view all

संडे स्‍पेशल: विराट को कप्‍तानी सीखने की जरूरत, मैच गर्म से नहीं ठंडे दिमाग से जीता जाता है

इंग्‍लैंड दौरे के बाद कोहली को भी यह समझ में आ रहा होगा कि बतौर भारतीय कप्तान कैसी आलोचना सहनी पड़ सकती है

Rajendra Dhodapkar

पिछली सदी के पचास के दशक में वेस्टइंडीज में बहुत बड़े खिलाड़ी थे, दुनिया में जिनका डंका बजता था. स्टॉलमेयर, गोमेज, वीक्स, वॉरेल, वॉलकॉट उनके बाद सोबर्स, हंट, कन्हाई, रामाधीन, वैलेंटाइन, हॉल, ग्रिफिथ. तब वेस्टइंडीज की टीम प्रतिभावान खिलाड़ियों से भरी होती थी, लेकिन तब भी प्रदर्शन के लिहाज से वे हमेशा इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया से पीछे ही रहते थे. माना यह जाता था कि विभिन्न द्वीप समूहों और देशों के ये खिलाडी एक टीम की तरह नहीं खेल पाते. तब वेस्टइंडीज के देश गोरों के वर्चस्व से मुक्त नहीं हुए थे और काले, सांवले और गोरे खिलाड़ियों के बीच एक अदृश्य भेद भी काम करता था, हालांकि वहां साउथ अफ्रीका जैसी साफ साफ रंगभेद की नीति नहीं थी, लेकिन तब भी यह नियम था कि वेस्टइंडीज का कप्तान कोई गोरा ही हो सकता है. सन् 1960 के आसपास वहां एक बडा आंदोलन चला कि एक काले खिलाडी फ्रैंक वॉरेल को कप्तान बनाया जाए. इस आंदोलन के दबाव में 1961 के दौरे पर वॉरेल कप्तान बने.

विदेशी टीम की ऐसी विदाई आज तक नहीं हुई 


वॉरेल सचमुच बड़े नेता साबित हुए. उनकी कप्तानी में अचानक वेस्टइंडीज की टीम का कायाकल्प हो गया और वह ऑस्ट्रेलिया वेस्टइंडीज सीरीज क्रिकेट इतिहास की यादगार सीरीज बन गई. जब सीरीज के खत्म होने पर वेस्टइंडीज की टीम वापस जा रही थी तो हजारों ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों ने एयरपोर्ट के रास्ते पर खड़े होकर उन्हें विदाई दी. किसी विदेशी टीम को ऐसी भव्य और भावुक विदाई का कोई दूसरा उदाहरण नहीं नजर आता. उस सीरीज से वेस्टइंडीज का वह स्वर्णकाल शुरु हुआ जो क्रिकेट इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा. वेस्टइंडीज टीम में प्रतिभा की कमी तो नहीं थी, लेकिन उनकी समस्या यह थी कि वे एक टीम की तरह नहीं खेल पाते थे. वॉरेल ने उन्हें एक टीम की तरह खेलना सिखाया. वॉरेल की यह सीख कितनी प्रभावशाली थी यह इस बात से जाहिर होता है कि उनके बाद कप्तान बने सोबर्स के इंटरव्यू अगर आप देखें तो वे अक्सर अपनी निजी उपलब्धियों की जब बात करते हैं तो बार बार यह जि‍क्र करते हैं कि क्रिकेट एक सामूहिक खेल है और उनके निजी रिकॉर्ड दूसरे खिलाड़ियों के योगदान के बिना संभव नहीं थे.

कप्‍तान की बड़ी भूमिका

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसकी समूची रणनीति पहले से ड्रेसिंग रूम में नहीं बनाई जा सकती, न ही कोच फुटबॉल की तरह मैदान के बाहर खड़े होकर निर्देश दे सकता है. दूसरे, क्रिकेट में हर कदम पर फैसला करने की जरूरत पड़ती है, इसलिए कप्तान की भूमिका बहुत बड़ी होती है. क्रिकेट खेलने वाले देशों में क्रिकेट टीम का कप्तान बहुत बड़ा आदमी होता है. उसके हर कदम पर लाखों करोड़ों लोगों और मीडिया की नजर होती हैं, इसलिए उसका काम बहुत जि‍म्मेदारी का होता है. कप्तान चुनने की आम प्रक्रिया यह होती है कि वरिष्ठ खिलाड़ियों में से किसी को या सबसे ज्यादा सफल खिलाड़ी को कप्तान बना दिया जाता है. अब व्यावहारिक रूप से यह जरूरी नहीं कि सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी में नेतृत्व के गुण हों ही. अच्छे नेतृत्व के लिए खिलाड़ी में कई बातें होना जरूरी है, उसमें मैन मैनेजमेंट भी शामिल है ताकि खिलाड़ी एक टीम की तरह एक होकर खेलें और कप्तान के लिए अपने पूरे दमखम से लड़ जाएं. उसे एक कुशल रणनीतिकार भी होना चाहिए ताकि वह फिल्डिंग जमाने और गेंदबाजी में बदलाव करने में सूझबूझ दिखा सके. उसे मैदान के बाहर भी टीम की छवि उजली बनाए रखने का कौशल आना चाहिए.

हर कोई वॉरेल नहीं हो सकता

जाहिर है हर खिलाड़ी में ये गुण नहीं हो सकते. हर कोई फ्रैंक वॉरेल या माइक ब्रेअरली नहीं हो सकता, इसीलिए जैसा जीवन के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी सही है हमें क्रिकेट में भी तरह तरह के कप्तान मिलते हैं. ज्‍यादातर कप्तानों में कुछ गुण नहीं होते या कम होते हैं, कुछ गुण हो सकते हैं. खेल में कप्तान वैसे भी कम उम्र में ही बनते हैं. बाईस या पचीस साल के नौजवान के पास इतना अनुभव नहीं होता कि वह अपनी टीम और देश की उम्मीदों का बोझ आसानी से उठा सके. कप्तानी के बारे में बहुत बढ़िया विश्लेषण संजय मांजरेकर ने अपनी किताब “इम्परफेक्ट “ में किया है, जहां वे मुंबई के कप्तान की तरह अपनी ही कमजोरियों की चर्चा करते हैं. उतना ही अच्छा विश्लेषण मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी का है जिन पर अचानक कप्तानी थोप दी गई, क्योंकि बोर्ड किसी मजबूत कप्तान को नहीं चाहता था. यह सब लिखने का संदर्भ इंग्लैंड में 4-1 से हार के बाद विराट कोहली की कप्तानी पर उठे सवाल हैं. कोहली को भी यह समझ में आ रहा होगा कि बतौर भारतीय कप्तान कैसी आलोचना सहनी पड़ सकती है. मुझे सुनील गावस्कर का यह विश्लेषण सही लगा कि कोहली में अनुभव की कमी है, जिसकी वजह से उनके कई फैसले गलत हुए. कोहली ने बहुत सी बातें सीखी हैं , अंडर 19 के दौर के बाद से कोहली में बहुत बदलाव आए हैं इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि अनुभव से कोहली सीख सकते हैं.

गाली जैसा बुदबुदाना जरूरी नहीं

सबसे पहले कोहली को यह अहसास करना होगा कि सिर्फ आक्रामक मानसिकता जीतने के लिए काफी नहीं है. उसके साथ ठंडे दिमाग की भी जरूरत होती है , बल्कि मैदान पर फैसले करने के लिए ठंडा दिमाग ही जरूरी होता है. यह भी नहीं दिखता कि कोहली मैदान पर बहुत फैसले करते हैं. ऐसा लगता है कि वे खेल शुरू होने के पहले खेल की रणनीति सोच कर आए हैं और मैदान पर उसे लागू भर कर रहे हैं. अप्रत्याशितता या आश्चर्य का इस्तेमाल वे रणनीति की तरह कभी नहीं करते, तब भी जब मैच नियंत्रण के बाहर जा रहा हो. शायद कोहली मैदान पर “ एंग्री यंग मैन “ वाली छवि से बाहर निकलें, थोड़ा ज्यादा मुस्कुराएं तो बहुत सी चीजें ठीक हो सकती है. अपना शतक पूरा होने पर या सामने वाली टीम का बल्लेबाज आउट होने पर खुश भी तो हुआ जा सकता है, गाली जैसा कुछ बुदबुदाना जरूरी थोड़े ही है. दुनिया के लगभग सारे महान कप्तान बहुत “ कूल “ थे , कोहली उनसे यह सीख सकते हैं. यह उनके लिए और उन तमाम युवा और किशोर भारतीय खिलाड़ियों के लिए भी बेहतर होगा जो कोहली को अपना आदर्श मानते हैं.