक बदल दिए. दूसरे महायुद्ध के पहले विकेटकीपर की स्टंप के पीछे काबिलियत देखी जाती थी और अगर वह कुछ बल्लेबाजी भी कर लेता हो तो सोने में सुहागा होता था. इवांस कुछ शोमैन किस्‍म के विकेटकीपर थे जिनके नाटकीय अंदाज से दर्शक बड़े प्रभावित होते थे. पहले विकेटकीपर चुपचाप अपना काम करने वाले खिलाड़ी होते थे, जिन्हें दर्शक नोटिस भी नहीं करते थे. इवांस ने इस काम को ग्लैमरस बना दिया. बल्कि इवांस नाटकीयता के चक्कर में गलतियां भी कर बैठते थे, जैसे एक बार कैच पकड़कर गेंद को हवा में ऊंचा उछालने की हड़बड़ी में उनके हाथों से कैच छूट गया. उनके समकालीन अंग्रेज विकेटकीपर जिम पार्क्स बढ़िया विकेटकीपर थे. बल्लेबाज तो वे बेहतरीन थे ही, उन्होने करियर की शुरुआत बल्लेबाज के तौर पर ही की थी, विकेटकीपर वह बाद में बने, लेकिन इवांस को हमेशा उन पर तरजीह दी गई, क्योंकि इवांस छा जाने वाले विकेटकीपर थे. उसके बाद कामयाब विकेटकीपर होने के लिए कुछ हीरो किस्म का खिलाड़ी होना अनिवार्य सा हो गया.

साहा पुराने किस्म के विकेटकीपर होते हुए भी नंबर एक बने 

साहा इस मायने में किस्मत वाले हैं कि पुराने किस्म के सीधे सादे विकेटकीपर होते हुए भी वह इस दौर में भारत के नंबर एक विकेटकीपर बन पाए. उनकी बल्लेबाजी भी बहुत ग्लैमरस नहीं है. फिर भी वे महेंद्र सिंह धोनी जैसे प्रभावशाली विकेटकीपर बल्लेबाज, कप्तान के उत्तराधिकारी बने. ऋषभ पंत अलबत्ता जरूर बहुत चमकदार खिलाड़ी हैं. जैसी बल्लेबाजी वह करते हैं वो तो उनके सुपरस्टार बनने की संभावना को दिखाती है. इसीलिए इतनी छोटी उम्र में वह इतनी तरक्की कर पाए. अलबत्ता उन्हें विकेटकीपिंग में काफी मेहनत करने की जरूरत है तभी वह लंबे दौर के लिए भारतीय टीम में जगह बना पाएंगे. सिर्फ विकेटकीपिंग ही नहीं खेल के हर क्षेत्र में कुछ किस्मत का साथ होना जरूरी होता है. जैसे हम यह नहीं जानते कि सफल फिल्मी हीरो होने की ठीक-ठीक शर्तें क्या हैं. वैसे ही हम नहीं जानते कि क्रिकेट में सफल होने का ठीक-ठीक नुस्खा क्या है. अगर कोई सचिन तेंदुलकर ही है तो फिर कोई सवाल नहीं उठता, लेकिन उससे जरा कम होने पर मामला उलझ जाता है. जैसे किसी खिलाड़ी को लगातार कई मौके दिए जाते हैं, कोई खिलाड़ी एकाध बार नाकाम होने पर बाहर हो जाता है.

आखिर क्यों टीम से गायब हैं करुण नायर 

मसलन यह सवाल आजकल बहुत चर्चा में है कि करुण नायर की गलती क्या है जो वे टीम से बाहर हैं. वह जो एक अतिरिक्त “एक्स “फैक्टर होना चाहिए, वह शायद उनमें नदारद है, वह तत्व जो किसी खिलाड़ी को कप्तान, चयनकर्ताओं और जनता का प्यारा बनाता है. ऐसे तमाम खिलाड़ी हैं, जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे अपना पूरा जोर लगा देने के बावजूद हमेशा हाशिए पर ही रहे और फिर हाशिए से बाहर खिसका दिए गए. जैसे प्रवीण आमरे को नई पीढ़ी सिर्फ बल्लेबाजी कोच के तौर पर जानती होगी, जिनके पास बड़े-बड़े बल्लेबाज सलाह के लिए जाते हैं. आमरे ने डरबन की मुश्किल पिच पर अपने पहले टेस्ट मैच में शतक लगाया था. जिस बल्लेबाज का टेस्ट औसत 42 से ज्यादा हो क्या वह सिर्फ 11 टेस्ट मैच खेलने का हकदार हो सकता है?

चोपड़ा को 332 के औसत के बाद भी नहीं मिली जगह

आकाश चोपड़ा का करियर एक और उदाहरण है. पाकिस्तान के दौरे पर उन्हें युवराज सिंह के लिए टीम में नहीं रखा गया और राहुल द्रविड़ से ओपनिंग करवाई गई. 2007 -08 के घरेलू सीजन में चोपड़ा ने लगातार शतक और दोहरे शतक लगाए और 332 का औसत हासिल किया. यह उम्मीद थी कि ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर उन्हें जगह मिल जाएगी. खासकर इसलिए कि पिछले ऑस्ट्रेलिया दौरे पर उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था. दौरे के पहले गौतम गंभीर के चोटिल हो जाने से यह उम्मीद और पुख्‍ता हो गई, लेकिन शायद चयनकर्ताओं ने यह तय कर लिया था कि चोपड़ा कितने ही रन बनाएंं, वह टीम में नहीं होंगे. ऐसा ही हुआ और उनका टेस्ट करियर खत्म हो गया.

सुनील जोशी को भी नहीं मिले ज्यादा मौके

कई गेंदबाज भी ऐसे हुए हैं जिनकी यही कथा है. सुनील जोशी क्यों नहीं ज्यादा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल पाए? अमित मिश्रा को क्यों नहीं कायदे के मौके मिले? एक तो यह लगता है कि कुछ लोग क्रिकेट के ग्लैमर बॉयज होते हैं. कुछ लोग नहीं होते. जो नहीं होते उनके लिए मुश्किलें बड़ी होती हैं. उनके लिए नियम भी ज्यादा सख्‍त होते हैं. इंशाअल्लाह, करुण नायर का अंतरराष्ट्रीय करियर खूब फले फूले यही हम चाहते हैं, लेकिन चयनकर्ताओं और कप्तान को आपकी शक्ल पसंद न आए, तो कोई क्या कर सकता है.