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संडे स्पेशल: तो क्या दुनिया की सबसे रोमांचक क्रिकेट परंपरा खतरे में है?

ज्यादातर टीमों का फिलहाल जो हाल है उसमें कोई ग्रेट नजर नहीं आता और यही दर्शकों के कम होकर इस परंपरा के खत्म होने के कारण बन सकती है

Rajendra Dhodapkar

आज कल जो भी आधुनिक खेल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेले जा रहे हैं , वे करीब सवा सौ डेढ़ सौ साल पहले अपने मौजूदा स्वरूप में आए. बीसवीं सदी में तमाम खेलों के स्वरूप में और लोकप्रियता में बडे फर्क आए हैं. बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मुक्केबाजी पश्चिमी दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल था. हैवीवेट मुक्केबाजी विश्व विजेता पश्चिम में सबसे बड़ा खेल नायक होता था. तब एक ही विश्वविजेता होता था, तब जाने कितने मुक्केबाजी संगठन हैं और सबके अपने अपने विजेता है. लेकिन जिनकी मुक्केबाजी में विशेष दिलचस्पी है उन्हें छोड़कर शायद ही किसी को किसी बॉक्सिंग हीरो का नाम पता होगा. बीसवीं सदी जाते जाते मुक्केबाजी में आम दिलचस्पी तेज से कम हुई है.

क्रिकेट में नहीं रही कोई ग्रेट टीम


क्या क्रिकेट के साथ भी ऐसा हो रहा है ? हज़ारों करोड़ के करारों और आईपीएल के मौसम में ऐसा सवाल पूछना अजीब लग सकता है लेकिन शायद यह सवाल उतना बेतुका भी नहीं है. यह नहीं कहा जा सकता कि क्रिकेट में ऐसा हो ही रहा है लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर सोचा जाना चाहिए. पहली बात जो देखने में आ रही है कि पिछले लगभग दस साल से ऐसी कोई टीम नहीं खड़ी हुई है जिसे क्रिकेट की भाषा में “ ग्रेट “कहा जा सके.

रिकी पॉंटिंग की ऑस्ट्रेलिया टीम आखिरी ग्रेट टीम थी. आस्ट्रेलिया की टीम ने लगभग बीस साल क्रिकेट की दुनिया पर एकछत्र राज किया. उसके बाद ऑस्ट्रेलिया की टीम वैसी नहीं रही. उसके पहले वेस्टइंडीज का दौर था. सर फ्रैंक वॉरेल के नेतृत्व में वेस्टइंडीज की टीम महान टीम बनी और विवियन रिचर्डस के दौर तक उसकी बादशाहत बनी रही. इस तरह की टीमें एक कसौटी तय करती हैं, जिसके खिलाफ हर देश की टीम को जूझना पड़ता है. ये ऐसी टीमें होती हैं जो किसी भी परिस्थिति में अच्छा खेलती हैं और जिनके खिलाड़ी हर देश में दंतकथाओं के नायक होते हैं. ऐसी महान टीम की मौजूदगी दुनिया में खेल की लोकप्रियता बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी है.

वेस्टइंडीज का सबसे बुरा दौर

वेस्टइंडीज की टीम लगभग पचीस तीस साल से लगातार नीचे की ओर जा रही है. वेस्टइंडीज की टीम को विश्व कप के लिए क्वालिफायर में जूझते हुए देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई बूढ़ा शेर किसी गौशाला में गायों के बीच घास खाने के लिए जद्दोजहद कर रहा हो. जिस टीम ने लगभग पचास साल क्रिकेट में राज किया , जिसने खेल की परिभाषाएँ बदल डालीं, उसकी यह हालत.

मुश्किल यह है कि वेस्टइंडीज़ क्रिकेट के उबरने की संभावनाएँ  नहीं दिख रही हैं. क्रिकेट प्रतिभाओं का जो अकाल वहाँ पड़ा है, उसके दूर होने के आसार नहीं दिखते. इसकी वजह यह बताई जाती है कि वेस्टइंडीज में क्रिकेट नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष से जुड़ा था. वह अश्वेत लोगों के स्वाभिमान और पहचान का प्रतीक था. अब वेस्टइंडीज के द्वीप राष्ट्रों को आजाद हुए पचास पचपन साल हो गए, दुनिया में नस्ली भेदभाव के प्रतीक दक्षिण अफ्रीका और ज़िंबाब्वे भी करीब तीस सील पहले आजाद हो गए. ऐसे में क्रिकेट से जुड़ा वह भावनात्मक पक्ष खत्म हो गया. इस बीच स्वाभाविक रूप से उन द्वीप समूहों से इंग्लैंड का असर भी कम हो गया है और वहाँ का युवा अपने पड़ोसी संयुक्त राज्य अमेरिका से ज्यादा जुड़ गया है और उसकी दिलचस्पियां भी अमेरिकी होने लगी हैं. इसलिए दुनिया की सबसे रोमांचक क्रिकेट परंपरा खतरे में है.

इसी तरह अंग्रेज़ क्रिकेट भी उस ऊँचाई से बहुत नीचे आ गया है , जिस ऊंचाई पर वह साठ सत्तर के दशक में था. फिलहाल उसकी हालत उतनी दर्दनाक नहीं है जितनी पिछली सदी के अंतिम सालों में थी लेकिन अंग्रेजी क्रिकेट में भी संभावनाशील युवाओं का आना खत्म हो गया है. पिछले सालों में उनके सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी वे थे जो दक्षिण अफ्रीका से आए थे, अब उनका रास्ता भी बंद हो चला है. अंग्रेज क्रिकेट भी एक स्थायी औसतपन में फंस कर रह गए .

औसत टीम बनती जा रही है ऑस्ट्रेलिया

ऑस्ट्रेलिया भी लगभग पिछले दस साल से एक औसत टीम है जो सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में ही जीतती है. एकाध माइकल क्लार्क और स्टीव स्मिथ जैसे महान बल्लेबाज वहाँ हुए हैं , लेकिन उनसे बड़ी टीम नहीं बनती. ऑस्ट्रेलिया में भी अब वैसे पैमाने पर प्रतिभाशाली खिलाड़ी नहीं आ रहे हैं जो पिछले दशक तक ऑस्ट्रेलिया की पहचान थी. पाकिस्तानी क्रिकेट भी देश में अराजकता और अशांति के चलते बुरी हालत में है , और पाकिस्तान का भविष्य क्या है यह कोई ज्योतिषी नहीं बता सकता. श्रीलंकाई क्रिकेट मौजूदा हाल से उबरता है या नहीं यह देखना होगा. भारत की टीम अच्छी है लेकिन वह भी विदेश में नहीं जीत पाती.

कुछ हद तक इस बदहाली की वजह मौजूदा क्रिकेट का ढाँचा भी है जिसमें छोटे छोटे दौरे होते हैं जिनमें खिलाड़ी विदेशी परिस्थितियों में खेलने के लिए अभ्यास नहीं कर पाते. इससे होता यह है कि ज़्यादातर खिलाड़ी सिर्फ घरेलू मैदानों के शेर बन कर रह गए हैं. किसी भी खिलाड़ी को मुकम्मल होने के लिए जरूरी है कि वह हर परिस्थिति में कामयाब हो , लेकिन खेल संगठनों का लालच खिलाड़ियों को यह मौका ही नहीं देता. औसत स्तर का खेल कुछ दिन तो चल जाता है लेकिन आख़िरकार खेल टिकता है श्रेष्ठता की वजह से ही. कोई भविष्यवाणी नहीं करना चाहिए, लेकिन एक नजरिया यह भी है.