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विराट के लिए रैंकिंग की नहीं, जिंदगी की छलांग है

मैदान पर विराट किसी ट्रैफिक पुलिस की तरह व्यस्त नजर आते हैं.

Shailesh Chaturvedi

आज से कुछ साल पहले दिल्ली क्रिकेट का भला चाहने वाले फिक्रमंद थे. उन्हें फिक्र थी एक उभरते हुए क्रिकेटर की, जिसमें वो अपार क्षमताएं देख रहे थे. उस क्रिकेटर का नाम था विराट कोहली. उन लोगों को लगता था कि विराट हाथ से निकल रहे हैं. उनका रवैया उनके टैलेंट पर भारी पड़ जाएगा. वो कहीं विनोद कांबली, सदानंद विश्वनाथ या मनिंदर सिंह की कैटेगरी में न शामिल हो जाएं, जिनमें कूट-कूट कर टैलेंट था. फिर भी वे कामयाबी के शिखर पर नहीं पहुंच पाए.

विराट के रवैये की वजह से फिक्र करने वाले सभी लोग आज खुश हैं. विराट आईसीसी का ताजा रैंकिंग में नंबर चार पर आ गए हैं, जो उनके लिए करियर बेस्ट है. लेकिन उस दौर के फिक्रमंद लोगों को आज कतई फिक्र नहीं होगी कि वो एक दिन नंबर वन बनेंगे.


विराट ने पहली बार देश के क्रिकेट प्रेमियों का ध्यान उस वक्त खींचा था, जब वो 18 साल के थे. तारीख थी 20 दिसंबर 2006. पिता की मौत के बावजूद वो परेशानियों में घिरी दिल्ली टीम को बचाने चले आए थे. 90 रन की पारी उन्होंने खेली थी और संदेह से घिरे फैसले की वजह से आउट हुए थे. कर्नाटक के खिलाफ वह मैच था.

विजय लोकपल्ली की किताब में जिक्र

हाल ही में विराट कोहली पर आई किताब ड्रिवेन – द विराट कोहली स्टोरी में लेखक विजय लोकपल्ली ने उस दिन का जिक्र किया है. किताब के मुताबिक, ‘सुबह विराट ड्रेसिंग रूम में सिर पकड़े बैठे थे. ड्रेसिंग रूम खाली था. मिथुन मनहास आए. उन्होंने पूछा – बेटा क्या हुआ. विराट बुदबुदाए – मेरे फादर की डेथ हो गई है.’ मनहास यकीन नहीं कर पाए थे कि पिता की मौत के बाद कोई इस तरह खेलने आ सकता है. उन्होंने घर जाने के लिए कहा, लेकिन विराट का जवाब था – मैं खेलना चाहता हूं.

बड़ी लीग में जाने के लिए विराट का वो पहला कदम था. उसके बाद कुछ भटकाव के दिन आए. अब वो ऐसे खिलाड़ी नजर आ रहे हैं, जिसके लिए भटकाव शब्द डिक्शनरी में ही नहीं है. इस साल वो सारे फॉरमेट मिलाकर सबसे ज्यादा रन बना चुके हैं. कप्तान के तौर पर 19 टेस्ट मे सात शतक जमा चुके हैं. ऐसा लगता है, जैसे कप्तानी ने उन्हें निखार दिया है.

विशाखापत्तनम में रोकी आक्रामकता 

विशाखापत्तनम टेस्ट की ही बात करें. चेतेश्वर पुजारा के साथ पहली पारी में उनकी लंबी साझेदारी हुई. उस दौरान पुजारा आक्रामक दिख रहे थे. विराट ने तब नॉन स्ट्राइकर का रोल निभाने का फैसला किया. उन्होंने अपनी आक्रामकता रोकी. फिर गेंदबाजी के समय उन्होंने पाया कि अश्विन और रवींद्र जडेजा को गलत छोर से गेंदबाजी पर लगाया है. उन्होंने छोर बदले, इसके बाद इंग्लैंड की दूसरी पारी बिखर गई.

मैदान पर वो किसी ट्रैफिक पुलिस की तरह व्यस्त नजर आते हैं. हर काम मे विराट शामिल दिखते हैं. यहां तक कि दर्शकों को भी शांत नहीं रहने देते. जिन लोगों को अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ या महेंद्र सिंह धोनी जैसे कप्तानों की आदत रही है, जो हमेशा शांत रहते थे, उनके लिए विराट का रुख बदली दुनिया को दिखाता है.

अब बहस इसको लेकर है कि क्या उन्हें महेंद्र सिंह धोनी की जगह तीनों फॉरमेट की कप्तानी दे देनी चाहिए? शायद ये जल्दबाजी होगी. धोनी ने ऐसा कुछ नहीं किया है कि उन्हें बोझ समझा जाए. उन्हें पिछले कुछ समय में लगातार अजीबोगरीब बदलाव के साथ टीम मिली है. पूरी ताकत वाली टीम कम ही मिली है. वो अब ‘फिनिशर’ नहीं रहे, ये भी सच है. लेकिन धोनी में क्रिकेट बाकी है. ...और विराट जल्दबाजी में भी नहीं हैं. उनके पास बहुत समय है. अभी वो 28 साल के ही हैं. इसलिए वो जिंदगी की ये छलांग भी लगाएंगे. अभी बहस में पड़ने के बजाय इस क्रिकेटर के विराट होने का मजा लीजिए.