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संडे स्पेशल: क्या है क्रिकेट का 'टर्निंग पॉइंट'

खत्म होती दिख रही स्पिन ने कैसे की वापसी

Rajendra Dhodapkar

इतिहास किसी एक क्षण या लम्हे में नहीं बनता बिगड़ता. लेकिन कोई  एक लम्हा या अवसर होता है, जो किसी बड़े ऐतिहासिक बदलाव का प्रतीक बन जाता है. महात्मा गांधी ने जब दांडी में एक मुट्ठी नमक उठाया या ‘करेंगे या मरेंगे’ का नारा दिया, वे क्षण भारतीय आजादी की लड़ाई के प्रतीक बन गए.

वैसे ही खेलों में भी कोई एक गेंद, कोई एक शॉट, कोई एक गोल किसी ऐतिहासिक परिवर्तन के प्रतीक की तरह यादगार बन जाता है. कोई एक कोई जीत, कोई एक हार अपने तात्कालिक महत्व से ऊपर उठ कर एक बड़ा, व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेता है. याद करेंगे तो आपको ऐसे कई क्षण, ऐसी कई छवियां याद आ जाएंगी


एक ऐसी ही छवि तमाम क्रिकेट प्रेमियों को याद होगी. वह थी ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच ओल्ड ट्रैफर्ड में खेले गए टेस्ट मैच की उस गेंद की, जिसे  ‘बॉल ऑफ़ द सेंचुरी’ कहा जाता है. जिस गेंद पर शेन वॉर्न ने माइक गैटिंग का विकेट लिया था. अगर आप अपने कंप्यूटर पर शेन वॉर्न टाइप करेंगे, तो इस गेंद का ज़िक्र ज़रूर होगा. वह सचमुच अनोखी गेंद थी. वह गेंद लेग स्टंप के काफी बाहर पिच हुई. गैटिंग ने उस पर कोई शॉट  नहीं खेला. वह गेंद गैटिंग, उनके बैट, उनके पैड सबको पार करते हुए ऑफ स्टंप को उड़ा गई. वह गेंद क्रिकेट में एक नए दौर की प्रतीक बन गई.

हम कस्बाई खेल प्रेमियों के जीवन में में एक क्रांतिकारी बदलाव तब आया, जब सन 1982 के एशियाई खेलों के वक्त हमारे यहां टेलिविज़न आया. इसके पहले हमारे लिए खेल श्रव्य माध्यम थे,  हम रेडियो पर कमेंट्री सुन कर दृश्य की कल्पना ही कर सकते थे. यही दौर था जब एकदिवसीय  क्रिकेट लोकप्रिय हो रहा था.

लक्ष्मण शिवरामकृष्णन

सन 1983 के विश्व कप में भारत की जीत ने इस नए स्वरूप की लोकप्रियता को कई गुना बढ़ा दिया. इस बात ने क्रिकेट में एक बुनियादी फर्क की शुरुआत की, क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के शक्तिकेंद्र के भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानांतरित होने की प्रक्रिया शुरू हुई. एकदिवसीय खेल का प्रभाव टेस्ट क्रिकेट पर भी पड़ा. वह ज्यादा आक्रामक हो गया.

यह बदलाव का दौर था. इसका सबसे बड़ा प्रभाव गेंदबाजी पर पड़ा. गेंदबाज और कप्तान समझ नहीं पा रहे थे कि अतिरिक्त रूप से आक्रामक बल्लेबाजों का सामना कैसे किया जाए. ऐसी स्थिति से कैसे निपटा जाए, जब एकाध चौका या छक्का मैच की दिशा बदल सकता हो. यानी विकेट लेने से ज्यादा महत्वपूर्ण रन रोकना हो.

दूसरी बात यह थी कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में बल्लेबाज गेंदबाज की प्रतिष्ठा और हैसियत की परवाह नहीं करता था. यानी मोहल्ला स्तर का बल्लेबाज भी बड़े से बड़े गेंदबाज़ पर बल्ला घुमाने से नहीं हिचकता था. अब यह सोचा जाने लगा कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में ‘बचाव ही आक्रमण का सर्वश्रेष्ठ तरीका़ है’. अगर आप बल्लेबाज को रन लेने से रोकेंगे तो वह खतरा उठाने पर मजबूर हो जाएगा और दबाव में आकर गलती कर बैठेगा.

इस दौर का सबसे बुरा असर स्पिन गेंदबाजों पर पड़ा. वे और उनके कप्तान समझ नहीं पा रहे थे कि नई परिस्थिति में क्या बदलाव किए जाएं उस वक्त लोग कैसा सोचते थे? मैं तब दिल्ली के एक नौजवान खिलाड़ी से भारत की महान स्पिन चौकड़ी के बारे में बात कर रहा था, तो उसने कहा- तब कीर्ति (आज़ाद) जैसे बल्लेबाज़ नहीं थे. वरना वे वैसी गेंदबाजा नहीं कर पाते. तब मैं कुछ नहीं बोला.

कुछ दिनों बाद मैंने रामचंद्र गुहा की किताब “स्पिन एंड अदर टर्न्स’ पढ़ी जिसमें एक दिलचस्प क़िस्सा था । दिल्ली और तमिलनाडु के बीच रणजी ट्रॉफी मैच चल रहा था. कीर्ति आज़ाद बल्लेबाजी कर रहे थे और वेंकटराघवन गेंदबाजी कर रहे थे. वेंकट की एक शॉर्ट गेंद पर कीर्ति ने पुल कर के जो़रदार चौका जड़ दिया. वेंकट ने फिर वैसी ही शॉर्ट गेंद फेंकी. कीर्ति ने फिर पुल करने के लिए बल्ला घुमाया. लेकिन इस बार गेंद सीधी गोली की तरह स्टंप पर जा टकराई.

बहरहाल, आप उस दौर के तमाम स्पिनरों को याद करें जिनमें बडी़ संभावनाएं थीं. लेकिन जो बदलाव के दौर के शिकार हुए. शिवरामकृष्णन, रवि शास्त्री, मनिंदर सिंह जैसे ज्यादातर स्पिनरों ने फ्लाइट खत्म कर के सपाट गेंदबाजी शुरू कर दी. कई अन्य बदलाव किए, जिससे उनकी गेंदबाजी की धार जाती रही.

मनिंदर सिंह

मैंने मनिंदर सिंह के एक मित्र से पूछा कि मनिंदर को क्या हो गया? उसने कहा कि क्लब मैचों में दिल्ली के छोटे छोटे मैदानों पर उसे छोटे-मोटे बल्लेबाज भी पीट देते हैं. इसलिए उसका आत्मविश्वास खत्म हो गया है. इस मानसिकता का असर टेस्ट क्रिकेट पर भी पड़ा. यह सोचा जाने लगा कि अब क्रिकेट में सिर्फ मध्यमगति गेंदबाजों की चलेगी, जो लेंग्थ लाइन पर लगातार गेंदबाजी़ कर सकें.

शेन वॉर्न की वह गेंद शास्त्रीय स्पिन गेंदबाजी की वापसी की घोषणा थी. इसके अलावा इमरान खान और अर्जुन रणतुंगा जैसे कप्तानों ने भी दिखा दिया कि आक्रामक कप्तानी कैसे कामयाब हो सकती है. नई परिस्थितियों में गेंदबाजों का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.

धीरे धीरे यह साबित हो गया कि स्पिन गेंदबाजी का परंपरागत हुनर ही खेल के नए रूप में भी स्थायी सफलता की कुंजी है. सिर्फ पचास ओवर के मैचों में ही नहीं, बाद में आए बीस ओवर के मैचों में भी स्पिनर कामयाब हो रहे हैं. आईपीएल में लगातार सफलता के पैमाने पर अमित मिश्रा का मुकाबला कौन कर सकता है. चालीस की उम्र के बाद प्रवीण ताम्बे की आईपीएल में कामयाबी क्या बताती है?

अमित मिश्रा और हरभजन सिंह

यह फर्क आया कैसे? इसकी एक वजह तो यह थी कि एक दिवसीय खेलों में बड़े स्कोर बनने लगे. जहां एक वक्त में ढाई सौ से ऊपर स्कोर बड़ा माना जाता था, वहां तीन सौ भी सफलता की गारंटी नहीं रहा. भले ही सामने कितने ही रक्षात्मक गेंदबाज़ हों. ऐसे में अच्छे आक्रामक गेंदबाज ज्यादा फायदेमंद होंगे, क्योंकि वे विकेट निकालकर सामने वाली टीम को रक्षात्मक स्थिति में ला सकते हैं.

कई कप्तान भी ऐसे हुए जो इयन चैपल की तरह यह मानते हैं कि किसी बल्लेबाज को रन बनाने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका उसे आउट करना है. क्योंकि पैवेलियन में बैठकर वह रन नहीं बना सकता. गेंदबाज ने भी नए तरीके सीखे, जैसे गति में परिवर्तन का इतना इस्तेमाल इस नए युग की देन है।

वक्त के साथ यह साबित हो गया कि खेल का स्वरूप कोई भी हो, कामयाबी की शर्त वही बुनियाद है जो टेस्ट क्रिकेट के लिए जरूरी है. बीच के दौर में जो जो औसत दर्जे के खिलाड़ी छा गए थे वे छंट गए और यह जो डर लग रहा था कि क्रिकेट में औसतपन का दौर आ जाएगा वह खत्म हो गया. इस वजह से खेल देखने लायक बना रहा, इस बात का हमें शुक्र मनाना चाहिए.