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संडे स्पेशल: आखिर क्यों लगता है किसी खिलाड़ी को अंतरराष्ट्रीय के बाद घरेलू क्रिकेट खेलना सजा जैसा!

अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की लोकप्रियता फिल्मी सितारों को टक्कर देती है. जो उस चमक दमक वाली दुनिया में रह कर लौट आया हो उसे दर्शकों से खाली मैदानों पर रणजी ट्रॉफी खेलना शायद मुश्किल लगता होगा

Rajendra Dhodapkar

सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली जैसे अद्वितीय खिलाड़ी विरले होते हैं जो एक बार देश की टीम में आ गए तो फिर रिटायर होने पर ही टीम से बाहर होते हैं. ज्यादातर खिलाड़ी ऐसे होते हैं जिन पर कभी फॉर्म तो कभी प्रदर्शन तो कभी टीम की जरूरत के हिसाब के टीम के बाहर होने का खतरा मंडराता रहता है. कई बार इतने सारे प्रतिभावान खिलाड़ी एक वक्त पर मौजूद होते हैं कि अच्छे खिलाड़ियों को भी नियमित मौका नहीं मिल पाता.

मनोज तिवारी या करुण नायर जैसे लोग भी होते हैं जो एक मैच में शतक या तिहरा शतक लगाने के बाद अगले मैचों में बाहर बिठा दिए जाते हैं. भारत में इस वक्त इतने सारे तेज गेंदबाज मुकाबले में हैं कि उमेश यादव जैसे गेंदबाज भी भारतीय टीम में नहीं हैं. भारतीय टीम में इस वक्त चार स्पिनरों में मुकाबला हैं जिनमें से हर कोई अपने बूते मैच जिताने की क्षमता रखता है. जाहिर है एक वक्त में इनमें से एक या दो ही टीम में शामिल हो सकते हैं और बाकी को प्रतिभा और प्रदर्शन के बावजूद टीम से बाहर रहना पड़ता है.


टीम में जैसी प्रतिस्पर्धा है उसमें ज्यादा मौके मिलना मुश्किल

पिछले दिनों दो खिलाड़ियों के इंटरव्यू पढ़ने में आए जो इस वक्त भारतीय टीम में नहीं हैं. मुंबई के युवा प्रतिभाशाली बल्लेबाज श्रेयस अय्यर ने बताया कि भारतीय टीम का सदस्य बनने के बाद जब वे भारतीय टीम में नहीं रहे तो उनकी मनःस्थिति कैसी थी. अय्यर को भारतीय वनडे टीम में मौका मिला था, लेकिन वह अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए. यह कहा जा सकता है कि उन्हें और मौका दिया जाना चाहिए था, लेकिन टीम इंडिया में जैसी प्रतिस्पर्धा है उसमें किसी को ज्यादा मौके मिलना मुश्किल है. ऐसा नहीं है कि श्रेयस अय्यर के लिए भविष्य में कोई संभावना नहीं है. वह युवा हैं और प्रतिभाशाली भी हैं, लेकिन फिलहाल भारतीय वनडे टीम में उनकी जगह बनना मुश्किल है. घरेलू क्रिकेट में भी उनका प्रदर्शन फिलहाल बहुत अच्छा नहीं है और इसमें उनकी मानसिकता की भी भूमिका हो सकती है.

उमेश ने भी भारतीय टीम में न होने का दुख जताया

इसी तरह ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद उमेश यादव का भी इंटरव्यू छपा था, जिसमें उन्होंने भारतीय टीम में न होने का दुख जताया है. दोनों खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में होने और फिर न होने की स्थिति में काफी बेचैन और दुखी नजर आते हैं. दोनों की बात पढ़कर एक बात समझ में आती है कि भारतीय टीम में होने और न होने के बीच जमीन-आसमान का फर्क है.

नीरस और रंगहीन क्यों लगता है घरेलू क्रिकेट

सवाल यह है कि ऐसा क्यों होना चाहिए? कोई खिलाड़ी जो भारतीय टीम का हिस्सा था और फिलहाल नहीं है उसे घरेलू क्रिकेट में अपना जीवन इतना नीरस और रंगहीन क्यों लगना चाहिए? कुछ चीजें तो साफ हैं. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के ग्लैमर और उसमें मिलने वाले पैसे के मुकाबले घरेलू क्रिकेट कहीं नहीं ठहरता. घरेलू क्रिकेट खेलने वाले खिलाड़ी को सिर्फ खेल के पक्के रसिक पहचानते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की लोकप्रियता फिल्मी सितारों को टक्कर देती है. जो उस चमक दमक वाली दुनिया में रह कर लौट आया हो उसे दर्शकों से खाली मैदानों पर रणजी ट्रॉफी खेलना शायद मुश्किल लगता होगा.

बाजार ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में फर्क बढ़ाया

यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है. यह खेल के लिए भी अच्छा नहीं है कि घरेलू क्रिकेट और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में इतना बड़ा फर्क हो. पहले ऐसा नहीं था, यह स्थिति पिछले बीस-तीस साल में क्रिकेट का व्यवसायीकरण होने के बाद बनी है. जबसे बाजार और टेलीविजन ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को रुपए की टकसाल बना दिया है तब से यह फर्क बढ़ता गया है. पहले घरेलू क्रिकेट और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में इतना फर्क नहीं था. एक वजह तो यह थी कि तब आज की तरह पूरे साल सारे देश अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट नहीं खेलते थे. तब घरेलू क्रिकेट ज्यादा होता था इसलिए सारे सितारा खिलाड़ी भी ज्यादा घरेलू क्रिकेट ही खेलते थे.

कोहली के मुकाबले सचिन ने ज्यादा खेले हैं प्रथम श्रेणी मैच

करीब तीस-चालीस साल पहले के बड़े खिलाड़ियों के रिकॉर्ड उठाकर देखें तो उनमें टेस्ट मैचों से कई गुना ज्यादा प्रथम श्रेणी मैच दिखेंगे. विवियन रिचर्ड्स ने जितने टेस्ट मैच खेले हैं उनसे चार गुना ज्यादा प्रथम श्रेणी मैच खेले हैं. सचिन तेंदुलकर ने जितने टेस्ट खेले हैं उनसे आधे प्रथम श्रेणी मैच खेले हैं और विराट कोहली ने जितने टेस्ट खेले हैं, उनसे एक तिहाई भी प्रथम श्रेणी मैच नहीं खेले. अब तो एक बार देश की टीम में आ जाने पर खिलाड़ी शायद ही कभी घरेलू मैच खेलता है क्योंकि साल भर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट चलता ही रहता है. पहले ऐसा नहीं था और घरेलू क्रिकेट खेलने वाले खिलाड़ी और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को मिलने वाले पैसे में ऐसा जमीन-आसमान का फर्क नहीं था.

घरेलू प्रतिस्पर्धा को दिलचस्प बनाने की कोशिश होनी चाहिए

अब जरूरी है कि दोनों के बीच अंतर कम किया जाए. यह क्रिकेट के लिए अच्छा होगा कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट थोड़ा कम किया जाए. यह नियम बना दिया जाए कि हर देश की टीम साल में कुछ महीने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट नहीं खेलेगी और उस बीच उसके सितारा खिलाड़ी भी घरेलू मैच खेलेंगे. घरेलू प्रतिस्पर्धा को दिलचस्प बनाने के लिए घरेलू टीमों को एक निश्चित संख्या में विदेशी सितारा खिलाड़ियों को भी खिलाना चाहिए जैसे काउंटी क्रिकेट में होता है. ली लीगा, बुंडसलीगा या इंग्लिश प्रीमियर लीग जैसी फुटबॉल की घरेलू प्रतिस्पर्धाएं जब इतनी लोकप्रिय और सफल हो सकती हैं तो भारत की रणजी ट्रॉफी या विज्जी ट्रॉफी क्यों नहीं हो सकतीं. अपने राज्य की रणजी ट्रॉफी टीम से दर्शकों का जैसा जुड़ाव हो सकता है वैसा आईपीएल की किसी टीम से नहीं हो सकता.

अगर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कम होगा तो यह उसके भविष्य के लिए भी अच्छा होगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की भरमार से उसकी लोकप्रियता के कम होने का खतरा है. असली खेल संस्कृति तो घरेलू मुकाबलों से ही बनती है. इसलिए घरेलू मुकाबलों को ज्यादा महत्व देने की जरूरत है. तब शायद किसी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को घरेलू क्रिकेट खेलना सजा की तरह नहीं लगेगा.